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प्रफुल्ल पटेल, वो नाम जिसने शरद पवार की सियासी पावर को नई धार दी

प्रफुल्ल पटेल के लिए पवार ने कांग्रेस से लड़ाई लड़ी, लेकिन नतीजा कुछ और ही निकला.

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प्रफुल्ल पटेल ने शरद पवार के सान्निध्य में विदर्भ के दूरदराज के इलाके से दिल्ली तक का राजनीतिक सफर तय किया है.

आजकल तकरीबन सभी राजनीतिक दलों को मजबूत पाॅलिटिकल मैनेजरों की जरूरत होती है. पाॅलिटिकल मैनेजर मतलब, पार्टी का वह इंतजाम अली जो पार्टी के अंदर और बाहर, दोनों तरह के क्राइसिस को संभाल सके. मोटामाटी कहें तो सियासत की हर कला में निपुण हो. भले ही जनाधार के मामले में जीरो हो. इस तरह की राजनीतिक खूबियों वाले लोगों में अक्सर दिवंगत प्रमोद महाजन, अहमद पटेल, अमर सिंह, प्रेम गुप्ता, सतीश चंद्र मिश्रा, प्रफुल्ल पटेल आदि का नाम लिया जाता रहा है. आज हम बात करेंगे प्रफुल्ल पटेल की, क्योंकि 17 फरवरी को उनका बड्डे होता है. वह 64 साल के हो गए हैं.


सियासत में एंट्री

प्रफुल्ल पटेल को शरद पवार का दाहिना हाथ माना जाता रहा है. लेकिन वो शरद पवार के करीब पहुंचे कैसे, इसकी एक दिलचस्प कहानी है. 50, 60 और 70 के दशक में पूर्व उप-प्रधानमंत्री यशवंत राव चव्हाण को महाराष्ट्र की सियासत का सबसे बड़ा नेता माना जाता था. खासकर तब, जब 1960 में बंबई राज्य का महाराष्ट्र और गुजरात में विभाजन हो गया, और मोरारजी देसाई जैसे बड़े नाम गुजरात से आने वाले नेता कहलाने लगे. उसी दौर में विदर्भ इलाके से आने वाले एक नेता हुआ करते थे. नाम था मनोहर भाई पटेल. मनोहर भाई गोंदिया सीट के कांग्रेसी विधायक थे. यशवंतराव चव्हाण के खांटी समर्थक थे. उन्हीं दिनों बारामती का एक काॅमर्स ग्रेजुएट भी चव्हाण के सान्निध्य में सियासत के दांव-पेच सीख रहा था. नाम था शरद पवार.

यशवंत राव चव्हाण के यहां शरद पवार और मनोहर भाई पटेल दोनों की बैठकी लगती. कभी-कभार मनोहर भाई अपने साथ अपने बेटे प्रफुल्ल को भी लेकर पहुंच जाते. लेकिन इसी दरम्यान मनोहर भाई पटेल का 1970 में निधन हो गया. तब प्रफुल्ल पटेल सिर्फ 13 बरस के थे. यही वह दौर था, जब शरद पवार महाराष्ट्र की राजनीति में मजबूती से अपने पैर जमाते दिख रहे थे.


प्रफुल्ल पटेल को शरद पवार का बेहद विश्वासपात्र माना जाता है.
प्रफुल्ल पटेल को शरद पवार का बेहद विश्वासपात्र माना जाता है.

पिता के निधन के बाद प्रफुल्ल पटेल ने अपनी पढ़ाई पूरी की. और फिर शरद पवार से जुड़ गए. उन दिनों शरद पवार के दरबार में 2 युवा नेताओं की खूब चलती थी. एक थे प्रफुल्ल पटेल और दूसरे थे सुरेश कलमाड़ी. लेकिन 90 का दशक आते-आते सुरेश कलमाड़ी शरद पवार का भरोसा गंवा बैठे. हां, प्रफुल्ल पटेल की शरद पवार से नजदीकी में कोई कमी नहीं आई. 1985 में प्रफुल्ल पटेल गोंदिया म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के चेयरमैन बन गए.

फिर आया 1991 का साल. चंद्रशेखर सरकार अकाल मृत्यु की शिकार हो गई. दसवीं लोकसभा का चुनाव सिर पर था. ऐसे में महाराष्ट्र के उस वक्त के मुख्यमंत्री शरद पवार ने विदर्भ इलाके की भंडारा लोकसभा सीट से प्रफुल्ल पटेल को कांग्रेस का टिकट दिलवा दिया. प्रफुल्ल जीत भी गए. लेकिन उनके गुरू शरद पवार प्रधानमंत्री पद की दौड़ में पीवी नरसिंह राव से मात खा गए. हालांकि 7 रेसकोर्स रोड (प्रधानमंत्री आवास) की गाड़ी छूटने के बावजूद पवार दिल्ली आ गए. रक्षा महकमे की जिम्मेदारी के साथ. ये वो दौर था, जब शरद पवार को नरसिंह राव के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जाता था. उनके आसपास और खासकर दिल्ली-मुंबई के उनके आवास पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और समाज के अलग-अलग क्षेत्र के लोगों का जमावड़ा लगा रहता था. इन सब जमावड़ों और इंतजामात पर एक आदमी की बहुत पैनी नजर रहती थी. वो आदमी थे, प्रफुल्ल पटेल. उस दौर में शरद पवार की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के बारे में ख़ुद प्रफुल्ल पटेल ने कुछ महीनों पहले कहा था-


'शरद पवार कांग्रेस की दरबार संस्कृति के कारण कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री नहीं बन सके.'

लेकिन इसी दौर में, यानी 90 के दशक में शरद पवार के सान्निध्य में प्रफुल्ल पटेल की धमक दिल्ली में बढ़ने लगी. इसी धमक के बीच वह 1996 और 1998 का लोकसभा चुनाव भी जीत गए. भले ही इन दोनों चुनावों में उनकी कांग्रेस पार्टी लोकसभा में दूसरे नंबर की पार्टी बन गई थी.
अमर सिंह के साथ प्रफुल्ल पटेल. फोटो क्रेडिट : getty image.
अमर सिंह के साथ प्रफुल्ल पटेल. फोटो क्रेडिट : getty image.

पवार के कांग्रेस छोड़ने के बाद पटेल का रसूख कैसे बढ़ा?

यह 1998-99 का साल था. शरद पवार बारामती से कांग्रेस सांसद और लोकसभा में विपक्ष के नेता थे. अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे. लेकिन साल बीतते-बीतते वाजपेयी सरकार गिर गई. तब कांग्रेस पार्टी ने सरकार बनाने की कोशिश शुरू की. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति के.आर. नारायणन के सामने सरकार बनाने का दावा पेश करते हुए कहा, 'मेरे पास 272 सांसदों का समर्थन है.' लेकिन जब राष्ट्रपति ने समर्थन पत्र मांगा तो कांग्रेस ने हाथ खड़े कर दिए. नतीजतन मध्यावधि चुनाव की नौबत आ गई.

इस पूरी कवायद में एक बात साफ हो गई कि विपक्ष के नेता शरद पवार अब कांग्रेस में रहकर प्रधानमंत्री नहीं बन सकते. नतीजतन 3 सप्ताह बीतते-बीतते शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर कांग्रेस पार्टी में विद्रोह का बिगुल फूंक दिया. इसके बाद उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया. उसके बाद उन्होंने अपनी नई पार्टी खड़ी कर दी. नाम रखा गया नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी. शॉर्ट में कहें तो NCP.

उस दौर में सभी पार्टियों में एक से एक पाॅलिटिकल मैनेजर भरे पड़े थे. प्रमोद महाजन, पी.आर. कुमारमंगलम, अमर सिंह, कमलनाथ, अहमद पटेल जैसों की तब तूती बोलती थी. ऐसे में शरद पवार को भी एक ऐसे पाॅलिटिकल मैनेजर की जरूरत थी, जो महाराष्ट्र में उनके समीकरणों को साधने के साथ-साथ दिल्ली की सियासत के चाल, चरित्र और चेहरे को भी समझता हो. इस काम के लिए पवार के भरोसेमंद लोगों की टोली में प्रफुल्ल पटेल से बेहतर नाम कोई और नहीं दिख रहा था. प्रफुल्ल पटेल को दिल्ली की सियासत की समझ तो थी ही, विदर्भ के इलाके में जहां NCP को कमजोर समझा जाता है, वहां वह पार्टी के एक मजबूत चेहरे की कमी को भी पूरा कर रहे थे. लेकिन NCP में जाने के बाद लोकसभा उनके लिए दूर की कौड़ी बन चुकी थी. फिर भी साल 2000 में शरद पवार उन्हें राज्यसभा लेकर गए, जहां से वो लगातार चौथी बार राज्यसभा में हैं.


मुकेश अंबानी, अमिताभ बच्चन, देवेन्द्र फड़नवीस और उद्धव ठाकरे के साथ प्रफुल्ल पटेल (दाएं से बाएं). फोटो क्रेडिट : getty image.
(दाएं से बाएं) मुकेश अंबानी, अमिताभ बच्चन, देवेन्द्र फडनवीस और उद्धव ठाकरे के साथ प्रफुल्ल पटेल . फोटो क्रेडिट : getty image.

कांग्रेस की नाराजगी मोल लेकर पवार ने टिकट दिया

यह 2004 का दौर था. लोकसभा चुनाव हो रहे थे. इस चुनाव में पहली बार कांग्रेस और NCP गठबंधन करके चुनाव लड़ रहे थे. यानी जिस पार्टी से शरद पवार को निकाला गया था, उसी के साथ वो गठबंधन कर रहे थे. यह बात और है कि साढ़े चार साल पहले से दोनों महाराष्ट्र की साझा सरकार चला रहे थे. अब इसी को चुनावी रूप दिया जा रहा था.

लेकिन एक पेच फंस रहा था. इस पेच का किस्सा हमें सुनाया आजतक के मुंबई ब्यूरो चीफ और महाराष्ट्र के वरिष्ठ पत्रकार साहिल जोशी ने. बकौल साहिल जोशी,


 "भंडारा सीट पर कांग्रेस दावेदारी कर रही थी. 1999 के लोकसभा चुनाव में वहां कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही थी. लेकिन शरद पवा राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं. उन्हें पता था कि कांग्रेस इस सीट पर आसानी से नहीं मानेगी. लिहाजा उन्होंने गठबंधन में सीटों का मामला फाइनल होने से पहले ही भंडारा से प्रफुल्ल पटेल की उम्मीदवारी की घोषणा कर दी. इसके बाद कांग्रेस बड़ी मुश्किल से पटेल के लिए सीट छोड़ने पर सहमत हुई. लेकिन तब भी प्रफुल्ल पटेल लोकसभा नहीं पहुंच सके, क्योंकि एक बेहद नजदीकी मुकाबले में भारतीय जनता पार्टी के शिशुपाल पाटले ने उन्हें करीब 3 हजार वोटों से हरा दिया."

इस हार का प्रफुल्ल पटेल के राजनीतिक भविष्य पर कोई असर पड़ता नहीं दिखा. उस दौर में उन्हें भी शिवराज पाटिल और पी.एम. सईद की तरह चुनाव हारने के बावजूद मंत्री बनाया गया. शिवराज पाटिल को गृह मंत्री जबकि पी.एम. सईद को ऊर्जा मंत्री बनाया गया. प्रफुल्ल पटेल को नागरिक उड्डयन विभाग का स्वतंत्र प्रभार दिया गया. बतौर मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने कई बड़े हवाई अड्डों का मैनेजमेंट निजी हाथों में सौंपने की जमीन तैयार की. उन्हीं के कार्यकाल में दिल्ली और हैदराबाद के हवाई अड्डों की देखरेख और उनके आधुनिकीकरण का जिम्मा GMR ग्रुप को सौंपा गया.
मनमोहन सिंह और शरद पवार के साथ प्रफुल्ल पटेल.
मनमोहन सिंह और शरद पवार के साथ प्रफुल्ल पटेल.

अंडरवर्ल्ड से कनेक्शन का आरोप  

प्रफुल्ल पटेल का 2019 में प्रवर्तन निदेशालय (ED) से पाला पड़ा. ED के दस्तावेजों के मुताबिक, प्रफुल्ल पटेल और उनकी पत्नी वर्षा पटेल एक कंपनी चलाते हैं. इस कंपनी का नाम है मिलेनियम डेवलपर्स. पटेल दंपति की इस कंपनी ने अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम के करीबी इकबाल मिर्ची के मुंबई में एक प्लाॅट पर बिल्डिंग बनवाई. ऐसे आरोप लगे कि इस बिल्डिंग में प्रफुल्ल पटेल का भी एक फ्लैट है. लेकिन प्रफुल्ल पटेल इन सब बातों से इनकार करते रहे हैं. वो इसे केन्द्र की भाजपा सरकार द्वारा राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ ED के दुरुपयोग का मामला बताते हैं.


प्रफुल्ल पटेल को NCP में शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले का करीबी माना जाता है.
प्रफुल्ल पटेल को NCP प्रमुख शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले का भी भरोसेमंद माना जाता है.

प्रफुल्ल पटेल का सियासी भविष्य क्या होगा? प्रफुल्ल पटेल के सियासी भविष्य को लेकर हमने वरिष्ठ पत्रकार साहिल जोशी से बात की. बकौल साहिल जोशी,

"प्रफुल्ल पटेल NCP और पवार फैमिली की सियासत की अगली पीढ़ी में अजीत पवार के बनिस्बत शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले के ज्यादा करीब हैं. इसलिए ये देखना दिलचस्प होगा कि भविष्य में NCP किस दिशा में जाती है. शरद पवार की बेटी मजबूत होती हैं या भतीजे अजीत पवार पार्टी को कंट्रोल करेंगे? इसी पर प्रफुल्ल पटेल का सियासी भविष्य निर्भर होगा. 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद जब अजीत पवार ने रातों रात BJP के साथ जाकर सरकार बना ली थी, तब मैंने प्रफुल्ल पटेल से पार्टी का औपचारिक रुख जानना चाहा. उस वक्त प्रफुल्ल पटेल ने मुझसे  कहा था, 'अजीत पवार का फैसला पार्टी और शरद पवार का फैसला नहीं था."

और अंततः वही हुआ जो प्रफुल्ल पटेल ने कहा था. 3 दिन में ही BJP की देवेन्द्र फडनवीस सरकार को जाना पड़ा.

यह सियासत है, और सियासत में कुछ भी संभव है. देखना ये है कि प्रफुल्ल पटेल अपने राजनीतिक जीवन में आगे कौन सी ऊंचाई हासिल करते हैं. फिलहाल तो उनके 64वें जन्मदिन पर उनको बहुत-बहुत बधाई.