उन्होंने मुझे एक कमरे में रखा था, ढेर सारे मॉनिटरिंग उपकरणों के साथ. वो खुद दूसरे कमरे में खड़े थे, चुपचाप. मुझे देखते हुए. ये देखने के लिए जब आवाज़ की पहली तरंग मेरे कानों से टकराती है, तो क्या होता है.ऊपर लिखे शब्द एक ऐसे व्यक्ति के हैं, जिसने ज़िन्दगी के छह दशक बिना कोई आवाज़ सुने गुज़ार दिए. फिर एक दिन अचानक, घंटों ऑपरेशन टेबल पर बिताने के बाद अपनी ही आवाज़ सुनी, तो चौंक गए. ये शब्द हैं सतीश गुजराल के. भारत के नामी पेंटर, आर्किटेक्ट, और पूर्व प्रधानमंत्री रह चुके इंद्र कुमार गुजराल के छोटे भाई. ये बातें उन्होंने प्रीतीश नंदी को रेडिफ के लिए 1998 में दिए एक एक इंटरव्यू में बताई थीं, अपने ऑपरेशन के बाद. इनका 26 मार्च को निधन हो गया.
ऐसा लगा पटाखे फूट रहे हों. जब पहली बार आवाज़ मेरे कानों से टकराई, तो मैं जोर से चिल्लाया. 'मुझे हर जगह पटाखों की आवाज़ सुनाई दे रही है.' लेकिन डॉक्टरों का रिएक्शन देखने से पहले मैं अपनी ही आवाज़ सुनकर भौंचक हो गया था. इसलिए मैं बार-बार वही बात दोहराता रहा. ताकि मैं खुद को बोलता हुआ सुन सकूं.
इनके निधन पर शोक जताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट करके कहा,
सतीश गुजराल जी बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे. वो अपनी रचनात्मकता और दृढ़ता के लिए जाने जाते थे, जिसके सहारे उन्होंने विपरीत परिस्थितियों पर जीत हासिल की. उनकी बौद्धिक प्यास उन्हें दूर-दराज के इलाकों तक ले गई, लेकिन वो अपनी जड़ों से जुड़े रहे. उनके निधन पर बेहद दुखी हूं. ओम शान्ति!

ये है उनकी कहानी
झेलम (अब पाकिस्तान का एक शहर) में जन्मे सतीश बचपन में बुरी तरह बीमार पड़े थे. इसकी वजह से उनकी सुनने की शक्ति जाती रही. बीमारी की वजह से वो छह साल तक बिस्तर से भी नहीं उठ पाए. इतने दिनों तक उन्होंने सिर्फ उर्दू और पंजाबी साहित्य पढ़ा. जब वो ठीक हुए और वापस चलना शुरू किया, तब उन्हें किसी स्कूल में जल्दी एडमिशन नहीं मिला. उनके सुन न पाने की दिक्कत की वजह से. लाहौर के मेयो आर्ट स्कूल में कुछ दिन पढ़े, फिर बम्बई चले गए. वहां पर था जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स. वहां पर आर्ट की पढ़ाई की. तबीयत बार-बार खराब होने के कारण उन्हें जेजे स्कूल छोड़ना पड़ा.
इसके बाद उन्हें 1952 में मेक्सिको जाने का मौक़ा मिला. स्कॉलरशिप पर. वहां पर बड़े-बड़े आर्टिस्ट्स से उन्होंने पेंटिंग सीखी. करियर की शुरुआत में इनका काम विभाजन में झेले गए अनुभवों से बहुत प्रभावित था. क्योंकि जब भारत का विभाजन हुआ, तब सतीश और उनका परिवार भी भारत आया था. उन्होंने वो त्रासदी झेली, और वही उनके शुरुआती काम में भी दिखाई दी. अपने आर्ट में उन्होंने मूर्तियां, अलग-अलग तरह के स्कल्प्चर भी शामिल किए. रद्दी सामान और शीशा- लोहा लक्कड़ का भी इस्तेमाल किया अपनी आर्ट में.

1984 में इन्होंने दिल्ली में बने बेल्जियम दूतावास का डिजाइन तैयार किया. वो लाइसेंसी आर्किटेक्ट नहीं थे. लेकिन जब बेल्जियम के अधिकारी उनके पास दरख्वास्त लेकर पहुंचे, तो उन्होंने मना नहीं किया. उनकी बिल्डिंग का डिजाइन लोगों को इतना पसंद आया, कि उसके बाद उनके पास डिजाइन बनाने के बहुत सारे प्रस्ताव आने लगे. उन्होंने सऊदी अरब का समर पैलेस भी डिजाइन किया. ये रियाद में है. गोवा यूनिवर्सिटी का प्लान भी इन्होंने डिजाइन किया.

सुन नहीं सकते थे, लेकिन बोल पाते थे सतीश. मेक्सिको जाने के बाद उन्होंने अंग्रेजी भी सीखी. लिप रीडिंग करके अंदाजा लगा लेते थे कि सामने वाला क्या कह रहा है. लेकिन इतना काफी नहीं था. सतीश दोबारा सुनना चाहते थे. इसके लिए वो ऑस्ट्रेलिया चले गए. वहां 1998 में इन्होंने अपने कानों का ऑपरेशन कराया. खतरे काफी थे. चेहरा पैरलाइज हो सकता था. सालभर तक के लिए जबान से सारा स्वाद चला जाता. या शरीर का संतुलन खो जाता. लेकिन उन्होंने रिस्क लिया, ऑपरेशन कराने को तैयार हो गए. और उन्हें आखिरकार, इतने सालों बाद पहली बार आवाज़ सुनाई दी. ऑपरेशन के तीन दिन बाद, पहली बार उन्होंने फोन की घंटी बजने की आवाज़ सुनी. घर में बैठे थे, एक अजीब-सी आवाज़ सुनाई दी, तो उन्होंने अपनी पत्नी किरण से पूछा, कि ये कैसी आवाज़ है. किरण ने बताया,
ये? ये तो चिड़ियां चहक रही हैं.सतीश गुजराल को 1999 में पद्म विभूषण सम्मान दिया गया. उन्होंने बेल्जियम दूतावास का जो डिजाइन बनाया था, उसे बीसवीं सदी के सबसे बेहतरीन बिल्डिंग डिजाइंस में शुमार किया जाता है.
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