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पोल पॉट: कंबोडिया का वो खूंख़ार तानाशाह, जिसके शासन में 25 लाख से ज़्यादा लोग बेमौत मारे गए

उसकी फ़ैमिली भी उसके कहर से नहीं बच पाई.

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पोल पॉट ने बरसों तक अपनी पहचान छिपाकर रखी.

एक गांव के टूटे-फूटे अस्पताल में एक दोपहर ऑपरेशन की तैयारी चल रही थी. मगर वहां न तो डॉक्टर थे, न मशीनें. बस एक घुप्पा सा कमरा. उसमें 20-21 साल की लड़की लाई गई. वो जोर-जोर से रो रही थी. दो लोगों ने उसके हाथ-पैर पकड़ रखे थे. तभी तीसरा आगे बढ़ा. उसके पाज औज़ार था. एक तलवार. तलवार से लड़की के पेट में चीरा लगा दिया गया. ख़ून का फव्वारा बहा और फिर उसी रास्ते जिंदगी. लड़की शांत हो गई. कमरे के लोग सक्रिय हो गए. उन्होंने टॉर्च जलाई और कटे पेट में झांकने लगे. मगर वो नहीं मिला. जिसकी तलाश थी. 

तलाश थी चावल के दानों की. इल्जाम था कि लड़की ने पति की लाश पर गिरे चावल खाए. अपने हिस्से के चावल खाने के बाद. ये भ्रष्टाचार था. और उस समय उस जमीन पर इस तरह के भ्रष्टाचार की इजाजत नहीं थी.

वैसे उस समय उस जमीन पर इस लड़की की कहानी इकलौती नहीं थी. ये 25 लाख कहानियों में से एक थी. वैसे इस समय इस ज़मीन पर इन कहानियों को कहेंगे तो यूं कहेंगे. कि एक सनकी तानाशाह था. जिसकी खब्त में लगभग 25 लाख लोग मारे गए.


आज बात होगी कंबोडिया के तानाशाह सलोथ सोर उर्फ पोल पॉट की. 

अंक 1

सुस्त -सैन्य -सितमगर दोपहर और सड़क

अभी बात एक दोपहर से शुरू हुई. मगर क्रूरता का ये सिलसिला कुछ बरस पहले की एक दोपहर शुरू हुआ था.   साल था 1975 का. कैलेंडर में 17 अप्रैल पर लाल निशान बना था. कम्बोडिया की राजधानी नोम पेन्ह में सब कुछ मंथर गति से चल रहा था. एक सुस्त दोपहर की तरह. दुकानों के आधे गिरे शटर, नुक्कड़ों पर पंचायत, दफ्तरों का लंच ब्रेक और रेंगता ट्रैफिक.

मगर अचानक सुस्ती सरगर्मी में बदल गई. ट्रैफिक को परे धकेल शहर में एक काफिला दाखिल हुआ. टैंक, बख्तरबंद गाड़ियां, मिलिट्री ट्रक. काफिले में पैदल भी थे, कतार से चलते. ज्यादातर नौजवान, मगर 8 से 80 की उम्र वाले भी कुछ. क्या ये सेना थी? हां ये सेना थी. देश की नहीं. एक बागी की. उसके रंगरूटों की अलग पहचान थी. वर्दा के ऊपर, सबके गले में पड़ा धारीदार गमछा.


ख़मेर रूज़ के राजधानी में कदम रखते ही शहर की गति और मति बदल गई थी.
ख़मेर रूज़ के राजधानी में कदम रखते ही शहर की गति और मति बदल गई थी.

शहर में इनका हल्ला मच गया. फिर सब शांत हो गए. रेडियो नोम पेन्ह पर एक जरूरी सूचना आ रही थी.


“अब इस देश पर अपने लोगों का शासन होगा”

आज्ञा से- खमेज रूज. 

रेडियो प्रसारण के बाद हरकत फिर शुरू हुई. पुरानी सरकार के कारिंदों को इकट्ठा होने का हुक्म दिया गया. सड़क के किनारे. और वहीं उनको गोली मार दी गई.

मैं चैन से हूं क्योंकि मैं भ्रष्ट नहीं हूं. अगर खमेर रूज़ को जीत मिलती है, तो सड़कों पर ख़ून बहेगा. लेकिन वे उन्हीं लोगों को मारेंगे जिन्होंने अमरीकियों से मदद लेकर ग़रीबों की सहायता नहीं की.

जनता ने ये देखा. जनता  काफ़ी खुश हुई. उन्हें लगा, विदेशी शासन से मुक्ति मिल चुकी है. शुद्धिकरण का समय आ गया है. जनता दरअसल महीने भर से इसकी तैयारी कर रही थी. राजधानी की सड़कों पर लोग बतियाते थे.,

सड़क और अमरीका कंबोडिया वालों की राजधानी में फिर लौटे. कुछ ही घंटों में. इस बार का ऐलान रेडियो पर नहीं भोंपू पर था. फौजी काफिले का एक कमांडर कह रहा था.


इस शहर पर अमेरिका का हमला होने वाला है. अपने घरों से निकल जाओ. सिर्फ़ ज़रूरत के सामान लेकर निकलना. तुम गांवों में सुरक्षित रहोगे. ये सब सिर्फ़ 3 दिनों के लिए हो रहा है. उसके बाद तुम्हारी दुनिया तुम्हें वापस मिल जाएगी.
कुछ लोगों ने कहा, ये कैसा आदेश है. हम अपना घर छोड़कर क्यों जाएं. ऐसे लोगों को फिर सड़क पर कतार में खड़ा कर दिया गया. कुछ घंटे पहले जैसे सरकारी कर्मचारियों को किया गया था. बाकी लोग समझदार थे. कतार बनाकर शहर से बाहर जाने लगे. गांवों की तरफ. हाथ में दुधमुंहे बच्चों को थामे औरतें, दूसरों के कंधों पर सहारा लेकर चलते बुजुर्ग, मरीज, हर कोई. शहर की हर दिशा से शहर के बाहर जा रहा था. खुद को ये कहते हुए कि बस तीन दिनों की बात है.

मगर ये तीन दिन तीन बरस से भी ज्यादा वक्त में बीते. ठीक ठीक कहें तो 3 साल 8 महीने और 20 दिन में. 

दरअसल खमेर रूज़ के सैनिकों ने उस दोपहर के बाद हर शहर ऐसे ही खाली करवाए. तमाम जरूरी सरकारी इमारतें जैसे अस्पताल, स्कूल या बैंक बम से उड़ा दिए गए.


पूरे शहर को गांवों की तरफ़ हांक दिया गया. उन्हें तीन दिनों के लिए शहर छोड़ना था. लेकिन इसे बीतने में बरसों लग गए.
पूरे शहर को गांवों की तरफ़ हांक दिया गया. उन्हें तीन दिनों के लिए शहर छोड़ना था. लेकिन इसे बीतने में बरसों लग गए.

और उड़ा दिए गए परिवार, धर्म, संपत्ति जैसे संस्थान. अब हर कोई गांव में रहने वाला एक नागरिक थे. जिसके कोई अधिकार नहीं थे. कर्तव्य थे. गिनती में दो. अधिकारों के नामकरण के साथ.


देश की रक्षा करने का अधिकार (सेना में भर्ती हो जाओ और व्यवस्था कायम करो)

काम करने का अधिकार. ( सब स्किल भूल जाओ और व्यवस्था के लिए धान उगाओ)

वैसे नामकरण के लिए तत्पर शासक इस देश के लिए नए नहीं थे.  एक शासक ने नया नाम धारण किया था और बनवाया था दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर. मगर वो 800 साल पुरानी बात थी.

चैप्टर 2

राजा, देवता, मंदिर...

कम्बोडिया भारत के पूरब में बसा है. म्यांमार और थाईलैंड के बाद. कम्बोडिया से सटा है उत्तर में लाओस और पूर्व में वियतनाम. वियतनाम के बाद समंदर शुरू होता है. साउथ चाइना सी. इसलिए इस इलाके (वियतनाम, लाओस और कंबोडिया) को इंडो चाइना क्षेत्र भी कहते हैं.

देश को कंबोडिया क्यों कहते हैं, इसकी एक कहानी है. उत्तर भारत से एक नागा साधु आए. कंबु स्ययंभु नाम के. उन्हीं से के नाम से देश का नाम पड़ा. कंबुज प्रदेश. यही बदलते बदलते कंपूचिया और कंबोडिया हो गया. यहां के सबसे प्रतापी राजा हुए जयवर्मन द्वितीय. जनता में इतने पॉपुलर कि राजा को देवताओं का अवतार मान लिया गया. राजा ने अपना नया नामकरण भी कर लिया. देवराज.

इन्हीं देवराज जयवर्मन द्वितीय ने 802 ईस्वी में ख़मेर किंगडम की स्थापना की. ख़मेर यानी कम्बोडिया के मूल निवासी. इसी वंश में हुए सूर्यवर्मन द्वितीय, जिन्होंने 12वीं सदी में अंकोरवाट मंदिर बनवाए. इन्हें क्षेत्रफल के हिसाब से दुनिया की सबसे बड़ी इमारत का दर्ज़ा मिला है.


दुनिया की सबसे बड़ी धार्मिक इमारत है अंकोरवाट. कभी यहां हिंदू मंदिरों का बोलबाला हुआ करता था. वो विरासत आज भी कायम है.
दुनिया की सबसे बड़ी धार्मिक इमारत है अंकोरवाट. कभी यहां हिंदू मंदिरों का बोलबाला हुआ करता था. वो विरासत आज भी कायम है.

15वीं सदी तक खमेर साम्राज्य कमजोर हुआ. अगले 400 साल बगल के वियतनाम, म्यांमार और थाईलैंड इस पर कब्जे के लिए लड़ते रहे. ये लड़ाई रुकी फ्रांस की एंट्री से.1863 में. कंबोडिया फ्रांस की कॉलोनी बन गया. फ्रांस ने कंबोडिया के राजा को नाम भर का राजा मान लिया. जैसा 1857 के पहले हमारे देश में था. मुग़ल नाम भर के दिल्ली में राजा, काम सब ईस्ट इंडिया कंपनी के.

90 साल ऐसा चला. बीच में एक व्यवधान भी आया. दूसरे वर्ल्ड वॉर के दौरान जापान ने यहां भी कब्जा कर लिया था. मगर फिर बम गिरे, जापान गिरा और कब्जा हटा. यानी एक बार फिर फ्रांस हो गया यहां का चौधरी. कुछ बरसों के लिए. क्योंकि अब कॉलोनी बनाने का, खुली लूट खसोट का दौर बीत चुका था. फ्रांस वियतनाम और कंबोडिया सरीखी कॉलोनी खाली कर रहा था.

9 नवंबर 1953 को कंबोडिया आजाद मुल्क बन गया. लेकिन इसके लोकतंत्र बनने में अभी समय था. सत्ता का केंद्र थे राजा नॉरडम सिहानुक. सिहानुक को पता था, राजशाही को लोगों की ख्वाहिश का मुलम्मा पहनना जरूरी है. इसलिए उन्होंने दो बरस के अंदर ही मारी पलटी. देश में लोकतंत्र लाने का, चुनाव करवाने का ऐलान कर दिया. फिर अपनी गद्दी भी छोड़ दी. राजा की गद्दी पर बैठा दिया अपने बुजुर्ग पिता नॉरडम सुरामृत को. खुद बन गए नेता. शुरू की पार्टी, संग्कुम नाम की.

कंबोडियम में चुनाव हुए. सभी सीटों पर जीती संग्कुम पार्टी. और पूर्व राजा सिहानुक बन गए आज़ाद कम्बोडिया के पहले प्रधानमंत्री. उन्हें लगा कि फ्रांस गया अब निर्बाध राज है इस नए रूप में.

मगर फ्रांस में उनके मुल्क का एक नौजवान तैयार हो चुका था. उन्हें रोकने के लिए.

अंक 3

एंटर सलोथ सार

फ्रांस की कॉलोनी कम्बोडिया का कम्पोंग प्रांत. यहां 1925 में खाते-पीते किसान परिवार के घर सलोथ सोर का जन्म हुआ. जैसे ही उसने नौवें जन्मदिन का केक काटा, घरवालों ने उसके लिए राजधानी नोम पेन्ह का टिकट काट दिया. नोम पेन्ह में सलोथ का एक चचेरा भाई राजदरबार में काम करता था. और बहन भी वहीं नर्तकी थी. ये राजसी लिंक उसके काम आए. राजधानी के टॉप के फ्रेंच मीडियम स्कूल के दाखिले में. यहीं पढ़ने के दौरान सलोथ को पैरिस जाकर पढ़ने के लिए स्कॉलरशिप मिली. मगर सलोथ ने फ्रांस में पढ़ाई से इतर सब कुछ किया. वो कम्युनिस्ट पार्टी का मेंबर बन गया. सोवियत संघ का कम्युनिस्ट  तानाशाह जोसेफ स्टालिन उसका आदर्श था.

स्टालिन. जो इत्मिनान से था, क्योंकि उसने हिटलर के साथ संधि कर ली थी. मगर जर्मनी ने रूस को नहीं बख्शा. नतीजतन स्टालिन, अमरीका और ब्रिटेन के साथ खड़ा नजर आया. इस साथ ने वर्ल्ड वॉर 2 की दिशा बदल दी.

हिटलर, मुसोलिनी और जापान का साम्राज्य. यूरोपीय देशों की एशिया में उपनिवेशवादी सत्ता. दो बम गिरे और वर्ल्ड वॉर 2 खत्म हो गया. .

इस खात्मे में कई लोगों के लिए शुरुआत थी. जैसे सलोथ सोर. वो जर्मनी के हमले से तबाह हुए फ्रांस से वापस अपने देश कंबोडिया लौट आया था. यहां सलोथ दिन में अध्यापकी करता और शाम को कंबोडिया की कम्युनिस्ट पार्टी का प्रचार प्रसार. इस पार्टी का नाम था, खमेर पीपल्स रिवॉल्यूशनरी पार्टी.


पोल पॉट में सम्मोहित करने की शक्ति थी. उसने इसका बखूबी इस्तेमाल किया.
पोल पॉट में सम्मोहित करने की शक्ति थी. उसने इसका बखूबी इस्तेमाल किया.

जल्द ही पार्टी में सलोथ का कद बढ़ने लगा. उसके जोरदार भाषण, सत्ता के शोषण के बारे में गरीबों को समझाने का तरीका, आसान भाषा में क्रांति के सपने दिखाने का माद्दा, इन सबने सलोह को कुछ ही बरसों में ताकतवर बना दिया. इतना कि उसे और उसके साथियों को ये पार्टी छोटी लगने लगी.

नतीजतन, 1960 में सलोथ ने एक नई पार्टी बनाई. वर्कर्स पार्टी ऑफ़ कम्पुचिया. इसकी नींव एक खाली रेलवे पटरी पर हुई नुक्कड़ सभा में रखी गई. पार्टी में सबसे बड़ा पद था महासचिव का. सलोथ ने इस पद पर बैठाया अपने मार्गदर्शक और बुजुर्ग कम्युनिस्ट नेता तोउ समोथ को.

लेकिन कुछ ही महीनों में तोउ समोथ, सलोथ सोर को अखरने लगे. सलोथ चाहता था बेशुमार लचीलापन.किसी भी सिद्धांत को ताकत पाने के लिए पलटा जा सकता, इस तरह का एटीट्यूड. काडर को लगा कि नेताओं में टकराव हो सकता है. लेकिन एक रोज तोउ समोथ लापता हो गए. अब सलोथ सोर के लिए कोई चुनौती नहीं थी. उसकी वर्कर्स पार्टी ऑफ कंपुचिया अब कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ कंपुचिया हो गई थी. कागजों पर. पब्लिक के बीच एक दूसरा नाम पॉपुलर हुआ था. खमेर रूज़.खमेर यानी कंबोडिया के मूल निवासी. और रूज़ मतलब लाल.

लाल, लहू का रंग. कम्युस्ट झंडे का रंग. उस गमछे का रंग, जो कंबोडिया के कम्युनिस्टों की पोशाक का अनिवार्य हिस्सा बन चुका था.

कंबोडिया के प्रधानमंत्री याद हैं आपको. पूर्व राजा. सिहानुक. उनको सत्ता में आए कुछ बरस हो चुके थे. और हर मुमकिन विरोधी उनको बेतरह खटकने लगे थे. इसमें कम्युनिस्ट भी शामिल थे. सिहानुक के तंत्र ने इन सबको कुचलना शुरू किया. कम्युनिस्ट काडर यानी ख़मेर रूज़ इससे बचने के लिए शहरों से गांवों की तरफ भागे. इसमें उनका जनरल सेक्रेट्री सलोथ भी शामिल था. वो वियतनाम से सटी सीमा के इलाकों में चला गया. इसके पीछे एक रणनीतिक वजह भी थी. वियतनाम में चल रहा युद्ध. सलोथ को लगा कि ये युद्ध उसके काम आएगा.

इस युद्ध की कहानी निराली है. जैसे फ्रांस कंबोडिया से गया, वैसे ही वियतनाम से. मगर वियतनाम दो हिस्सों में बंटा. एक जगह कम्युनिस्टों का राज, दूसरी जगह कैपिटलिस्टों का. दोनों आपस में जूझ गए. फिर हर जगह की तरह अमरीका चौधरी बनने चला आया. लेकिन सामने थी वियतनाम की कम्युनिस्ट पार्टी के काडर. इस पार्टी का नाम था वियत मिन्ह. वियत वियतनाम वाला और मिन्ह मतलब चतुराई.

हो ची मिह्न के नेतृत्व में वियत मिन्ह के लड़ाकों ने चतुराई दिखाई और लड़ाई के गुरिल्ला तरीके अपनाए. और यही तरीके वियत मिन्ह ने बॉर्डर के इस पार अपने कम्युनिस्ट साथियों को भी सिखाए. इसीलिए सोलाथ सोर बॉर्डर के पास आ गया था. अब उसके काडर यानी खमेर रूज़ को पड़ोसी गुरिल्ले ट्रेन कर रहे थे.


हो ची मिन्ह ट्रेल के जरिए वियत गुरिल्ला सैनिकों को सप्लाई पहुंचती थी.
हो ची मिन्ह ट्रेल के जरिए वियत गुरिल्ला सैनिकों को सप्लाई पहुंचती थी.

और खमेर रूज़ जिसके चलते राजधानी से भागे थे, वो क्या कर रहा था. प्रधानमंत्री सिहानुक पड़ोसी वियतनाम की जंग में पार्टी नहीं बने. मगर उनका झुकाव कम्युनिस्ट धड़े यानी चीन और रूस की तरफ ज्यादा था.

सिहानुक का एक और झुकाव था. सिनेमा. वो फिल्में बनाने लगा. खुद उसमें हीरो बनने लगा. देश में आधे पोस्टर पीएम सिहानुक के थे और आधे हीरो सिहानुक के. लेकिन रील की दुनिया में दाखिल होने के बाद रियल पर उसकी पकड़ कमजोर होने लगी. सिहानुक को लगा कि विरोधी सीमावर्ती इलाकों की तरफ भाग गए. मगर राजधानी में भी कई विरोधी थे. और उनका नेतृत्व कर रहा था जनरल लोन नोल. कहने को सिहानुक का खास. उसकी सरकार में रक्षा मंत्री. लेकिन असल में अमरीका का पिट्ठू.

अमरीका की कंबोडिया में दिलचस्पी थी. उसे लगता था कि वियतनाम में गुरिल्ले कमजोर नहीं पड़ रहे क्योंकि उन्हें सप्लाई मिल रही है. कंबोडिया से. इसे कहा गया हो ची मिन्ह ट्रेल. और इसे खत्म करने के लिए अमरीका ने सिहानुक राज खत्म करने की प्लानिंग कर ली.

मार्च, 1970 में सिहानुक छुट्टी मनाने यूरोप गया. पीछे से जनरल लोन नोल ने तख्ता पलट कर दिया. देश में राजशाही खत्म कर खुद को सुप्रीम लीडर घोषित कर दिया. अमरीका की मदद से प्रोटेस्ट कुचल दिए. फिर उसी अमरीका के लिए कंबोडिया के दरवाजे खोल दिए. अब वियतनाम पर बम वर्षा शुरू हो गई. एक अनुमान के मुताबिक तीन सालों में पांच लाख टन बम गिराए अमरीका ने.ये बम कंबोडिया के उन इलाकों पर भी गिरे, जहां से गुरिल्लों को मदद मिलती थी.

ये सब खत्म हुआ 27 जनवरी, 1973 को. फ्रांस में हुए एक दस्तखत से. पैरिस शांति समझौते के बाद वियतनाम से अमरीकी सेना लौट गई.और अमरीका के लौटने का असर पड़ोस के कंबोडिया पर भी दिखा.

अंक 4

सड़ा मिटाओ, ईयर ज़ीरो लाओ

अमरीका के जाते ही कंबोडिया की कम्युनिस्ट पार्टी यानी कि ख़मेर रूज़ ने कस्बों में स्थित सरकारी दफ्तरों पर हमले शुरू कर दिए. अमरीकी बमबारी से नाराज गरीब किसान और कामगार उनके साथ आ गए. जनरल लोन नोल के हाथों देश की सत्ता गंवा चुके पूर्व राजा सिहानुक ने भी ख़मेर रूज़ के प्रतिरोध का समर्थन किया. एक आश्वासन के बदले कि जब पार्टी सत्ता में आएगी तो सिहानुक को उनका राजपाट मिल जाएगा.

दो बरस के अंदर खमेर रूज़ ज्यादातर ग्रामीण इलाकों को जीत चुके थे. अब उन्होंने राजधानी नोम पेन्ह के बाहर घेरा डाल दिया. साल 1975 का ये घेरा तीन महीने चला. इन तीन महीनों में जनरल लोन नोल देश के बाहर रहकर समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहा था. मगर ताकतवर देश वियतनाम युद्ध का सबक भूले नहीं थे. लोन को मदद नहीं मिली. अप्रैल के तीसरे हफ्ते में ख़मेर रूज़ ने जीत का ऐलान कर दिया और राजधानी में दाखिल हो गए.


ख़मेर रूज़ के कैम्पों में एक अलग दुनिया चलती थी. जिसका नियंत्रण ब्रदर नंबर वन के हाथों में था.
ख़मेर रूज़ के कैम्पों में एक अलग दुनिया चलती थी. जिसका नियंत्रण ब्रदर नंबर वन के हाथों में था.

खमेर रूज़ के आदेश पर कंबोडिया के शहरों से गांव की तरफ़ जाते लोगों को चेक पॉइंट्स से गुजरना होता था. आखिरी चेक पॉइंट पार करने तक उनके पास बस दो जोड़ी कपड़े बचते थे. बाकी सामान नई सरकार ज़ब्त कर लेती थी. गांव में दाखिल होने से पहले. और गांव में पहुंचने पर पता चलता था, कि अब यही स्थायी ठिकाना है.

इस ठिकाने तक जो सड़कें जाती थीं, उनके किनारे पोस्टर लगे रहते थे. खमेर रूज़ के. इन पर लिखा था.


'जो सड़ चुका है, उसे मिटाना ज़रूरी है'

मिटाने के बाद कहने को लाया गया. साम्यवाद. सब बराबर. किसान भी और वैज्ञानिक भी. डॉक्टर भी और मज़दूर भी. सभी पेशों के, सभी वर्गों के लोगों को एक नया नाम भी दे दिया गया. राजधानी पर खमेर रूज़ के कब्जे से जुड़ी तारीख वाला नाम.

अप्रैल 17 पीपुल

नए नाम का सिलसिला यहीं नहीं रुका. पुराने इतिहास को भी सिरे से खारिज कर दिया गया. मुनादी पीट कर कहा गया. बीते सब बरस स्वाहा. ये है ईयर ज़ीरो. इस साल कंबोडिया का नया जन्म हुआ है. पुराना सब मर चुका है. अब देश कहलाएगा कंपूचिया.

इतिहास को मारने के लिए जतन भी किए इस गुरिल्ला सेना ने. पुरानी सब किताबें खोज खोज कर जला दी गईं. सरकारी इमारतें बम से उड़ा दी गईं. कुछ को बचाया गया, ताकि उनमें जेल बनाई जा सके और इस नए विचार के विरोधियों को उनमें ठूंसा जा सके.

इन जेलों में क्या होता था. एक उदाहरण से समझते हैं. एक स्कूल था. उसको एक नया नंबर दिया गया. S-21. इसमें 20 हजार लोगों को बंदी बनाकर लाया गया. जब खमेर रूज़ का शासन खत्म हुआ, तो केवल इनमें केवल 7 कैदी जिंदा बचे थे.

तो मौत का एक बेहिसाब हिसाब चल रहा था. एक नया विचार चल रहा था. गुरिल्ला आर्मी खमेर रूज़ का राज चल रहा था. और इन्हें चला रहा था ब्रदर नंबर वन. ये था सलोथ सोर का नया अवतार.

अंक 5 

परिवार को किचन में क्या दिखा?

 सलोथ सोर. ब्रदर नंबर वन. पोल पॉट. कितने नाम. फ़िलिप शॉर्ट ने अपनी किताब ‘Pol Pot: History of a Nightmare’ में लिखा है कि पोल पॉट इसे दुश्मनों को भ्रम में रखने का औज़ार मानता था. अपने जनरलों को पोल पॉट अकसर एक किस्सा सुनाता था. उन दिनों का जब ये गुरिल्ले उस वक्त की सरकार की नजर में बागी थे. राजधानी नोम पेन्ह की पुलिस को पता था. कोई सलोथ सोर है. मगर वो क्या है. क्या कर रहा है. अब कैसा दिखता है. इसको लेकर खुफिया डॉजियर्स में हमेशा कन्फ्यूजन रहता था. फिर इस प्रकरण को समराइज करते हुए पोल पॉट कहता था


अगर तुमने अपनी प्राइवेसी सुरक्षित रख ली. तो समझो तुम आधी जंग जीत चुके हो.

इसी फॉर्म्युले के तहत वो कभी जनता के सामने नहीं आता. भाषणबाजी से बचता. एक चिट्ठी की शकल में उसके हुक्म जारी होते, जिन्हें सबसे निचले स्तर के अधिकारियों तक पहुंचा दिया जाता और तामील हो जाती.


पोल पॉट के आदेश चिट्ठियों की शक्ल में जारी होते थे, जिन्हें नकारने की हिम्मत किसी में नहीं थी.
पोल पॉट के आदेश चिट्ठियों की शक्ल में जारी होते थे, जिन्हें नकारने की हिम्मत किसी में नहीं थी.

पोल पॉट की गोपनीयता सिर्फ सरकारी या प्रशासनिक कामों तक सीमित नहीं थी. उसका परिवार भी इसी दायरे में आता था. उसके भाई, नाते रिश्तेदार, सब बाकी कंबोडियाई नागरिकों की तरह शहर से हांक दिए गए थे. वे भी बाकियों की तरह धान के खेतों में मजदूरी कर रहे थे. तभी एक दिन उन पर खुलासा हुआ.


ये 1978 की बात है. सलोथ सोर का भाई दिन भर खटने के बाद कम्युनिटी किचन में अपना राशन लेने के लिए पहुंचा. उस दिन किचन में एक किनारे बड़ा सा बैनर टांगा जा रहा था. भाई ने बैनर की दिशा में बढ़ते हुए एक सैनिक से पूछा, किसका है. जवाब मिला. अंकोर का. भाई अब तक बैनर के सामने पहुंच चुका था. ये तो उसका अपना भाई था. सलोर. वो गश खाकर गिरने को हुआ. लोगों ने संभाला, हालचाल पूछा. तो उसने जवाब में सवाल पूछा. फिर से. और फिर से जवाब आया. ये तो ब्रदर नंबर वन हैं. हमारे देश के रखवाले. ब्रदर नंबर वन के ब्रदर ने ये सुनकर हमेशा के लिए चुप्पी साध ली.

एक और पुराना नंबर वन था. जिसे चुप करा दिया गया था इस बीच. ये था सिहानुक. ख़मेर रूज़ ने जीत के बाद वादे के मुताबिक सिहानुक को राष्ट्रपति का पद दिया. राजधानी नोम पेन्ह के महल में रहने का हक दिया. मगर ये वो महल नहीं था, जिसका सिहानुक आदी था. यहां नौकरों की फौज और ऐशो आराम नहीं था. थे तो सिर्फ सैनिक. ख़मेर रूज़ के सैनिक. सिहानुक घिर चुका था. अप्रैल 1976 में सिहानुक एक दौरे की आड़ में चीन गया. और फिर लौटकर नहीं आया. कुछ महीनों बाद पोल पॉट डेमोक्रेटिक कंपूचिया का प्रधानमंत्री बन गया. सरकार चलाने वाली पार्टी यानी खमेज़ रूज़ का जनरल सेक्रेट्री वह पहले से ही था. यानी सत्ता परिवर्तन का चक्र उसके लिए पूरा हो चुका था. अब बारी थी दमन चक्र चलाने की.

अंक 6 

गुरु मंत्र- जो चुनौती दे, उसे चुनवा दो

तानाशाह डर से ताकत पाते हैं. जनता को दुश्मनों का डर. फिर भी जो न डरे, उसे क्रूज सजा दो, ताकि बाकियों में भर जाए डर. और ये सब करो, अनुशासन, भलाई, विचारधारा का नाम पर.

 पोल पॉट ने भी यही किया. अपने गुरु से सीखकर. ये गुरु था स्टालिन. रूस का क्रूर कथित कम्युनिस्ट तानाशाह. जिसने बोल्शेविक क्रांति के बाद लेनिन को घेरे में लिया. लेनिन के असली उत्तराधिकारी ट्रॉस्की को किनारे लगाया. लेनिन की आखिरी इच्छा और विधवा को किनारे कर उसकी विरासत पर कब्जा किया. और फिर अगले कई दशक तक लगातार अपने सब दुश्मनों को, फिर चाहे वह पार्टी पोलित ब्यूरो में हों, सेना में या सरहद के बाहर, मारता रहा. स्टालिन पर एक ऐपिसोड में विस्तार से बात होगी. फिलहाल स्टालिन से सीखी तरकीबों के कंबोडिया संस्करण पर लौटते हैं.

 पोल पॉट ने सबसे पहले उन्हें दुश्मन माना, जो मूल निवासी नहीं थे. ख़मेर नहीं थे. कंबोडिया के नागरिकों के लिए ये शत्रु थे थाईलैंड के लोग (थाई) और वियतनाम के लोग (वियत) . इन्होंने कंबोडिया पर कब्जे की लड़ाई के दौरान यहां के नागरिकों को बहुत प्रताड़ित किया था. पोल पॉट ने उसका बदला लेना शुरू किया. राज्य में रहने वाले थाई और वियत लोगों को निपटाने के साथ उसका मेगा प्रोजेक्ट भी चल रहा था. खेतिहर यूटोपिया तैयार करना.

इसके तहत सबको खेतों में, जो अब पूरे के पूरे सरकारी थे, मजदूरी करनी थी. एग्री सेक्टर को चावल की उपज तीन गुणा बढ़ाने का लक्ष्य दे दिया गया. लेकिन इस बढ़े हुए टारगेट के लिए उन्नत खेती मशीनें और खाद नहीं दी गई. बस मजदूरों से लगातार ओवरटाइम करवाया गया. बीमार हुए तो मर जाने दिया गया.


किलिंग फ़ील्ड्स को ऑस्कर में कई केटेगरीज़ में नॉमिनेशन मिला था.
किलिंग फ़ील्ड्स को ऑस्कर में कई केटेगरीज़ में नॉमिनेशन मिला था.

और मरे हुओं को वहीं खेत किनारे दफना दिया गया. ये पोलपॉट का खाद बनाने का तरीका था. बाद के दिनों में इन सामूहिक कब्रों को किलिंग फील्ड्स कहा गया. ज्यादातर अंतरराष्ट्रीय अनुमानों के मुताबिक इसमें 20 लाख लोग दफन किए गए. आज भी कंबोडिया के खेतों में गहरी खुदाई हो तो हड्डियों के ढेर मिलते हैं.

धान कम पैदा हो रहा था. अकाल सा हाल था. मगर बच्चे तो पैदा हो रहे थे. आदमी औरत नहीं, राज्य की मर्जी से. पोल पॉट के शासनकाल में सेक्स पर भी कंट्रोल था. बच्चों की परवरिश भी राज्य के नियंत्रण में थी. छह साल से अधिक उम्र के बच्चे अपनी मां के साथ नहीं रह सकते थे. उन्हें खमेर रूज़ के अधिकारी ट्रेनिंग देते थे. सैनिक बनने की.

तो अन्न और जंग के सिपाही हो गए. तीसरा मोर्चा सूचना का. उस पर नियंत्रण का. दरअसल तानाशाह प्रोपैगैंडा का महत्व समझते हैं. रात दिन अपने पक्ष में प्रचार करो. अच्छे नजारे दिखाओ. पोल पॉट भी यही करता था. फिल्में बनवाता, जिनमें किसान हंसते और नाचते दिखते. पसंद के पत्रकारों को दौरों पर ले जाता. तयशुदा सवालों के जवाब देता.

और इस प्रोपैगेंडा से इतर हक़ीक़त में खमेर रूज़ का शासन कैसा था?

हेइंग न्गोर की किताब ‘सर्वाइवल इन द किलिंग फ़ील्ड्स’ के एक अंश से समझिए.


‘मैं एक डॉक्टर हुआ करता था. मेरे पास काले रंग की मर्सिडीज़ कार थी, जिसमें मैं अपने क्लिनिक जाया करता था. फिर  खमेर रूज़ ने एक एक्सपेरिमेंट किया. उन्होंने हमारी संस्कृति को बर्बाद कर दिया. उन्होंने लाखों हंसते-खेलते आम लोगों को जानवरों में तब्दील कर दिया. उन्होंने मेरे जैसे इंसान को हिंसक चोर बना दिया. जो एक मुट्ठी चावल के लिए कुछ भी कर सकते थे.

अब मेरी सबसे बड़ी पहचान यही है कि मैं एक किलिंग फ़ील्ड्स सर्वाइवर हूं.’

ये बयान आपने सुना. ये हादसे अगर आप देखना चाहते हैं तो ये जानकारी लीजिए. 1984 में एक अंग्रेज़ी फ़िल्म बनी. कम्बोडिया में खमेर रूज़ के शासन पर. इसका नाम रखा गया ‘किलिंग फ़ील्ड्स’. ये फ़िल्म ऑस्कर में कई कैटेगरी में नॉमिनेट हुई. हेइंग न्गोर को फ़ोटो-पत्रकार डिथ प्रान का किरदार निभाने के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का ख़िताब मिला. हेइंग को एक्टिंग का कोई अनुभव नहीं था. उन्होंने जितना झेला था, वो पर्दे के लिए काफ़ी था.

अंक 7

कचरे की तरह जल गया

तानाशाह शक से भरे होते हैं. जो डर से पैदा होता है. कि जैसे क्रूरता और धोखे से सत्ता कमाई, वैसे ही गंवा न देें. पोल पॉट के साथ भी यही हुआ. उसने पहले अपने विरोधियों और दूसरी नस्ल के लोगों को मरवाया या देश से बाहर निकाल दिया, उसके बाद वो अपनी पार्टी की तरफ़ मुड़ा. ब्रदर नंबर वन को अब अपने जनरलों पर शक होने लगा था. वो एक एक करके पुराने वफादारों को रास्ते से हटाने लगा. ऐसा ही एक जनरल था हुन सेन. हुन सेन को पोल पॉट के इरादों की भनक लग गई. वो रातों रात वियतनाम भाग गया.

ये पोल पॉट के अंत की शुरुआत थी. क्योंकि हुन सेन लौटा. वियतनाम से. वहां की सेना को साथ लेकर. दो साल के अंदर. वियतनाम ने ऐसा क्यों किया. आइए समझें.

1950 के दशक के आखिर में कम्युनिस्ट धारा दो हिस्सों में बंट चुकी थी. सोवियत संघ और चीन. वियतनाम सोवियत के पाले में था. खमेर रूज़ को चीन का समर्थन था. माओ ने खुलकर कहा था, चीन की जनता हमेशा खमेर रूज़ के साथ खड़ी रहेगी.


चीन के तानाशाह माओ के साथ पोल पॉट.
चीन के तानाशाह माओ के साथ पोल पॉट.

 तो वियतनाम के ऊपर विचारधारा का दबाव खत्म हो चुका था. फिर पोल पॉट की एक हरकत ने संघर्ष के दिनों की सहानुभूति भी खत्म कर दी. ये हरकत थी 1977 में पोल पॉट का वियतनाम को डेमोक्रेटिक कम्पूचिया में मिलाने का ऐलान. इसके पीछे तर्क ये दिया गया कि वियतनाम एक समय खमेर साम्राज्य का हिस्सा था.

अपने मकसद के लिए पोल पॉट ने गुरिल्ला लड़ाई शुरू की. खमेर रूज़ के सैनिक वियतनाम बॉर्डर के गांवों में नरसंहार करते और फिर लौट जाते. एक साल में वियतनाम का सब्र टूट गया. उसने गुरिल्ला लड़ाई का मुकाबला जंग से करने का ऐलान कर दिया. क्रिसमस यानी 25 दिसंबर 1978 को वियतनाम की सेना कंबोडिया में घुस गई.

चीन में माओ राज खत्म हो चुका था. वहां से कोई मदद नहीं मिली. खमेर रूज़ के हौसले दो हफ्तों में पस्त हो गए.  07 जनवरी 1979 को पोल पॉट राजधानी छोड़कर भागा. वियतनाम के उलट दिशा में. थाईलैंड बॉर्डर की तरफ. उसे लगा कि वापस कब्जा करने तक गुरिल्ला आर्मी यहीं ठिकाना बनाएगी.

और वियतनाम की सेना. वो पूरे 10 साल कंबोडिया में टिकी रही. जब तक विदेशी सेना रही, तब तक खमेर रूज़ देश के नाम पर अपना मूवमेंट चलाता रहा. कुछ समर्थन पाता रहा. कुछ इलाकों पर नियंत्रण भी. और इसमें उसकी मदद की अमरीका और ब्रिटेन ने. वही अमरीका जिसे खमेर रूज जरनल नोल के वक्त सबसे बड़ा शत्रु बताता था. अमरीका ने ऐसा क्यों किया. दो शब्द का जवाब. कोल्ड वॉर. वो पूरी दुनिया में हर जगह सोवियत संघ के एंटी ब्लॉक में शामिल था. सोवियत वियतनाम को सपोर्ट कर रहा था. वियतनाम कंबोडिया में एक मॉडरेट कम्युनिस्ट कठपुतली सरकार चला रहा था. ऐसे में अमरीका इस सरकार के विरोधी गुट के साथ था. लड़कों को ट्रेनिंग, हथियार और पैसा मिला. मगर वे अपने लक्ष्य में कामयाब नहीं रहे.

ये सब हो रहा था पोल पॉट के लिए फैसलों के चलते. उसका क्या कहना था इस पर. राजधानी से भागने के कुछ महीने बाद दिसंबर 1979 में पोल पॉट ने जंगल में ही एक इंटरव्यू दिया. उसने कहा,


मेरा लक्ष्य समाजवाद लाना नहीं था. मुझे कम्बोडिया की नस्ल को सुरक्षित करना था. उसे सबसे बेहतर बनाना था.

इस इंटरव्यू के बाद पोल पॉट फिर से अदृश्य हो गया. खबर आई कि 1985 में उसने पार्टी के पद छोड़ दिए. खबर आई कि पार्टी में कई गुट हो गए. और फिर 1997 में खबर आई कि पोल पॉट गिरफ्तार हो गया.

पूरी दुनिया में सुर्खियां बनाने वाली ये खबर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए बाहर आई. इसे संबोधित किया कंबोडिया के दोनों प्रधानमंत्रियों हुन सेन और प्रिंस रणरिद्ध ने. दो प्रधानमंत्री क्यों थे? वियतनाम आर्मी के वापस लौटने के बाद कंबोडिया में चुनाव हुए. 1993 में. यूनाइटेड नेशंस की निगरानी में. इस चुनाव में रणरिद्ध को जीत मिली. हुन सेन धड़े ने नतीजा मानने से मना कर दिया. तब रणरिद्ध के पिता सिहानुक ने समझौता करवाया. और कंबोडिया को दो प्रधानमंत्री एक साथ मिले.

अचानक से इतने साल बाद पोल पॉट कैसे गिरफ्तार हुआ. खुद अपनी गलती से. कंबोडिया से वियतनाम की सेना लौटने के बाद खमेर रूज़ का गुरिल्ला युद्ध कमजोर पड़ने लगा. पोल पॉट की खमेर रूज़ पर पकड़ भी. उसे लगा कि कंबोडिया की पलिटिकल पार्टियां मेरे मिलिट्री कमांडर को अपने साथ मिला रही हैं. विपक्षियों के इस दांव से निपटने के लिए पोल पॉट ने जंगल में अपने ठिकाने पर एक हाई प्रोफाइल सीक्रेट मीटिंग बुलाई. इसमें सब लोग आए. एक को छोड़कर. सोन सेन. पोल पॉट की सरकार का रक्षा मंत्री और 40 साल पुराना दोस्त. शक का रंग चढ़ गया. पोल पॉट ने कहा,


गुनहगार मिल चुका है. सज़ा की तामील हो.

उसी रात एक नरसंहार हुआ. सोन सेन को पूरे परिवार के साथ मौत के घाट उतार दिया गया. पोल पॉट ने सोचा, उसने हमेशा की तरह एक बार फिर एक तीर से दो निशाने साधे हैं. दुश्मन को मिटाना और नए साज़िशकर्ताओं में खौफ़ पैदा करना. मगर इस बार दांव पलट गया. खमेर रूज़ के कई कमांडर उसके खिलाफ हो गए. उन्होंने पोल पॉट को पकड़ने की सोची. पोल पॉट भागा. लेकिन इस बार ज्यादा दूर नहीं जा पाया. पीछा कर रहे बागी कमांडरों ने 22 जून 1997 को पोल पॉट को दबोच लिया.


पोल पॉट की मौत पर एक अख़बार की हेडलाइन.
पोल पॉट की मौत पर एक अख़बार की हेडलाइन.

उनके खबर करने के बाद ही राजधानी नोम पेन्ह से ऐलान हुआ. फिर शुरू हुई रस्साकशी. बागी गुटों के सरेंडर की शर्तों को लेकर. ये सिपाही कंबोडिया की रेगुलर आर्मी में भर्ती समेत दूसरी सुविधाएं चाहते थे. और उनके मुखिया जानते थे कि इस बारगेनिंग में उनका सबसे बड़ा हथियार है उनकी निगरानी में यानी हाउस अरेस्ट पोल पॉट.

बातचीत चल रही थी. पोल पॉट पर मुकदमा चलाने की तैयारी भी. लेकिन उससे पहले ही 15 अप्रैल 1998 को पोल पॉट मर गया. इससे पहले कि कंबोडिया सरकार को पता चलता, उसकी लाश को टायर के ढेर पर रखकर जला दिया गया.

अगले दिन अख़बारों ने छापा,

Burnt like old rubbish

(किसी पुराने कचरे की तरह जल गया.)

 यही पोल पॉट की गत थी.