पति पत्नी और वो कैमरा की बारहवीं किस्त आपके सामने है. इस सीरीज में पति हैं डॉ. आशीष सिंह. जो शौकिया फोटोग्राफर हैं. पत्नी हैं आराधना. जो तस्वीरों के कैप्शन को कहानी सा विस्तार देती हैं. और जो कैमरा है. वो इनके इश्क राग का साथ देता एक शानदार भोंपा है. आज ये तीनों प्रेमी हमें ले जा रहे हैं काशी के एक घाट. नाम है मुंशी घाट. कुछ प्यारी सी तस्वीरे हैं और उनके कैप्शन. पढ़िए, देखिए और खुद में बसा लीजिए सुबह-ए-बनारस.
नैरेटर- आराधना सिंह.
फोटो- आशीष सिंह
बनारस में एक घाट है मुंशी घाट. मुझे लगता था कि इसका नाम मुंशी प्रेमचंद के नाम पर रखा गया होगा. मेरी ये गलतफ़हमी दूर की एक नाव वाले ने. वो पहले तो मुझपे हंसा फिर उसने कहा,
"मैडम, ये घाट बहुत पहले के हैं. यहां के राजा के कोई मुंशी थे. उनके नाम पर इसका नाम रखा गया था. आपके प्रेमचंद तो बहुत बाद में पैदा हुए होंगे न?" अब अपनी बनाई गयी कहानी पर हंसने की बारी मेरी थी. ख़ैर, इसी मुंशी घाट पर एक बाबा बांसुरी बजाते हुए दिखाई पड़े. वे खुद में इतने खोये हुए थे कि आशीष आराम से उनकी तस्वीरें ले रहे थे. सच कहूं तो उनकी बांसुरी बेहद बेसुरी थी. और मैं उसके बंद होने का इंतज़ार कर रही थी. मैं अपने कानों, दिल को सुकून दिलाना चाहती थी. कुछ देर के बाद बाबा अपनी आत्मलीन अवस्था से बाहर आये. अच्छी बात ये थी कि दूसरे बाबाओं की तरह 'हंड्रेड रूपीज़ फ़ॉर वन फ़ोटो' की डिमांड नहीं रखी. आंखें खोलने पर वो बस मुस्कुराने लगे. हमने उनसे पूछा कि उनका ये रियाज़ कबसे चल रहा है. उन्होंने कहा,
"बेटा पांच साल से कर रहा हूँ."

मुझे उनके माथे पर चोट दिखी. उनसे उस चोट के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया,
"पल्सर चलाते हुए एक ट्रक से टक्कर हो गई, जान तो बच गई पर मौत ये निशानी छोड़ गई." हमने आश्चर्य में पूछा
"आप पल्सर भी रखे हुए हैं?" तब उन्होंने कहा,
"अब इस बांसुरी के सिवाय मेरे पास कुछ नहीं. मैं अल्मोड़ा का हूँ. इन्जीनियर था. ये एक्सीडेंट हुआ. फिर किसी बात में मन नहीं लगा. मुझे तुम्हारी ये काशी बुलाती थी. एक दिन मां-बाप का पैर पकड़ा. माफ़ी मांगी और फिर यहीं आ गया. सारा सुख बस यहीं है." हमारे ये पूछने पर कि वापस घर नहीं जाएंगे, उन्होंने कहा,
"कभी नहीं! ज़रा चाय पिलवाओ तो फ़िर तुम्हें एक बार और बांसुरी सुनाता हूं." इससे पहले कि अनर्थ होता, हम एक साथ बोल पड़े, "चाय पी लीजिए, बांसुरी फिर कभी." यहां एक बांसुरी वादक और हैं. लगभग बीस साल के. सोनू बनारसी. जो यहीं घाट से सटी हुई गलियों के बाशिंदे हैं. बी.एच.यू से संगीत में बैचलर डिग्री ले रहें हैं, इसके पहले दो साल तक पॉलिटेक्निक भी किया. पंचगंगा घाट के आस-पास के मंदिरों में अक्सर बाँसुरी बजाते दिखाई पड़ते हैं. वो बताते हैं
"हमारी आत्मा बांसुरी में ही छूट गई थी, फिर पॉलिटेक्निक छोड़ दी. और अपने गुरू के क़दमों में गिर गए. पेशवाओं के गणेश मंदिर में होने वाली शास्त्रीय संगीत गोष्ठियों को देखते-सुनते हम बड़े हुए. " 
इनकी बांसुरी इतनी सुरीली है कि हर कोई रुक कर सुनने लगता है. पर उन्हें लोगों की तारीफ़ों की. तालियों की किसी बात की कोई परवाह नहीं. इन्हें सुनते हुए बहुत सी बातें याद आती हैं. उन लोगों के बारे में सोच के हंसी आती है जो बस लाइमलाइट चाहते हैं. फिर वो चाहे सेल्फ़ी लेते मर गए लोग हों, सोशल साइट्स पर लाइक और कमेंट्स बटोरने के लिए चमकते आर्टिफीशियल चेहरे, अपना रोना रो कर सहानुभूति बटोरते लोग, किसी को गरियाते हुए और उल-जुलूल हरकतों से अटेंशन लपकते लोग या फिर किसी रैंडम आर्ट-फ़ार्म्स को प्रमोट करते रियलिटी शोज़ हों. ये सभी इंसानों में शान्ति की जगह फ़्रस्ट्रेशन भर रहें होते हैं. मैंने आशीष से कहा,
"सोनू को फ़ेमस होने की लत़ कभी ना लगे. उसका सुकून किसी फ़्रस्ट्रेशन की चपेट में कभी ना आए." आशीष ने कहा,
"पहले तो हम भीड़ में शामिल होने के लिए बेचैन होते हैं. फ़िर ख़ुद ही उस भीड़ से बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगते हैं." आगे आशीष ने बताया कि बिस्मिल्ला खां घाटों के मंदिरों में इसी तरह शहनाई बजाया करते थे. कहते हैं कि उन्हें विदेशी मुल्कों से ढेरों ऑफ़र आए पर वो उन सबसे एक ही बात कहते थे.
"गुरु, वहां सब मिल जाएगा पर वो विदेशी हमारी ये गंगा कैसे बहायेंगे?" सोचती हूं कि यक़ीनन हर कोई बिस्मिल्ला खां, छन्नू लाल, किशन महाराज, गिरिजा देवी नहीं बन सकता पर जो कुछ बने खुद के लिए बने. और ज़िन्दगी को विज्ञापन की तरह परोसने से इतर अपनी आत्मा से खुद को लाइक कर पाए. ख़ुद को थैंक्यू बोल पाए. दुनिया की परवाह किए बग़ैर ख़ुद को जीना सीखा पाए.