इस सफर में वो उस ऊंचाई तक पहुंचे जहां पहुंचना आज भी हिंदुस्तानी संगीतकारों और कलाकारों के लिए सिर्फ एक सपना है.
तबला बड़ा अनोखा साज़ है. पखावज या मृदंग को काटकर दो हिस्से कर दिए गए, फिर इन्हें तबला कहा गया. तबले को, गाने वाले उस्तादों को ताल देने के लिए बनाया गया. उस्ताद अपना ध्रुपद, खयाल गाते और तबले वाले उनकी संगत करते. अल्ला रक्खा के ज़माने में तबला बजाने वालों का स्तर क्या होता था इसको यूं समझें कि गाने वालों को उस्ताद और पंडित जैसे संबोधन मिले हुए थे लेकिन तबला बजाने वाले को तबलची या तबलिए जैसे शब्द से पुकारा जाता.
3 फरवरी 2000 को जब वे दुनिया से रुख़सत हुए तो इस स्तर को बहुत उठाकर. आज बरसी के दिन उन्हें याद कर रहे हैं. टीवी पर आपने चाय का वो एड देखा होगा जिसमें जाने माने तबला वादक उस्ताद ज़ाकिर हुसैन 'वाह ताज' बोलते नजर आते हैं. वे ज़ाकिर, अल्ला रक्खा के बेटे हैं. उन्होंने ख़ां साहब की उस रवायत को आगे बढ़ा रहे हैं जिसने क्लासिकल म्यूजिक को आधुनिक समय में एक नई ऊंचाई दी. इसमें अल्ला रक्खा के दूसरे बेटे तौफीक कुरैशी भी शामिल हैं.
# जिंदगी का सबसे बड़ा कॉम्प्लीमेंट उन्हें जब मिला
बड़े ग़ुलाम अली खां साहब जैसे कई उस्तादों के साथ जुगलबंदी करने वाले अल्ला रक्खा साठ के दशक में अमेरिका गए थे. पंडित रविशंकर के साथ उनकी जुगलबंदी याद की जाती है. इन दोनों ने बेहद मशहूर ब्रिटिश रॉक बैंड बीटल्स के साथ एक रॉक एंड रोल कॉन्सर्ट किया था. श्रोताओं में हजारों हिप्पी लोग थे. इसमें बैंड के नौ ड्रम थे और अल्ला रक्खा के दो तबले (दायां और बायां). देखने वालों को ड्रम ज्यादा प्रभावी और ग्लैमरस लग रहे थे लेकिन जब तबले की ताल अल्ला रक्खा ने दी तो रॉक एंड रोल के दिग्गज लोगों ने कहाः
''खान तो संगीत के आइंस्टीन, मोज़ार्ट और पिकासो तीनों हैं.''अल्ला रक्खा जीनियस आर्टिस्ट थे और उनके बारे में ऊपर जो कथन कहा गया वो अतिश्योक्ति नहीं थी. आज 2017 तक आते-आते भी भारत या दुनिया के म्यूजिक आर्टिस्ट जहां पहुंचने की हसरत रखते हैं. वहां अल्ला पहुंचकर लौटे थे. उन्होंने बीटल्स के साथ परफॉर्म किया था जो दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित बैंड माना जाता है. वो भी तब जब 60 और 70 के दशक में बीटल्स की लोकप्रियता घनघोर थी. बीटल्स के सब सुपरस्टार लोग अल्ला रक्खा ख़ान साहब और पंडित रविशंकर को घंटों बैठकर सुनते थे.

बीटल्स के जॉर्ज हैरिसन के साथ पंडित रविशंकर और पीछे अल्ला रक्खा. (फोटोः अल्लाह रखा फाउंडेशन)
# उनकी तालीम थी कि ज़ाकिर हुसैन 16वें साल में उस्ताद हो गए
अल्ला रक्खा के बारे में ज़ाकिर कहते हैं, "अब्बा जी ने एक पिता और गुरु के रूप में बैलेंस बनाए रखा. तबले की तालीम पहले नंबर पर थी मगर इसके चलते हमारे बचपन की हत्या नहीं होने दी." ज़ाकिर जब छोटे थे तो क्रिकेट के दीवाने थे. स्कूल बंक करके खेलते रहते थे. उस्ताद जी ने कभी ऐतराज़ नहीं किया. फिर 14 की उम्र में बल्लेबाजी करते हुए ज़ाकिर ने अपनी उंगली तोड़ ली. उस्ताद जी गुस्सा हुए. बहुत. बोले, "मुझे तुम में तबले को बहुत ऊंचाई पर ले जाने की काबिलियत दिखती है और तुम इस तरह की हरकतें कर रहे हो." ये उस्ताद जी की तालीम थी कि ज़ाकिर को 16 की उम्र में उस्ताद कहा जाने लगा. इसके बाद ज़ाकिर को सब जानने लगे. उस्ताद जी के छोटे बेटे तौफीक अपने अलग तरह के परक्शन म्यूजिक के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने जाते हैं.# उनके पकाए केरल मीट के दीवाने पंडित रविशंकर भी थे
उस्ताज जी की बंबई के माहिम और खार इलाकों में महफिल जमा करती थी. संगीतकारों के सख्त नियमों के चलते पीने-पिलाने की गुंजाइश नहीं थी. शुरुआती दौर में जेब में पैसे भी नहीं होते थे. लेकिन अल्ला रक्खा के पास इसका भी आइडिया था. उनकी महफिल में मौसमी-संतरे के जूस ही कॉकटेल का काम करते थे. या फल सर्व किए जाते थे. इसके साथ होती थी उनकी हंसा-हंसाकर पेट में बल डाल देने वाली मिमिक्री. इन महफिलों की दीवानी तब की कई बड़ी हस्तियां थीं.वे खाना भी जोरदार बनाते थे. उनके पकाए केरल मीट और कीमा के कद्रदान पंडित रविशंकर भी थे. दोनों विदेश में टूर करते तो रविशंकर के खाने की फरमाइश को अल्ला रक्खा पूरा करते थे. दुनिया के अलग-अलग शहरों में जब रुकना होता तो वहां के लोकल म्यूजिक आर्टिस्ट अल्ला रक्खा की दावत के मेहमान बनते थे.
सुनें अल्ला रक्खा ख़ां साहब की जुगलबंदी. रविशंकर बोल रहे हैं और ख़ां साहब उसे तबले पर सुना रहे हैं.
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