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हर्षद मेहता बनकर धमाका करने वाले प्रतीक गांधी, जिनकी एक फिल्म ने गुजराती सिनेमा का चेहरा बदल दिया

उनकी लाइफ के फिल्मी और नॉन-फिल्मी किस्से.

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रातों-रात तहलका मचाने वाले प्रतीक के पीछे सालों की मेहनत है. फोटो - इंस्टाग्राम
देखो मैं सिगरेट नहीं पीता, पर जेब में लाइटर जरूर रखता हूं. धमाका करने के लिए.
खट करके लाइटर बंद हुआ और एक धमाका हुआ. ऐसा धमाका जो दिखा तो किसी को नहीं, पर उसकी गूंज पूरे देश ने सुनी. अब तक सुन रहे हैं. जान लीजिए कि वो किया किसने. जिम्मेदार हैं हर्षद मेहता. रीयल वाले नहीं, रील वाले. यानि प्रतीक गांधी. ऐसे एक्टर, जिन्हें किरदार खोजने के लिए खुद को सुनसान होटल के कमरों में बंद नहीं करना पड़ता. ऐसे एक्टर, जिन्होंने थिएटर को अपना अखाड़ा समझा और नतमस्तक होकर वर्जिश की. बताएंगे आपको प्रतीक के फिल्मी सफर के बारे में, जानेंगे उनसे जुड़े कुछ इंटरेस्टिंग किस्से, खोजेंगे वो नॉन फिल्मी किस्से जिन्होंने उन्हें लाइफ का फंडा सिखाया और अंत में बताएंगे उनकी कुछ मस्ट वॉच फिल्मों के बारे में.
Pratik Gandhi in Scam 1992.
'स्कैम 1992' ने इंडियन सिनेमा में प्रतीक की बुल रन शुरू कर दी है. फोटो - ट्रेलर

कैमरा कहां है लाला?
सूरत में जन्मे प्रतीक वहीं पले-बढ़े. पेरेंट्स टीचर थे. रिश्तेदारों में जहां तक नजर दौड़ाते, सिर्फ टीचर्स ही नजर आते. माता-पिता की इच्छा थी कि बेटा अकेडमिक्स में कुछ करे. बेटे को कुछ और ही मंजूर था. तब किसे पता था कि खानदान की आने वाली पीढ़ियों के लिए नज़ीर बन जाएंगे. अक्सर हम हर बड़े एक्टर की लाइफ में फिल्मी कीड़े का जिक्र सुनते हैं. कीड़े ने काटा तो ऐक्टिंग शुरू की, फलानी फिल्म देखी तो ज़िंदगी बदल गई जैसी बातें. पर प्रतीक का केस अलग था. उनको बाहरी किसी कीड़े के काटने की जरूरत नहीं पड़ी. शायद वो ये कीड़ा अपने अंदर लेकर जन्मे थे. अगर कोई इम्पैक्ट डालने वाली फिल्म याद करना भी चाहें तो 'शोले' थी बस. देखने में मज़ा आता था और ठाकुर वाले एक्टर पसंद थे. उसी लड़कपन में प्रतीक को अपना पहला प्यार हुआ. थिएटर से. और ऐसा टूटके हुआ कि अब तक चल रहा है. बचपन से ही थिएटर लुभाने लगा. और लुभाए भी क्यूं ना, गुजराती थिएटर की बात ही ऐसी है. उस पर अलग से किसी एपिसोड में बात करेंगे. अभी बात प्रतीक की.
Sanjeev Kumar in Sholay
'शोले' वाले अपने ठाकुर साहब का प्रतीक पर गहरा प्रभाव पड़ा था. फोटो - फिल्म स्टिल

स्कूल जाने वाला प्रतीक एक्टिंग की बारीकियों से दूर रहकर भी इसमे डूबना चाहता था. पहला मौका मिले और झटक लें बस. ऐसा एक मौका आया भी. तब वो छठी क्लास में थे. ऑडिशन के लिए बुलाया गया. पहुंचे, पर वहां कोई कैमरा नहीं. चौंकिए मत, कोई स्कैन्डल नहीं था. नृत्य नाटिका का ऑडिशन था. यानि जहां नृत्य के जरिए नाटक पेश किया जाता है. हमारे देश की हर संस्कृति में आपको इसके फुट प्रिंटस मिलेंगे. दूरदर्शन ये नाटक बना रहा था. अपने रीजनल चैनल डीडी गुजरात के लिए. ऑडिशन भी हो गया. बाद में बात समझ आई. कैमरा तो था बस उसका आभास नहीं हुआ. शायद, ये भी कोई किस्मत का इशारा ही था.
पहली जॉब, जिसने लाइफ का फंडा सिखा दिया
अपनी पहली जॉब कोई भूलता है भला. कॉलेज के मस्ती मज़ाक से निकाल बाहर ले आती है. कभी जवानी के जोश में करनी पड़ती है, तो कभी ज़िम्मेदारी के बोझ से. जो भी हो, जैसी भी हो, सिखा बहुत कुछ जाती है. यहां भी ऐसा ही किस्सा है. प्रतीक मैकेनिकल इंजिनियरिंग से डिप्लोमा कर चुके थे. मौका था या तो आगे पढ़ो, वरना लग जाओ सुबह शाम की भागदौड़ में. प्रतीक ने दूसरे रास्ते पर तेज़ कदम लिए. सेल्स की जॉब लेकर. काम था इंडस्ट्रियल एनर्जी सेविंग प्रॉडक्ट बेचने का. ज्ञान से तेज़ और काम से कच्चे प्रतीक को अपने पहले ही दिन सेल्स के लिए भेजा गया सूरत की टॉप साइंटिफिक फर्म में.
Pratik gandhi in College
अपने कॉलेज के दिनों में प्रतीक. फोटो - फेसबुक

सामने सीनियर साइंटिस्ट थे. प्रतीक ने हाई-हैलो किया. फिर जो ऑफिस से याद कर चले थे, सब उंडेल दिया. प्रॉडक्ट की ऐसी व्याख्याएं कह डाली कि सिद्ध कवि भी झिझक जाए. अचानक आवाज़ आई, "तुम्हारी तैयारी कच्ची है." बुलेट ट्रेन की स्पीड से जा रहे प्रतीक रुके, चौंके और कारण पूछा. सामने वाले ने अपनी जेब से एक कार्ड निकाला. लिखा था ‘पीएचडी इन फिजिक्स’. बात पूरी की, "जो तुम कह रहे हो, वो बेतुका है". सिर्फ इतने पर रुकते तो भी ठीक था. पर एकाएक टेक्निकल सवालों की फायरिंग कर दी. ऐसी सिचुएशन से अंजान प्रतीक को एक्जिट का दरवाज़ा दूर नजर आने लगा. थके हारे वापस ऑफिस आए. बॉस पर गुस्सा फूटने को तैयार था. पर कुछ कह भी नहीं सकते थे, जूनियर जो थे. बस इतनी शिकायत की कि आपने ये सब क्यूं नहीं बताया. सारी बात सुनने के बाद बॉस का जवाब आया. ऐसा जवाब, जिसने ज़िन्दगी भर के लिए इस कॉलेज पासआउट का नज़रिया बदल दिया. उन्होंने कहा कि मैं चाहता था कि ऐसा हो, ताकि तुम समझ सको कि हमारी तैयारी कभी काफी नहीं होती. इस एक लाइन ने प्रतीक को ज़िन्दगी भर सीखते रहने के लिए प्रेरित किया. फिल्म हो, थिएटर हो या इंजिनियरिंग जॉब, उनकी आंखें कुछ-न-कुछ सीखने लायक चीज़ ढूंढती रही.
पहला किरदार ऐसा कि सकपका गए
साल 2006. ऐसा समय जब इमरान हाशमी की ऑन स्क्रीन किसिंग को नीची नज़रों से देखा जाता था. टीवी पर उनका गाना आते ही आंखें झेंपकर नीची कर ली जाती थीं. तब तक इंटरनेट ने अपने पांव ठीक से नहीं पसारे थे. कम से कम भारत में तो नहीं. इसी साल एक्टर बनने की चाह लिए एक लड़के ने पहली बार कैमरे की आंख से आंख मिलाई. वो था प्रतीक गांधी. फिल्म थी 'योर्स इमोशनली'. दिमाग पे ज़ोर डालेंगे तो याद नहीं आएगी. ना किसी थिएटर के बाहर पोस्टर देखा होगा, ना किसी फिल्म के शुरू में इसका प्रोमो. कारण है कि ये कभी थिएटर में रिलीज़ ही नहीं की जानी थी.
pratik gandhi in a still from Yours Emotionally
फिल्म 'योर्स इमोशनली' में प्रतीक. फोटो - ट्रेलर

फिल्म एलजीबीटी कम्युनिटी पर थी. ऐसा सब्जेक्ट जिसे हम आज भी अगर समझने और अपनाने की कोशिश मात्र करें, तो मानव संवेदना की जीत होगी. और वो तो 2006 था. जब हम और हमारा सिनेमा ट्रांस या गे किरदार से एक ही उम्मीद करता था. हमें हंसाओ. इतना हंसाओ कि हस किस पर रहें हैं, वो भी ध्यान ना रहे.
खैर, मेनस्ट्रीम सिनेमा की कालजयी हिप्पोक्रेसी गिनने बैठे तो एपिसोड छोटा पड़ जाएगा. आते हैं प्रतीक पर. इस फिल्म में प्रतीक ने एक गे किरदार किया. अपने पहले किरदार में ज्यादातर लोग इमेजिन करते हैं कि झामफाड़ एक्शन करेंगे, और बमफाड़ सीटियां बजेंगी. और इनका किरदार ऐसा कि किसी को बताते हुए भी शर्म आती. पूछ लिया कि एलजीबीटी क्या है, तो खुद निरुत्तर. खुद प्रतीक ने माना कि वो घबरा गए थे. समझ नहीं आ रहा था कागज पे लिखे शब्दो को सार्थक कैसे करेंगे. डायरेक्टर साहब को पुकारा. उन्होंने आराम से बिठाकर समझाया. जब कन्विंस हुए, तब जाकर टेक दिया. फिल्म को एलजीबीटी फिल्म फ़ेस्टिवल के लिए ही बनाया गया था. इसलिए कभी इसने थिएटर की सूरत नहीं देखी.
एक्सपेरिमेंटल थिएटर - एक नई दुनिया
साल 2004 प्रतीक को माया नगरी ले आया था. और इस शहर की ‘थकना मना है’ वाली लाइफ कहीं ना कहीं उन्हें रास भी आने लगी थी. लेकिन एक धर्मसंकट था, जो पीछा छोड़ने को राज़ी नहीं था. इंजिनियरिंग में डिस्टिंक्शन से पास हुए थे, वहीं थिएटर में पूरी वाहवाही भी लूट रहे थे. पर अब चुनें क्या? चुनाव मुश्किल था. तो दोनों जहाज़ों पर चढ गए. बिना अपना मन मारे.
कॉर्पोरेट जॉब मिली. लगा कि साथ में थिएटर भी मैनेज हो ही जाएगा. पर हो नहीं पाया. जॉब पूरा दिन ले लेती और कमर्शियल थिएटर की वक्त को लेकर अपनी अलग मांग हुआ करती है. बीच का रास्ता खोजना चाहते थे. खोज ले गई पृथ्वी थिएटर. मुलाकात हुई मनोज शाह से. मनोज शाह, गुजराती थिएटर के रिस्पेक्टेड फिगर. 90 से ऊपर नाटकों के रचयिता. एक्सपेरिमेंटल थिएटर को अंदर-बाहर से जानने वाले. इनके शानदार काम का आलम ऐसा है कि जिस साल प्रतीक मुंबई आए थे, उसी साल इनका एक प्ले शुरू हुआ था. नाम था ‘मरीज़’. अब तक चल रहा है.
Pratik Gandhi With Manoj Shah
प्रतीक मनोज शाह को अपना गुरु और दोस्त मानते हैं. फोटो - इंस्टाग्राम

यहां संक्षेप में एक्सपेरिमेंटल थिएटर क्या होता है, बता देते हैं. ऐसा थिएटर, जो ढर्रे पर चले आ रहे कमर्शियल थिएटर के नियमो के सांचे में नहीं बैठना चाहता. हमेशा कुछ नया करने की तलाश में लगा रहता है. बोले तो, किसी सेट फॉर्मूले का आदी नहीं बनना चाहता. उस समय इसे कमर्शियल थिएटर जितनी तवज्जो नहीं हासिल होती थी. प्रतीक ने कभी मंच के साइज़ नहीं देखा. बल्कि हमेशा अपने किरदार को कहानी के तराज़ू में तोलकर देखा. इसी इच्छा के साथ वो मनोज शाह के साथ काम करने लगे. जहां उन्होंने ‘हू चंद्रकांत बक्षी’, ‘मेरे पिया गए रंगून’ और ‘मोहन नो मसालो’ जैसे प्लेज़ में काम किया. मोहन नो मसालो माने मोहन का मसाला. प्रतीक गांधी का ये प्ले देश के सबसे बड़े गांधी पर आधारित था. मोहनदास करमचंद गांधी. करीब 90 मिनट का ये प्ले एक सोलो एक्ट था. यानि मंच पर सिर्फ एक किरदार. इस प्ले से जुड़ा हुआ एक किस्सा है. जरा वो जान लीजिए.
Hu Chandrakant Bakshi
'हू चंद्रकांत बक्शी' का पोस्टर. फोटो - इंस्टाग्राम

हंसी मज़ाक में रिकॉर्ड बना दिया
हुआ यूं कि एक सुबह मनोज शाह ने प्रतीक को कॉल किया. पृथ्वी थिएटर आने के लिए. ‘मोहन नो मसालो’ का एक शो करना था. पहले ‘मोहन नो मसालो’ और बाद में दूसरी भाषाओं के प्ले. प्रतीक को कुछ सूझा. सुझाव दिया कि कुछ और करने से बेहतर है कि इसी प्ले को हिंदी और अंग्रेज़ी में भी कर दिया जाए. अब तक शो लोगों और क्रिटिक्स की नज़र में भी आ चुका था. मनोज शाह ने समय लिया और दो दिन बाद प्रतीक के आइडिया को हरी झंडी दिखाई.
pratik in Mohan No Masalo
'मोहन नो मसालो', वो प्ले जिसने लिम्का बुक में अपना नाम दर्ज करवाया. फोटो - फेसबुक

करीब 25 दिन रिहर्सल चली. गुजराती, हिंदी और इंग्लिश की एक साथ, नॉन स्टॉप. आखिरकार, शो अनाउंस किया गया. सुबह 11:30 पे गुजराती, शाम 4:30 पे हिंदी और शाम 7:30 पे अंग्रेज़ी. इसी दौरान प्रतीक के एक दोस्त आकर मिले. बताया कि, 'भायला, जो कर रहे हो वो एक्स्ट्रा-ऑर्डिनरी है'. गुजराती में दोस्त प्यार से भाई को भायला कहते हैं. खैर, दोस्त ने सजेशन दिया कि लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में कॉन्टेक्ट करो, शायद कोई रिकॉर्ड बन जाए. प्रतीक ने हंसकर टाल दिया. पर ऐसे ही मज़े मज़े में, लिम्का वालों को मेल कर दिया. बता दिया कि क्या करने वाले हैं. पूछ भी लिया कि ऐसा कोई रिकॉर्ड है या दोस्त बस फिरकी ले रहा था. लिम्का ने इंटरेस्ट दिखाया. कहा ऐसा रिकॉर्ड तो नहीं है, इसलिए हम रिकॉर्ड करना चाहेंगे. शो की तारीख आई. दर्शकों के साथ लिम्का वाले भी आए. दोनों ने शोज़ देखे. एक ग्रुप ने तालियां बजाई, तो दूसरे ने रिकॉर्ड दर्ज किया. एक ही दिन में तीन भाषाओं में सेम मोनोलॉग का रिकॉर्ड.
वो फिल्म, जिसने गुजराती सिनेमा का चेहरा बदल दिया
बहुत से प्रदेशों में थिएटर शुरू हुआ था. कुछ समय के साथ नहीं चल पाए, तो कुछ जिस गरिमा से शुरू हुए उसे बरकरार नहीं रख पाए. पर दो नाम ऐसे हैं, जो डटकर खड़े हैं. जैसे प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. मराठी थिएटर और गुजराती थिएटर. दोनों ने देश की झोली में एक से एक कलाकार डाले. मराठी कलाकारों ने दो कदम और बढ़ाए. अपने इंद्रधनुषीय रीजनल सिनेमा में और रंग भरने की सोची. बस यहीं पर गुजराती एक्टर्स का रुख अलग था. और दोष उनका भी नहीं.
गुजराती कलाकारों के पास अपने रीजनल सिनेमा के नाम पर था भी क्या? सदियों से चला आ रहा वही घिसा-पीटा फैमिली ड्रामा. ऐसा सिनेमा, जो नएपन और एक्सपेरिमेंट जैसे शब्दों से बिदकता था. 3 इडियट्स में रैंचो के पिता का डायलॉग, 'जैसा चल रहा है, चलने दीजिए' ही मानो इनकी टैगलाइन हो. पर कहते हैं, बदलाव ही प्रकृति का नियम है. राज़ी से नहीं तो बिना रज़ामंदी से, ये तो होगा ही. यहां भी हुआ. और इसकी वजह बनी एक फिल्म.
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'बे यार', वो फिल्म जो पूरी तरह वर्ड ऑफ माउथ पे चली. फोटो - इंस्टाग्राम

नाम था 'बे यार'. आम बोलचाल में जैसे बोल देतें हैं, 'अबे यार, ये क्या कर दिया'. बस उसी अबे यार से इसका टाइटल निकला. दो लंगोटिए यारों की कहानी, जो आनन-फानन में पैसा बनाना चाहते हैं, पर मुसीबत मोल ले लेते हैं. प्रतीक ने दूसरे दोस्त का किरदार किया. 'तारक मेहता का ऊलटा चश्मा' और 'बाला' लिख चुके राइटर नीरेन भट्ट की ये पहली फिल्म थी. बजट इतना टाइट कि 35 दिन में शूटिंग खत्म करनी पड़ी. कम शोज के साथ रिलीज़ हुई. ठंडा रिस्पॉन्स मिला. सारी उम्मीदें ठप्प पड़ गईं. कहते हैं नेकी और शिद्दत से किया काम हमेशा बरकत लाता है. लाइन ज़रा फिल्मी है पर रियल लाइफ में भी असरदार है. कभी आजमा कर देखिए. इस फिल्म के साथ भी ऐसा हुआ. होर्डिंग्स पे पोस्टर लगाकर प्रोमोशन करने के पैसे नहीं थे. किसी बड़े टीवी चैनल से भी न्योता नहीं आया. फिर दिखाई जनता जनार्दन ने अपनी शक्ति. वर्ड ऑफ माउथ की शक्ति. इसी से इतनी भीड़ जुटी कि 10 गुना कमाई कर गई. कहां तो दो शो के लाले पड़े थे और 60 मिल गए. लगातार 15 हफ्ते तक थिएटर्स में तारीफ़ें बटोरी. लोगों ने यहां तक कह डाला कि ये फिल्म गुजराती न्यू वेव का चेहरा है. आगे जाकर, डायरेक्टर अभिषेक जैन ने अपने इस अनुभव पर किताब भी लिखी.
बात करते हैं प्रतीक की कुछ फिल्मों की. जो अगर अब तक नहीं देखी, तो जल्दी देख डालिए.
1. रौंग साइड राजू: 2016 में आई ये फिल्म प्रतीक के करियर के लिए पारस पत्थर साबित हुई. जबरदस्त पहचान दिलाई और एक नैशनल अवॉर्ड भी ले गई. इसे ‘मेड इन चाइना’ वाले मिखिल मुसाले ने बनाया था. प्रतीक ने राजू का किरदार किया. लाइफ से हारा, पर खुश रहने वाला दुबला-पतला मिडल क्लास लड़का. जो ड्राइ स्टेट गुजरात में शराब बेचता है. दो नंबर में. एक रात किसी गाड़ी का एक्सीडेंट हो जाता है. दुर्घटनास्थल से राजू का शराब से भरा स्कूटर भी मिलता है. राजू इस सबसे कैसे बाहर निकलता है, ये फिल्म की कहानी है.
Pratik In Wrong Side Raju
नैशनल अवॉर्ड जीतने वाली सस्पेंस थ्रिलर. फोटो - फिल्म स्टिल

2. वेंटिलेटर: इसी नाम से बनी मराठी फिल्म का रीमेक. 2018 में आई. ओरिजिनल जैसा जादू भले ही क्रीएट ना कर पाई. पर एक्टर्स की परफॉरमेंस और ड्रामा के लिए देखी जा सकती है. कहानी सिम्पल है. एक पिता जो वेंटिलेटर पर है. नवरात्रि का त्योहार नज़दीक है. पिता की बीमारी से डिम हुए माहौल को बेटा फिर से जगमग करना चाहता है. वो बेटा प्रतीक ही बने थे. ये फिल्म बॉलीवुड के ‘जग्गू दादा’ यानी जैकी श्रॉफ की पहली गुजराती फिल्म भी बनी. अमेजन प्राइम पर ये फिल्म देखी जा सकती है.
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'वेंटिलेटर' भीडु भाई की पहली गुजराती फिल्म भी थी. फोटो - इंस्टाग्राम

3. धुनकी: दो आईटी फर्म के एम्प्लॉईज़, जो सब कुछ छोड़ अपने स्टार्ट-अप में लग जाते हैं. पर अपने सपनों के पीछे दौड़ना इतना आसान नहीं, जितना लगता है. क्या पाते हैं, और क्या खो बैठते हैं, बस इसी पर फिल्म की कहानी है. प्रतीक ने लीड किरदार निभाया है. 2019 में आई इस फिल्म को आप अमेजन प्राइम पर देख सकते हैं.
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दो आईटी फर्म के वर्कर्स की अपना स्टार्ट अप खोलने की कहानी. फोटो - फिल्म स्टिल

पर्सनल लाइफ
थिएटर से प्रतीक को बिन मांगे बहुत कुछ मिला. नाम, काम, पहचान और वाइफ. किस्सा ये है कि प्रतीक की वाइफ भामिनी एक प्ले देखने गई. प्रतीक उस प्ले का हिस्सा थे. भामिनी दूसरी रो में बैठी थी. प्रतीक की नजर पड़ी. ऐसी पड़ी कि इसके बाद कहीं और देखने की जरूरत नहीं पड़ी. एक दोस्त से जान पहचान निकलवाई. कॉफी पर मिलने के लिए मिन्नतें की. कॉफी पर मिले और दोनों को एहसास हुआ कि दोनों को कॉफी पसंद नहीं. यहीं से उनकी लव स्टोरी शुरू हुई. 2008 में शादी कर ली. आज दोनों की 6 साल की एक बेटी है. प्रतीक के साथ-साथ भामिनी भी ऐक्टर हैं. दोनों मियां-बीवी की जोड़ी साथ में कई प्लेज़ कर चुकी है.
Pratik And Bhamini Theatre Performance
एक प्ले के दौरान पर्फॉर्म करते प्रतीक और भामिनी. फोटो - इंस्टाग्राम

प्रतीक के आने वाले प्रोजेक्ट्स की बात करें, तो सबसे ऊपर एक नाम है. 'रावण लीला'. बतौर लीड, उनका पहला हिंदी फिल्म प्रोजेक्ट. फिल्म की रिलीज़ को लेकर कोई ऑफिशियल डेट अनाउन्स नहीं हुई है. जो भी अपडेट आएगा, हम आपको बिना भूले देंगे. बस जुड़े रहिएगा. इसके अलावा प्रतीक कुछ वेब सीरीज़ की स्क्रिप्ट्स भी पढ़ रहें हैं, पर फाइनल अभी कुछ नहीं हुआ है.