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एक प्रधानमंत्री, जिसके आतंकवादी भाई ने प्लेन हाइजैक किया था

ये महिला प्रधानमंत्री ऐसी मजबूर थी कि गद्दी बचाने के लिए उसे अपने प्रेगनेंट होने की बात छुपाकर रखनी पड़ी.

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भुट्टो परिवार में कुछ चीजें बड़ी कॉमन थीं. जुल्फिकार अली भुट्टो की फांसी से मिली सहानुभूति का फायदा बेनजीर को मिला और वो प्रधानमंत्री बन गईं. फिर जब बेनजीर की हत्या हुई, तो इस सहानुभूति में उनके पति आसिफ अली जरदारी राष्ट्रपति बन गए. इस परिवार में हत्याओं का भी इतिहास रहा. पहले जुल्फिकार फांसी चढ़ाए गए. फिर शहनवाज भुट्टो फ्रांस में छुट्टी बिताते हुए मारे गए. उनकी बीवी ने उन्हें कमरे के अंदर मरा पड़ा देखा. फिर मुर्तजा पुलिस मुठभेड़ में मारे गए. इसके बाद बेनजीर की हत्या हो गई. ये तीनों ही केस आज तक सुलझे नहीं हैं (फोटो: Getty)
25 जुलाई, 2018 को पाकिस्तान में चुनाव हुए. पाकिस्तान में लोकतंत्र का पस्त रेकॉर्ड रहा है. ऐसे में यहां कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर ले, तो बड़ी बात है. ये पहली बार हुआ कि पाकिस्तान में बैक-टू-बैक दो सरकारों ने अपना कार्यकाल पूरा किया. ये जो हुआ है, वो ऐतिहासिक है. इस खास मौके पर द लल्लनटॉप पाकिस्तान की राजनीति पर एक सीरीज़ लाया है. शुरुआत से लेकर अब तक. पढ़िए, इस सीरीज़ की 14वीं किस्त.


ये 1981 की बात है. इस साल उसने मार्च से अगस्त का महीना जेल में गुजारा. अकेले. साल के इन दिनों इधर गजब की गर्मी पड़ती है. जेल की एक बड़ी सी कोठरी में वो अकेली. रोशनी के लिए बस एक बल्ब. वो भी शाम सात बजे बंद कर दिया जाता. पूरी रात अंधेरे और गर्मी में गुजरती. फिर एक दिन जेल का एक स्टाफ उसके कानों में फुसफुसा गया. बोला, इसी जेल के अंदर मुकदमा चलेगा तुम पर. मुकदमा बाद में चलेगा, फैसला पहले लिख लिया गया है. तुमको फांसी होगी ही होगी. कुछ घंटों बाद किसी ने चुपके से उसकी कोठरी के भीतर जहर की एक शीशी फेंक दी. जैसे उससे कहा जा रहा हो. हम मारें, इससे पहले खुद मर जाओ. मगर वो नहीं मरी. उसने खुदकुशी नहीं की. कोई चीज होती है, जो हमको चलाती है. कोई ख्वाहिश, कोई जिम्मेदारी. उसके अंदर वो चीज गुस्सा थी. वही उसको चला रही थी.
उसका नाम था- बेनजीर. पूरा नाम, बेनजीर भुट्टो. उर्फ पिंकी.
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पढ़ाई के लिए विदेश भेजते वक्त जुल्फी बेटी को लेकर कब्रिस्तान क्यों गए? बेनजीर भुट्टो. जुल्फिकार अली भुट्टो और उनकी दूसरी बीवी नुसरत की चार औलादों में से एक. जुल्फी की अपनी बहन का भी नाम बेनजीर था. शायद उसी बहन की याद में उन्होंने बेटी को ये नाम दिया. जुल्फी को जाने क्या दिखा था बेनजीर में. उसको बचपन से ट्रेनिंग दे रहे थे. उनकी नजर में बेनजीर ही उनकी राजनैतिक वारिस थीं. भुट्टो चाहते थे, बेनजीर अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकार हों. उन्हें इंटरनैशनल रिलेशन्स की भरपूर समझ हो. इसीलिए उन्होंने बेनजीर को पढ़ाई के लिए हावर्ड भेजा. फिर ऑक्सफर्ड भेजा. ये हावर्ड रवाना करने के पहले की बात है. जुल्फी बेनजीर को साथ ले गए. सिंध के अपने गांव गढ़ी खुदा बख्श. यहीं वो कब्रिस्तान है, जहां भुट्टो खानदान के गुजरे लोग दफ्न हैं. अलग-अलग पीढ़ियां एक ही मैदान में सो रही हैं. उनकी कब्रों की तरफ इशारा करके जुल्फी ने कहा-
पिंकी, तुम यहां से बहुत दूर अमेरिका जा रही हो. वहां तुम बहुत सारी चीजें देखोगी. कई ऐसी जगहें देखोगी, जिनके बारे में तुमने पहले कभी नहीं सुना होगा. मगर याद रखना. तुम जो भी बनो, तुम्हारे साथ जो भी हो, आखिर में लौटकर तुम यहीं आओगी. तुम्हारी जगह यहीं है. तुम्हारी जड़ें यहीं हैं. तुम्हारी हड्डियों में लरकाना की मिट्टी, यहां की गर्मी भरी है. यही वो जगह है, जहां एक दिन तुम दफनाई जाओगी.
बेनजीर कई मायने में अपने पिता जुल्फिकार अली भुट्टो जैसी थीं. वैसे ही जोखिम लेना. वैसी ही सख्त जान. वैसी ही हिम्मती. और अपने पिता की ही तरह आक्रामक. कहते हैं कि वो जब पहली बार प्रधानमंत्री बनीं, तो 'मैं' की जगह खुद को 'हम' कहकर पुकारने लगीं. जैसे राजा-महाराजा खुद को पुकारते थे. ये उनके कॉलेज के दिनों की तस्वीर है (फोटो: Getty)
बेनजीर कई मायने में अपने पिता जुल्फिकार अली भुट्टो जैसी थीं. वैसे ही जोखिम लेने की आदत. वैसी ही सख्त जान. वैसी ही हिम्मती. और अपने पिता की ही तरह आक्रामक. कहते हैं कि वो जब पहली बार प्रधानमंत्री बनीं, तो 'मैं' की जगह खुद को 'हम' कहकर पुकारने लगीं. जैसे राजा-महाराजा खुद को पुकारते थे. ये शायद खुद को खास दिखाने की उनकी कोशिश थी. ये जो आप देख रहे हैं, वो उनके कॉलेज के दिनों की तस्वीर है (फोटो: Getty)

बचपन से ट्रेनिंग मिल रही थी बेनजीर को एक पिता का अपनी इतनी कमउम्र बच्ची से ये कहना बेदर्द मालूम होता है. मगर शायद जुल्फी ये बताना चाह रहे थे. कि तुम्हें लौटकर पाकिस्तान ही आना है. यहीं काम करना है, यहीं की मिट्टी में खत्म होना है. जुल्फी ने बचपन से ही बेनजीर को ऐसी ही तैयारी कराई थी. ऐसे ही ट्रेन किया था. अक्सर जब कोई विदेशी राष्ट्राध्यक्ष पाकिस्तान आता, तो जुल्फी बेनजीर को भी उससे मिलवाते. यूं ही नहीं होगा शायद कि शिमला समझौते के लिए जब जुल्फी हिंदुस्तान आए, तो बेनजीर को भी अपने साथ लाए. उन्होंने बेनजीर को हिदायत दी थी-
तुम्हारे चेहरे पर कभी हंसी नहीं होनी चाहिए. तुम हमेशा उदास दिखना. याद रखना, हमारे हजारों युद्धबंदी भारत के पास हैं. अगर तुम्हारे चेहरे पर खुशी दिखी, तो लोग बातें करेंगे.
पिता की फांसी के बाद ज़िया के खिलाफ डटी रहीं जुल्फी ने और भी बहुत कुछ सिखाया बेनजीर को. शायद उसी का असर था कि जब उन्हें जेल में डाला गया, तब बेनजीर अपनी मां नुसरत के साथ मिलकर पिता के लिए आवाज उठाती रहीं. उनके लिए विदेशी सरकारों से मदद मांगती रहीं. प्रदर्शन किया. रैली निकाली. बेनजीर के दोनों भाई- शहनवाज और मुर्तजा विदेश में थे. वो पढ़ रहे थे. अंदेशा था कि अगर वो लौटे, तो ज़िया-उल-हक उन्हें कोई नुकसान पहुंचा सकते हैं. शायद मरवा ही दें. छोटी बहन सनम पहले से ही विदेश में थीं. मगर बेनजीर पाकिस्तान में ही रहीं. ज़िया ने उन्हें और उनकी मां को कई बार नजरबंद किया. बेनजीर जेल भी भेजी गईं. मगर फिर भी वो टिकी रहीं. बेनजीर में जो एक चीज सबसे ज्यादा थी, वो थी हिम्मत. उसी हिम्मत के सहारे वो ज़िया की तानाशाही के खिलाफ डटी रहीं. फिर ऐसा भी हुआ कि उनके देश छोड़कर जाने की नौबत आई. ज़िया ये होने नहीं देते. मगर अंतरराष्ट्रीय दबाव की वजह से न चाहते हुए भी ज़िया ने बेनजीर को पाकिस्तान से जाने दिया. ये 1984 की बात है. बेनजीर पाकिस्तान से बाहर रहकर ज़िया के खिलाफ, अपने पिता की फांसी के खिलाफ आवाज उठाती रहीं. फिर जब पाकिस्तान में ज़िया के खिलाफ विरोध तेज हुआ, तो 1986 में बेनजीर पाकिस्तान लौट आईं.
बेनजीर जब ऑक्सफर्ड में थीं, तो उन्होंने अपने पिता को एक सम्मान दिलवाने की कोशिश की थी. जैसे, यूनिवर्सिटी वगैरह किसी को सम्मानित करने के लिए डॉक्टरेट देते हैं. वैसे ही. मगर 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (जो बाद में बांग्लादेश बना) के अंदर जो नरसंहार हुआ था, उसमें जुल्फिकार की भी कुछ भूमिका थी. इसीलिए ऑक्सफर्ड के कुछ छात्रों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया. फिर यूनिवर्सिटी ने भी बेनजीर के प्रस्ताव को खारिज कर दिया (फोटो: Getty)
बेनजीर जब ऑक्सफर्ड में थीं, तो उन्होंने अपने पिता को सम्मान दिलवाने की कोशिश की थी. जैसे, यूनिवर्सिटी वगैरह किसी को सम्मानित करने के लिए डॉक्टरेट देते हैं. वैसे ही. मगर 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के अंदर जो नरसंहार हुआ था, उसमें जुल्फिकार की भी कुछ भूमिका थी. इसीलिए ऑक्सफर्ड के कुछ छात्रों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया. फिर यूनिवर्सिटी ने भी बेनजीर के प्रस्ताव को खारिज कर दिया (फोटो: Getty)

सेना और ISI ने बेनजीर के खिलाफ गठबंधन खड़ा किया इस दौर में बेनजीर का चेहरा शायद ज़िया के खिलाफ सबसे मजबूत राजनैतिक चेहरा था. फांसी पर चढ़ाए जाने के बाद से जुल्फी कइयों के लिए शहीद से हो गए थे. जिनको शहीद नहीं लगते, उनका भी मानना था कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ. ऐसे में जब बेनजीर लौटीं, तो वो पाकिस्तान में लोकतंत्र के लौटने की सबसे मजबूत उम्मीद बन गईं. वो जहां जातीं, लोग उन्हें हाथोहाथ लेते. मई 1988 में जब ज़िया ने मुहम्मद खान जुनेजो की सरकार को बर्खास्त किया, तब उनके ऊपर दोबारा चुनाव करवाने का दबाब था. ज़िया ने ऐलान किया. नवंबर 1988 में चुनाव होंगे. उस समय ज़िया को सबसे ज्यादा चिंता बेनजीर से निपटने की ही थी. वो हर हाल में बेनजीर को रोकना चाहते थे.
इसी कोशिश में ये रणनीति बनाई गई कि नए लोगों को, जो आम बैकग्राउंड से ताल्लुक रखते हों, राजनीति में लाया जाए. उन्हें बेनजीर के खिलाफ खड़ा किया जाए. ऐसे नेता तैयार किए जाएं, जिन्हें मुट्ठी में रखा जा सके. ज़िया की इस रणनीति पर काम किया लेफ्टिनेंट जनरल हामिद गुल ने. जो कि उस समय ISI के डीजी थे. ज़िया की स्ट्रैटजी और हामिद की कोशिश. इनका ही नतीजा था कि नवाज शरीफ राजनीति में आगे बढ़ सके. अगस्त 1988 में ज़िया की मौत के बाद उनकी प्लानिंग को पूरा किया पाकिस्तानी सेना और ISI ने. वो हामिल गुल ही थे, जिन्होंने 1988 के चुनाव में बेनजीर का मुकाबला करने के लिए इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद (IJI) खड़ा किया. इसमें इस्लामिक कट्टरपंथी भी थे. और साथ में नवाज जैसे मोहरे भी थे.
नवाज शरीफ ज़िया-उल-हक को अपना मेंटर कहते थे. ज़िया ने न केवल उन्हें मुख्यधारा की राजनीति में शामिल किया, बल्कि उनकी कंपनियों को सरकारी कर्ज दिलवाने में भी मदद की (फोटो: Getty)
नवाज शरीफ ज़िया-उल-हक को अपना मेंटर कहते थे. ज़िया ने न केवल उन्हें मुख्यधारा की राजनीति में शामिल किया, बल्कि उनकी कंपनियों को सरकारी कर्ज दिलवाने में भी मदद की (फोटो: Getty)

बेनजीर के कपड़े, उनकी भाषा चुनाव में मुद्दा बन गए 1988 का चुनाव बेनजीर के इर्द-गिर्द था. विपक्ष ने बेनजीर पर सवाल उठाने का कोई मौका नहीं छोड़ा. बेनजीर की उर्दू और सिंधी, दोनों कमजोर थी. वैसी ही, जैसी उनके पिता की थी. असल में अंग्रेजी ही बेनजीर की पहली भाषा थी. उनका दिमाग भी अंग्रेजी में ही सोचता था. विपक्ष इसे बेनजीर का अंग्रेजीदां अंदाज कहता था. कॉलेज के दिनों में वो कैसे कपड़े पहनती थीं, कैसे क्लब्स में जाती थीं, इन सबको विपक्ष ने मुद्दा बनाया. जैसे एक वक्त जुल्फी को 'गैर-इस्लामिक' साबित करने की कोशिश की गई थी, वैसा ही बेनजीर के साथ भी किया गया. बेनजीर तो फिर औरत भी थीं. विपक्ष कहता, जनाना का काम घर में रहकर बच्चे पैदा करना और उन्हें पालना है. मगर बेनजीर इन सबसे पार पा गईं.
सेना की नजर से देखिए, तो बेनजीर की सबसे बड़ी खामी ये थी कि वो जुल्फिकार की बेटी थीं. सेना को उनके ऊपर बिल्कुल भी भरोसा नहीं था. फिर ये बात भी थी कि भुट्टो परिवार सिंध का था. बेनजीर तो फिर औरत भी थीं. इनकी तुलना में नवाज को रखिए. मर्द, पंजाबी, राजनीति वाला कोई बैकग्राउंड नहीं, बिजनसमैन परिवार और सुन्नी मुसलमान (फोटो: Getty)
सेना की नजर से देखिए, तो बेनजीर की सबसे बड़ी खामी ये थी कि वो जुल्फिकार की बेटी थीं. सेना को उनके ऊपर बिल्कुल भी भरोसा नहीं था. फिर ये बात भी थी कि भुट्टो परिवार सिंध का था. बेनजीर तो फिर औरत भी थीं. इनकी तुलना में नवाज को रखिए. मर्द, पंजाबी, राजनीति वाला कोई बैकग्राउंड नहीं. मतलब खाली स्लेट. फिर बिजनसमैन परिवार और सुन्नी मुसलमान. नवाज सारे पैमानों पर फिट बैठते थे (फोटो: Getty)

नवाज में क्या था, जो बेनजीर में नहीं था? 16 नवंबर, 1988 को चुनाव हुए. नैशनल असेंबली के चुनाव में बेनजीर की पार्टी PPP सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. तीन दिन बाद प्रांतीय असेंबलियों के चुनाव हुए. कहते हैं कि प्रांतीय चुनावों में धांधली की गई थी. खासतौर पर पंजाब में. नैशनल असेंबली में PPP को पंजाब में सबसे ज्यादा 52 सीटें मिली थीं. मगर प्रांतीय चुनाव में बेनजीर के विरोधी IJI को 108 सीटें मिल गईं. बेनजीर लाख चाहकर भी पंजाब में सरकार नहीं बना सकीं. पंजाब के मुख्यमंत्री थे नवाज शरीफ. वही नवाज, जिन्हें सेना और ISI ने ग्रूम किया था. खुद ज़िया ने उन्हें राजनीति में आगे बढ़ाया था. असल में सेना ऐसा कैंडिडेट चाहती थी, जो मर्द हो. सुन्नी हो. सिविलयन बैकग्राउंड से आता हो. और, पंजाबी हो. नवाज में ये सारी चीजें थीं.
बेनजीर जब पहली बार प्रधानमंत्री बनीं, तो उन्हें कई समझौते करने पड़े थे. सबसे बड़ी शर्त तो यही थी कि वो सेना के मामलों से दूर रहेंगी. बेनजीर इन शर्तों को मानकर ही सत्ता में आ पाई थीं (फोटो: Getty)
बेनजीर जब पहली बार प्रधानमंत्री बनीं, तो उन्हें कई समझौते करने पड़े थे. सबसे बड़ी शर्त तो यही थी कि वो सेना के मामलों से दूर रहेंगी. बेनजीर इन शर्तों को मानकर ही सत्ता में आ पाई थीं (फोटो: Getty)

प्रधानमंत्री बनने के लिए बेनजीर को कई वादे करने पड़े नैशनल असेंबली में सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद PPP की सरकार बनने के आसार नहीं थे. सेना किसी भी कीमत पर बेनजीर को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहती थी. कहते हैं कि अमेरिका ने बेनजीर की मदद की. मगर 'टर्म्स ऐंड कंडिशन्स' के साथ. उसने पाकिस्तानी सेना से कहा. कि सबसे ज्यादा सीटें जीतकर आई बेनजीर को PM बनने दिया जाए. इस मदद की अपनी एक कीमत थी. बेनजीर को वादा करना पड़ा था. कि वो सेना से जुड़ी बातों से दूर रहेंगी. ये भी कि वो न्यूक्लियर प्रोग्राम से दूर रहेंगी. और, अफगानिस्तान मामले में दखलंदाजी नहीं करेंगी. मतलब सेना के काम में किसी भी तरह से टांग नहीं अड़ाएंगी. ये आश्वासन पाने के बाद राष्ट्रपति गुलाम इशाक खान ने बेनजीर को प्रधानमंत्री मनोनीत किया. यूं बेनजीर पाकिस्तान की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं. जिस दिन उन्होंने शपथ ली, वो सच में इतिहास था. तारीख थी- 2 दिसंबर, 1988.
किसी इस्लामिक देश में प्रधानमंत्री जैसा ओहदा पाने वाली पहली महिला थीं बेनजीर. पाकिस्तान से अलग होकर बना बांग्लादेश. आगे चलकर इसी बांग्लादेश को दो महिला प्रधानमंत्री मिलीं. एक शेख हसीना. दूसरी, बेगम खालिदा जिया (फोटो: Getty)
किसी इस्लामिक देश में प्रधानमंत्री जैसा ओहदा पाने वाली पहली महिला थीं बेनजीर. पाकिस्तान से अलग होकर बना बांग्लादेश. आगे चलकर इसी बांग्लादेश को दो महिला प्रधानमंत्री मिलीं. एक शेख हसीना. दूसरी, बेगम खालिदा जिया (फोटो: Getty)

पहली बार किसी इस्लामिक देश में कोई महिला इस ओहदे पर पहुंची थी जब से पाकिस्तान बना था, तब से इस दिन तक राजनीति के स्तर पर वहां शायद एक-आध ही अच्छी चीजें हुई हों. बेनजीर का PM बनना उन दुर्लभ अच्छी चीजों में से एक था. वो बस पाकिस्तान की पहली महिला प्रधानमंत्री नहीं थीं. वो दुनिया के किसी भी इस्लामिक मुल्क की पहली महिला थीं, जो ऐसे ओहदे तक पहुंच पाईं. आप सोचिए. ये जो पश्चिमी देश खुद को इतना सभ्य और विकसित कहते हैं, इन्होंने अपने यहां की औरतों को वोट देने का हक भी इतनी देर से दिया. और यहां था पाकिस्तान जैसा मुल्क. जिसके लीडर उसे धर्मांध बनाने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे थे. मगर आवाम ने बेनजीर को, एक औरत को अपना वजीर-ए-आजम बनाया. वैसे बेनजीर के नाम एक और कारनामा है.
बेनजीर को प्रधानमंत्री बने कुछ ही वक्त हुआ था. वो दोबारा प्रेगनेंट हो गईं. मगर बेनजीर ने ये बात सबसे छुपाकर रखी. उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आ चुका था. राष्ट्रपति के साथ उनका मतभेद चल रहा था. बेनजीर को लगा कि अगर उन्होंने अपनी प्रेगनेंसी की बात बताई, तो बात उनके खिलाफ जाएगी. किस्सा ये है कि बेनजीर कराची के एक अस्पताल पहुंची. सबसे छुपते-छुपाते. इस बात का ध्यान रखा गया कि किसी को उनके वहां पहुंचने की भनक तक न लगे. उन्होंने अपना सिजेरियन करवाया. रात को डिलिवरी हुई और अगले ही दिन दफ्तर लौट गईं. बच्चे को जन्म दिए 24 घंटे भी नहीं हुए थे कि वो अपने दफ्तर में बैठकर सरकारी फाइलें पलट रही थीं. वो पहली महिला राष्ट्राध्यक्ष थीं, जिन्होंने सत्ता में रहते हुए बच्चे को जन्म दिया था. बेनजीर ने अपनी आत्मकथा 'डॉटर ऑफ द ईस्ट' में भी ये किस्सा लिखा है.
ये बख्तावर भुट्टो हैं. बेनजीर के तीन बच्चों में दूसरी. बेनजीर ने प्रधानमंत्री रहते हुए इन्हें जन्म दिया था (फोटो: ट्विटर)
ये बख्तावर भुट्टो जरदारी हैं. बेनजीर के तीन बच्चों में दूसरी. बेनजीर ने प्रधानमंत्री रहते हुए इन्हें जन्म दिया था. तीनों बच्चों में सबसे बड़े हैं बिलावल भुट्टो. सबसेछोटी हैं आसिफा. (फोटो: ट्विटर)

एक तरफ नवाज, दूसरी तरफ राष्ट्रपति शुरुआत में बेनजीर चुपचाप काम कर रही थीं. उन्होंने सिंध की अपनी सरकार को मजबूत करने के लिए मोहाजिर कौमी मूवमेंट (MQM) के साथ गठबंधन किया. फिर नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस (जो अब खैबर-पख्तूनख्वा है) में आवामी नैशनल पार्टी (ANP) के साथ हाथ मिलाया और सरकार बनाई. लेकिन फिर जल्द ही शुरू हुआ उनका और नवाज शरीफ का मुकाबला. सांप-नेवले का मुकाबला. ये झगड़ा बेनजीर के साथ ताउम्र रहने वाला था. नवाज पंजाब के मुख्यमंत्री थे. बेनजीर पंजाब से जुड़े जो भी फैसले करतीं, नवाज उन्हें खारिज कर देते. फिर चाहे वो चीफ सेक्रटरी की नियुक्ति हो, या बैंक खोलने जैसे बुनियादी फैसले. नवाज लगातार अपनी टांग अड़ाकर बेनजीर की सत्ता को चुनौती देते रहे. इधर नवाज थे सेना के प्यादे. जो बेनजीर की राह में रोड़ा अटकाते जा रहे थे. दूसरी तरफ थे राष्ट्रपति गुलाम इशाक खान. प्रधानमंत्री बनाए जाते समय ही बेनजीर के सामने शर्त रखी गई थी. कि वो गुलाम इशाक खान को राष्ट्रपति बने रहने देंगी. बेनजीर को ये बात माननी पड़ी थी. मजबूरी में उन्होंने गुलाम का कार्यकाल पांच साल और बढ़ा दिया. मगर गुलाम थे कि बेनजीर को काम ही नहीं करने दे रहे थे. नियुक्ति जैसे जरूरी फैसले भी वो बेनजीर को नहीं लेने देते थे. बेनजीर मंजूरी के लिए उनके पास किसी काम से जुड़ी फाइल भेजतीं, तो वो फाइल दबाकर बैठ जाते. तीसरी तरफ थे आर्मी चीफ जनरल असलम बेग.
पहले कार्यकाल में बेनजीर के पास लोगों की सहानुभूति थी. ये बात भी थी कि उनको ठीक से काम नहीं करने दिया जा रहा था. एक तरफ नवाज और दूसरी तरफ राष्ट्रपति गुलाम इशाक खान, दोनों ही बेनजीर को परेशान कर रहे थे (फोटो: Getty)
पहले कार्यकाल में बेनजीर के पास लोगों की सहानुभूति थी. ये बात भी थी कि उनको ठीक से काम नहीं करने दिया जा रहा था. एक तरफ नवाज और दूसरी तरफ राष्ट्रपति गुलाम इशाक खान, दोनों ही बेनजीर को परेशान कर रहे थे (फोटो: Getty)

...और बेनजीर की सरकार चली गई इधर ये सब हो रहा था, उधर प्रांतों में भी बेनजीर पिछड़ रही थीं. सिंध में MQM के साथ उनका गठबंधन टूट गया. वो फिर नवाज के साथ चले गए. इसके बाद कराची और हैदराबाद (पाकिस्तान का) में हिंसा की घटनाएं बढ़ गईं. ऐसे ही में हुई पक्का किला की घटना. हैदराबाद का एक इलाका है- पक्का किला. मई 1990 की बात है. यहां कर्फ्यू लगा हुआ था. पुलिस घर-घर जाकर तलाशी ले रही थी. MQM कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया. इसकी वजह से वहां फसाद शुरू हो गया. इस पर काबू पाने के लिए पुलिस ने प्रदर्शनकारियों की एक भीड़ पर गोलियां चलाईं. तकरीबन 40 लोग मारे गए. इस घटना की वजह से बेनजीर निशाने पर आ गईं. उन्हें प्रधानमंत्री बने एक साल भी नहीं हुआ था कि उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ले आया गया. हालांकि इसमें बेनजीर जीत गईं. मगर हालात ठीक नहीं हुए. 6 अगस्त, 1990 को राष्ट्रपति ने नैशनल असेंबली बर्खास्त कर दी. बेनजीर की सरकार चली गई.
नवाज के ऊपर सेना का हाथ था. ऊपर से पाकिस्तान के सबसे प्रभावी, सबसे कमाऊ प्रांत पंजाब की राजनीति से ताल्लुक रखते थे. बेनजीर की तुलना में उनके लिए पॉलिटिक्स ज्यादा आसान थी (फोटो: Getty)
नवाज के ऊपर सेना का हाथ था. ऊपर से पाकिस्तान के सबसे प्रभावी, सबसे कमाऊ प्रांत पंजाब की राजनीति से ताल्लुक रखते थे. बेनजीर की तुलना में उनके लिए पॉलिटिक्स ज्यादा आसान थी (फोटो: Getty)

नवाज के किस्से तीन महीने बाद, यानी अक्टूबर 1990 में फिर से चुनाव करवाने का ऐलान हुआ. नैशनल पीपल्स पार्टी के गुलाम मुस्तफा जतोई को कार्यकारी प्रधानमंत्री बनाया गया. चुनाव में जीतकर नवाज शरीफ बने पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री. इन चुनावों में खूब धांधली हुई. ऐसा नहीं कि बेनजीर के खिलाफ माहौल नहीं था. लेकिन हर तरफ से ये कोशिश की गई कि बेनजीर किसी हाल में सत्ता में न लौटें. तो ये माहौल था कि नवाज चुनाव जीत गए. 1 नवंबर, 1990 को नवाज PM की कुर्सी पर बैठे. नवाज के मुख्यमंत्री वाले दौर का एक किस्सा इमरान खान ने अपनी किताब 'पाकिस्तान: अ पर्सनल हिस्ट्री' में यूं लिखा है-

साल 1987. पतझड़ का महीना. लाहौर का गद्दाफी स्टेडियम. क्रिकेट वर्ल्ड कप बस शुरू ही होने वाला था. इस रोज पाकिस्तान की टीम का एक वॉर्म-अप मैच था. वेस्ट इंडीज के खिलाफ. पाकिस्तान का कैप्टन था मैं. वेस्ट इंडीज के कैप्टन थे विव रिचर्ड्स. मैच शुरू ही होने वाला था कि क्रिकेट बोर्ड के सेक्रटरी शाहिद रफी मेरे पास पास आए. कहा, आज के मैच में आपकी जगह पंजाब के मुख्यमंत्री नवाज शरीफ कैप्टन होंगे. मैं हैरान. फिर मैंने सोचा, शायद सिंबॉलिक हो. माने, चीफ मिनिस्टर बस ड्रेसिंग रूम में बैठे रहेंगे और नाम के कैप्टन होंगे. मगर मैं गलत था.

कुछ देर में देखा, तो पंजाब के चीफ मिनिस्टर सफेद ड्रेस में स्टेडियम के अंदर घुस रहे हैं. साथ में हैं विव. टॉस पाकिस्तान ने जीता. चीफ मिनिस्टर, जो उस दिन कैप्टन भी थे, ने पहले बैटिंग करने का फैसला किया. तब पाकिस्तान की तरफ से ओपनिंग करते थे मुद्दसर नज़र. मिनिस्टर साहब उनके साथ तैयार होने लगे. मुद्दसर ने बैटिंग पैड, थाइ पैड, चेस्ट पैड, आर्म गार्ड, हेल्मेट, दस्ताना...सब पहना. लेकिन मिनिस्टर साहब बस बैटिंग पैड लगाकर सिर पर हैट रखे मैदान में उतर गए. मैंने फटाफट पता लगाया. कि स्टेडियम के बाहर कोई ऐम्बुलेंस खड़ी है कि नहीं. तब की वेस्ट इंडीज टीम कोई मजाक नहीं थी. क्रिकेट इतिहास की सबसे खौफनाक फास्ट बॉलिंग करने वाली टीम थी. ये ऐसी बॉलिंग थी, जिसने अच्छे-अच्छे बल्लेबाजों का करियर तबाह कर दिया था. वेस्ट इंडीज की इस टीम के साथ खेलने से पहले दूसरी टीम के खिलाड़ियों को नींद नहीं आती थी. एक बॉल जो लग जाती मिनिस्टर साहब को, तो लेने के देने पड़ जाते. पहली बॉल. इससे पहले कि मुख्यमंत्री बल्ला उठाते जमीन से, बॉल विकेट कीपर के दस्ताने में जा बैठी. दूसरी बॉल. इससे पहले कि मिनिस्टर साहब कुछ समझते, बॉल ने गिल्लियां उड़ा दीं. हताश CM ड्रेसिंग रूम लौट आए.

प्रधानमंत्री बन जाने के बाद नवाज को लगा कि अब उनका जनाधार बन चुका है. अब उन्हें आगे बढ़ने और टिके रहने के लिए सेना की जरूरत नहीं है. इसके बाद नवाज ने अलग राह जाने की कोशिश की. वो खुद से मजबूत संस्थाओं को कमजोर करने की कोशिश में जुट गए (फोटो: Getty)
प्रधानमंत्री बन जाने के बाद नवाज को लगा कि अब उनका जनाधार बन चुका है. अब उन्हें आगे बढ़ने और टिके रहने के लिए सेना की जरूरत नहीं है. इसके बाद नवाज ने अलग राह जाने की कोशिश की. वो खुद से मजबूत संस्थाओं को कमजोर करने की कोशिश में जुट गए (फोटो: Getty)

नवाज और शाहबाज की तरक्की में उनके अब्बू का बड़ा हाथ था कहते हैं कि नवाज के अब्बू मियां मुहम्मद शरीफ ने उनकी तकदीर बनाई. नवाज पढ़ाई में औसत थे, तो पिता ने उन्हें अपनी कंपनी के PR में लगा दिया. बेटा वहां भी अच्छा नहीं निकला. पिता ने उन्हें हीरो सईद खान रंगीला को सौंप दिया. ये कहकर कि लो, इसे फिल्मों में हीरो बना दो. कुछ ही दिनों में रंगीला भी नवाज को लौटा गया. कहा, ऐक्टिंग इसके बस की नहीं. बहुत सारी चीजों में हाथ आजमाया नवाज ने. मगर कामयाबी नहीं मिली. किस्मत से उन्हीं दिनों जनरल ज़िया-उल-हक ने आम लोगों को प्रांतीय कैबिनेट में घुसाने का फैसला किया. पिता फिर पहुंचे पंजाब के गवर्नर के पास. सिफारिश लगाई, मेरे बेटे को भी कैबिनेट में ले लो. गवर्नर को नवाज के छोटे भाई शाहबाज शरीफ में स्पार्क दिखा था. मगर पिता को परिवार के बिजनस में शाहबाज की जरूरत थी. उन्होंने गर्वनर से कहा, छोटे के लिए नहीं, बड़े बेटे के लिए मदद चाहिए. गवर्नर मान गए. और इस तरह अपने परिवार की एक छोटी सी स्टील की फैक्ट्री में PR का छोटा-मोटा काम देखने वाले नवाज को राजनीति में जगह मिल गई. मियां शरीफ नवाज और शाहबाज के पचड़े संभालते रहे. कहते हैं कि बाप और बेटों की इस तिकड़ी का एक खास अंदाज थे. एक पैंतरा, जो वो सारे सेना प्रमुखों के सामने आजमाते. ये दांव था-

मियां शरीफ क्या करते कि आर्मी चीफ के आगे बैठ जाते. फिर नवाज और शाहबाज को सामने खड़ा करते. और आर्मी चीफ से कहते- ये दोनों आपके छोटे भाई हैं. अगर ये कोई गलती करें, तो मुझे बताइएगा. मैं इनकी खबर लूंगा. यहां तक कि आगे चलकर जब नवाज ने मन ही मन परवेज मुशर्रफ को हटाने का फैसला कर लिया था, तब भी उन्होंने अपने पिता और भाई के साथ मिलकर यही दांव खेला. मुशर्रफ को अपने घर खाने पर बुलाया. और फिर मियां शरीफ ने मुशर्रफ के आगे यही डायलॉग मारा. मकसद सिर्फ इतना था कि मुशर्रफ समझें कि शरीफ परिवार उनसे बड़ा अपनापन रखता है. 

नवाज के बारे में दो चीजें मशहूर हैं. एक- लिफाफा पत्रकारिता. कहते हैं कि नवाज पत्रकारों को खूब पैसा खिलाते थे. ताकि उनके खिलाफ मीडिया में खबर न चले. खासतौर पर उनके बिजनस इंट्रेस्ट के खिलाफ तो कुछ भी न लिखा जाए. दूसरी बात जो नवाज के बारे में चलती है, वो है 'चंगू-मंगू पॉलिटिक्स'. ये असल में एक वाकया है. नेताओं की खरीद-फरोख्त से जुड़ा मामला (फोटो: Getty)
नवाज के बारे में दो चीजें मशहूर हैं. एक- लिफाफा पत्रकारिता. कहते हैं कि नवाज पत्रकारों को खूब पैसा खिलाते थे. ताकि उनके खिलाफ मीडिया में खबर न चले. खासतौर पर उनके बिजनस इंट्रेस्ट के खिलाफ तो कुछ भी न लिखा जाए. दूसरी बात जो नवाज के बारे में चलती है, वो है 'चंगा-मंगा पॉलिटिक्स'. ये असल में एक वाकया है. नेताओं की खरीद-फरोख्त से जुड़ा मामला (फोटो: Getty)

नवाज किस टाइप की पॉलिटिक्स करते थे, इसका एक किस्सा पढ़िए उस दौर में नवाज असगर खान की 'तहरीक-ए-इस्तिकलाल' पार्टी के सदस्य हुआ करते थे. वहीं से वो ज़िया की नजर में आए. 1981 में वो पंजाब के वित्तमंत्री बना दिए गए. ज़िया-उल-हक के दौर में नवाज को काफी तरक्की मिली. कहते हैं कि ज़िया ने ही नवाज को मुख्यधारा की राजनीति में घुसने की सलाह दी थी. ज़िया ही की मेहरबानी की वजह से नवाज राजनीति में इतने आगे बढ़ पाए थे. 1985 में ज़िया ने चुनाव करवाया. इसमें पार्टियों को शामिल होने की इजाजत नहीं थी. ज़िया और हामिद गुल के कहने पर नवाज ने भी इसमें हिस्सा लिया. जीते भी. और जीत के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री भी बनाए गए. 1988 के चुनाव में नैशनल असेंबली के अंदर तो PPP की सरकार बनी. लेकिन पंजाब और बलूचिस्तान में IJI ने सरकार बनाई. नवाज फिर पंजाब के मुख्यमंत्री बने. इसी समय का एक बड़ा मशहूर किस्सा है, तो पाकिस्तान में अब एक राजनैतिक मुहावरा बन चुका है. किस्सा कुछ यूं है-
लाहौर के ठीक बाहर अंग्रेजों का बसाया एक जंगल है. चंगा-मंगा. कहते हैं कि दो चोर थे. एक का नाम चंगा, दूसरे का नाम मंगा. दोनों मिलकर चोरियां करते और फिर लूट का माल लाकर यहीं जंगल में छुपा देते. उन्हीं के नाम पर इस जंगल का नाम पड़ गया- चंगा मंगा. ये 1989 के दौर की बात है. नैशनल असेंबली में तो बेनजीर की सरकार थी. मगर पंजाब और बलूचिस्तान में IJI ने सरकार बनाई. पंजाब सबसे कमाऊ प्रांत है. उसकी जरूरत सबको होती है. सो बेनजीर चाहती थीं कि किसी तरह पंजाब में अपनी सरकार बना लें. यहां के मुख्यमंत्री थे नवाज शरीफ. बेनजीर चाहती थीं कि किसी तरह कुछ निर्दलीय विधायकों को साथ लेकर और नवाज की पार्टी के विधायकों को तोड़कर अपनी सरकार बना लें. कुछ सेटिंग भी हो गई थी उनकी. नवाज को इसकी भनक लगी. उन्होंने सारे निर्दलीय विधायकों को उठाकर चंगा-मंगा में बने एक सरकारी गेस्ट हाउस में पहुंचवा दिया. गेस्ट हाउस में बंद रखकर उनकी खूब खातिरदारी की. खूब मजे कराए उनको. 
मगर बेनजीर किसी कीमत पर विधायकों को साथ मिलाकर सरकार बनाने की कोशिश में थीं. ऐसे में नवाज को मदद मिली सेना प्रमुख जनरल बेग से. बेग उन दिनों एक शादी में शरीक होने लाहौर पहुंचे हुए थे. उन्होंने एक अखबार के संपादक से एक अपना एक इंटरव्यू करवाया. अगले दिन अखबार की हेडलाइन थी- पंजाब में नहीं गिरेगी सरकार. जो विधायक नवाज का साथ छोड़कर बेनजीर के साथ होना चाहते थे, उनको मेसेज मिल गया. कि सेना नवाज को ही रखना चाहती है. सेना से पंगा ले, इतनी हिम्मत कौन करता. अगले दिन पंजाब असेंबली में विश्वासमत के लिए वोटिंग हुई. नवाज जीत गए. ये घटना पाकिस्तान की राजनीति में एक मुहावरा बन गई. इसको कहते हैं 'चंगा-मंगा पॉलिटिक्स'.
ये हैं नवाज की पत्नी कुलसुम नवाज. वो गामा पहलवान की पोती हैं. वो लाहौर में जहां रहते थे, वहां हिंदुओं की बड़ी आबादी रहती थी. बंटवारे के समय जब दंगा शुरू हुआ, तो गामा ने अपने मुहल्ले के हिंदुओं की जान बचाई थी. वो मुस्लिम दंगाइयों के सामने खड़े हो गए थे. कहते हैं कि बाद में उन्होंने अपने मुहल्ले के हिंदुओं को सही-सलामत हिंदुस्तान की सीमा तक पहुंचाया था. उनका सारा खर्च खुद उठाया था (फोटो: दाहिनी तरफ Getty, बाईं तरफ सोशल मीडिया)
ये हैं नवाज की पत्नी कुलसुम नवाज. वो गामा पहलवान की पोती हैं. वो लाहौर में जहां रहते थे, वहां हिंदुओं की बड़ी आबादी रहती थी. बंटवारे के समय जब दंगा शुरू हुआ, तो गामा ने अपने मुहल्ले के हिंदुओं की जान बचाई थी. वो मुस्लिम दंगाइयों के सामने खड़े हो गए थे. कहते हैं कि बाद में उन्होंने अपने मुहल्ले के हिंदुओं को सही-सलामत हिंदुस्तान की सीमा तक पहुंचाया था. उनका सारा खर्च खुद उठाया था (फोटो: दाहिनी तरफ Getty, बाईं तरफ सोशल मीडिया)

PM बनकर नवाज ने सबसे ज्यादा खुद को ही फायदा पहुंचाया बतौर प्रधानमंत्री नवाज ने अपने पहले कार्यकाल में कुछ अच्छे फैसले लिए. टेलिकम्यूनिकेशन्स और इन्फ्रास्ट्रक्चर में काफी काम कराया. नवाज खुद भी कारोबारी आदमी थे. उनके परिवार के बिजनस 'इत्तेफाक ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज' को भुट्टो के कार्यकाल के अंदर हुए धड़ाधड़ राष्ट्रीयकरण से काफी नुकसान हुआ था. प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने सरकार के अधीन कई कंपनियों और क्षेत्रों को प्राइवेट सेक्टर में डाल दिया. मगर नवाज के साथ एक बड़ी दिक्कत थी. वो सत्ता का इस्तेमाल करके खुद को और अपने परिवार को फायदा पहुंचा रहे थे. ये वो तब से ही कर रहे थे, जब वो पंजाब के वित्तमंत्री बने थे. नवाज जैसे-जैसे ओहदे में ऊपर उठते गए, उनके परिवार की आमदनी भी बढ़ती गई. खूब सारे नए कारखाने खोले उनके परिवार ने. इन कारखानों को खोलने का पैसा उन्हें सरकार से मिल रहा था. कर्जे के तौर पर. ज़िया ने न केवल उन्हें सरकारी कर्ज दिलाने में मदद की, बल्कि कुछ मौकों पर उनका कर्ज माफ भी करवाया. 1989 के पब्लिक अकाउंट्स कमिटी रिपोर्ट के मुताबिक, उस समय पाकिस्तान में सरकार की तरफ से जिन दो लोगों का सबसे ज्यादा कर्ज माफ किया गया था, उनमें नवाज शरीफ दूसरे नंबर पर थे.
गुलाम इशाक खान ने बस बेनजीर को तंग नहीं किया. उनकी नवाज शरीफ से भी नहीं पटी. उन्होंने नवाज सरकार को भी ठीक उसी तरह से बर्खास्त किया. मगर नवाज ने उनके फैसले को चुनौती दी. फिर ऐसा हुआ कि नवाज की कुर्सी तो गई ही, साथ में इशाक खान की भी कुर्सी चली गई (फोटो: सोशल मीडिया)
गुलाम इशाक खान ने बस बेनजीर को तंग नहीं किया. उनकी नवाज शरीफ से भी नहीं पटी. उन्होंने नवाज सरकार को भी ठीक उसी तरह से बर्खास्त किया. मगर नवाज ने उनके फैसले को चुनौती दी. फिर ऐसा हुआ कि नवाज की कुर्सी तो गई ही, साथ में इशाक खान की भी कुर्सी चली गई (फोटो: सोशल मीडिया)

नवाज और सेना के बीच सब बिगड़ने लगा नवाज और उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने वालों के बीच मतभेद कितना गहरा गया था, इसकी एक मिसाल 1991 के खाड़ी युद्ध के समय की है. आर्मी चीफ जनरल बेग ने खुलकर नवाज की आलोचना की. कहा कि नवाज की गल्फ पॉलिसी गड़बड़ है. आर्मी चीफ की इस आलोचना से नवाज की काफी किरकिरी हुई थी. जनरल बेग और नवाज के बीच स्थितियां काफी खराब हो गईं. ऐसी फुसफुसाहट थी कि बेग नवाज का तख्तापलट कर देंगे. मगर ऐसा हुआ नहीं. बेग रिटायर हो गए. जनरल आसिफ नवाज नए आर्मी चीफ बनाए गए. नवाज ने आसिफ पर हावी होने की कोशिश की. लेकिन आसिफ कच्चे खिलाड़ी नहीं थे. उन्होंने हामिद गुल का ट्रांसफर कर दिया. हामिद नवाज के नजदीकी और भरोसेमंद थे. नवाज को बड़ी मदद मिलती थी उनके होने से. अब चूंकि हामिद नहीं थे, तो आसिफ और नवाज के बीच कड़वाहट और बढ़ने लगी.
ये भी हुआ कि जनरल आसिफ गए अमेरिका. वहां अमेरिका के रक्षा विभाग ने उनके स्वागत में लाल कालीन बिछा दिया. नवाज चिढ़ गए. वो कब से इस जुगाड़ में थे कि अमेरिका उन्हें अपने यहां आने का न्योता दे. जब उन्होंने देखा कि अमेरिका उनकी जगह आर्मी चीफ को तवज्जो दे रहा है, तो नवाज बुरी तरह सुलग गए. नवाज ने इसका जवाब यूं दिया कि आर्मी चीफ की सलाह को अनदेखा करके जनरल जावेद नसीर को ISI सौंप दिया. इस तरह नवाज और आसिफ के बीच वार-पलटवार का खेल चलता रहा. फिर आई भयंकर बाढ़. मदद के लिए सेना को बुलाया गया. सेना ने खूब काम किया. लोग कहने लगे कि सरकार भले चूक गई हो, लेकिन सेना मौके पर काम आई. इससे भी नवाज की किरकिरी हुई. नवंबर 1992 में बेनजीर ने नवाज सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. एक लॉन्ग मार्च लॉन्च किया सरकार के खिलाफ. नवाज जानते थे. कि विपक्ष, खासतौर पर बेनजीर बिना सेना की मर्जी के ये नहीं कर सकती हैं. नवाज के पास जितनी ताकत थी, उन्होंने इस विरोध को कुचलने में झोंक दी.
फिर नवाज की राष्ट्रपति से ठन गई ये सब चल ही रहा था कि जनवरी 1993 में आसिफ को एकाएक हार्ट अटैक आया और वो गुजर गए. नवाज ने सोचा, मेरे ही भाग से छींका टूटा है. उन्होंने राष्ट्रपति पर जोर डाला कि इस बार उनकी पसंद का आर्मी चीफ चुना जाए. नवाज लाहौर कॉर्प्स कमांडर जनरल मुहम्मद अशरफ को सेना प्रमुख बनाना चाहते थे. मगर राष्ट्रपति समझ गए कि नवाज की बात मानना, माने अपनी जड़ खोदना. यूं तो जनरल आसिफ के जाने के बाद जनरल आसिफ नवाज को आर्मी चीफ बनना था. लेकिन नवाज और राष्ट्रपति, दोनों उन्हें नहीं चुनना चाहते थे. राष्ट्रपति नवाज के मन की भी नहीं होने देना चाहते थे. कहते हैं कि नवाज ने राष्ट्रपति से साफ-साफ कह दिया. कि अगर वो यूं ही अलग-अलग करते रहे, तो नवाज का उनके साथ काम करना मुश्किल होगा. इस चेतावनी के बावजूद राष्ट्रपति ने खुद को मजबूत करने के लिए जनरल अब्दुल वाहिद को आर्मी चीफ बनाया.
नवाज के ऊपर
नवाज और गुलाम इशाक खान के झगड़े से सेना दूर रही पहले. फिर नवाज सुप्रीम कोर्ट से अपने पक्ष में फैसला लेकर आए गए. अब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के आपसी कलह में कोई काम नहीं हो रहा था. इसके बाद सेना ने नवाज के ऊपर इस्तीफा देने का दबाव बनाया (फोटो: Getty)

...और फिर नवाज बर्खास्त कर दिए गए इसके बाद तो PM और राष्ट्रपति के बीच सब बिगड़ गया. दोनों के बीच एक-दूसरे को गिराने की होड़ लग गई. इनकी लड़ाई का फायदा उठाकर जनरल अब्दुल वाहिद खुद को मजबूत करने में लग गए. हालांकि ये भी बात थी कि जनरल वाहिद को राजनीति में घुसना पसंद नहीं था. वो इस झगड़े में पड़ना ही नहीं चाहते थे. ये भी बात थी कि उन्हें लोग राष्ट्रपति का आदमी समझ रहे थे. वाहिद इन बातों को खत्म कर अपनी अलग जगह बनाने की कोशिश कर रहे थे. इसी बीच 17 अप्रैल, 1993 की तारीख आई. नवाज ने एक बड़ी गलती कर दी. वो ओवर कॉन्फिडेंस के शिकार हो गए थे. इसी मारे उन्होंने टीवी पर दिए गए एक भाषण में खुलकर राष्ट्रपति इशाक खान की आलोचना कर दी. अगले ही दिन, यानी 18 अप्रैल को नवाज बर्खास्त कर दिए गए. गुलाम इशाक खान ने ज़िया के दौर में हुए संविधान के आंठवें संशोधन के सहारे बेनजीर की सरकार को बर्खास्त किया था. इसी का इस्तेमाल कर राष्ट्रपति ने नवाज को भी बर्खास्त कर दिया. उनके ऊपर भी वही इल्जाम लगाए, जो बेनजीर की सरकार बर्खास्त करते वक्त लगाए थे. कहा, सरकार भ्रष्ट है. इशाक खान ने बलख शेर मजारी को कार्यकारी प्रधानमंत्री बनाया.
अपनी बर्खास्तगी के खिलाफ नवाज कोर्ट चले गए मगर नवाज चुपचाप जाने वालों में नहीं थे. उन्होंने अपनी सरकार को बर्खास्त किए जाने के राष्ट्रपति के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. इस वक्त तक इशाक खान कमजोर दिखने लगे थे. मई 1993 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया. अदालत ने कहा कि इशाक खान द्वारा नवाज सरकार को बर्खास्त किया जाना असंवैधानिक था. कोर्ट के फैसले की वजह से नवाज फिर प्रधानमंत्री बन गए. मगर इससे इशाक खान और नवाज के बीच का संघर्ष खत्म नहीं हुआ. दोनों के झगड़े की वजह से सरकार का कामकाज बिल्कुल नामुमकिन हो गया. कुर्सी दोबारा पाने के बाद नवाज ने कुछ बड़ी गलतियां भी की. उन्होंने पंजाब में गलत तरीके से सत्ता हासिल करने की कोशिश की. असेंबली के सेक्रटरी साहब किडनैप कर लिए गए. मामला अदालत पहुंचा. लाहौर हाई कोर्ट ने नवाज के हक में फैसला दिया. इससे न्यायपालिका की बड़ी जगहंसाई हुई. नाम भी खराब हुआ. स्थितियां ऐसी खराब हुईं कि अब तक तटस्थ रहे आर्मी चीफ को दखलंदाजी करनी पड़ी. आर्मी चीफ ने सोचा, बेहतर होगा नवाज और इशाक दोनों की छुट्टी कर दी जाए. सेना के दबाव में नवाज और इशाक खान, दोनों को इस्तीफा देना पड़ा. सेना के ऊपर तख्तापलट न करने के लिए अमेरिका और यूरोपियन देशों का दबाव था. इशाक की जगह वसीम सज्जाद को कार्यकारी राष्ट्रपति बनाया गया. नवाज की जगह मोइन कुरैशी पाकिस्तान के कार्यकारी प्रधानमंत्री बनाए गए.
अपने दूसरे कार्यकाल में बेनजीर बहुत आक्रामक थीं. बाद में ये बात खुद बेनजीर भी मानती थीं. सत्ता गंवाने के बाद कुछ जगहों पर उन्होंने कहा भी. कि अपने दूसरे कार्यकाल में आसपास की चीजें उनके ऊपर हावी हो गई थीं. अगर आप नवाज और बेनजीर की आपस में तुलना करें, तो आपको बहुत फर्क नहीं मिलेगा. फिर चाहे वो भ्रष्टाचार हो, या फिर लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हावी होने और उन्हें कमजोर बनाने की कोशिश. पावर में बने रहने के लिए दोनों ने ही सही-गलत की परवाह नहीं की (फोटो: Getty)
अपने दूसरे कार्यकाल में बेनजीर बहुत आक्रामक थीं. बाद में ये बात खुद बेनजीर भी मानती थीं. सत्ता गंवाने के बाद कुछ जगहों पर उन्होंने कहा भी. कि अपने दूसरे कार्यकाल में आसपास की चीजें उनके ऊपर हावी हो गई थीं. अगर आप नवाज और बेनजीर की आपस में तुलना करें, तो आपको बहुत फर्क नहीं मिलेगा. फिर चाहे वो भ्रष्टाचार हो, या फिर लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हावी होने और उन्हें कमजोर बनाने की कोशिश. पावर में बने रहने के लिए दोनों ने ही सही-गलत की परवाह नहीं की (फोटो: Getty)

एक और चुनाव अक्टूबर 1993. एक बार फिर पाकिस्तान में चुनाव हुए. बेनजीर भुट्टो दोबारा प्रधानमंत्री बनीं. बेनजीर ने इस बार सेफ खेलने की सोची. उन्होंने अपनी ही पार्टी के नेता फार्रुख लेघारी को राष्ट्रपति नियुक्त किया. बेनजीर इस बार पहले की बेनजीर नहीं थीं. वो आक्रामक होकर लौटी थीं. उन्हें नवाज से अपना बदला लेना था. नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस में नवाज की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (PML-N) की सरकार थी. इसके मुखिया थे सबीर शाह. बेनजीर ने सबीर शाह सरकार को बर्खास्त करवाया और वहां गर्वनर का शासन लगवा दिया. मगर सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला पलट दिया.
बेनजीर के पहले और दूसरे कार्यकाल में बहुत फर्क था पहले कार्यकाल में बेनजीर के पास लोगों की सहानुभूति थी. फिर ये भी था कि वो ज़िया की लंबी तानाशाही के बाद आई थीं. दूसरे कार्यकाल में लोगों की सहानुभूति उनके साथ नहीं रही. लोग कहने लगे कि पाकिस्तान चलाना बेनजीर के बस की नहीं है. इस कार्यकाल में बेनजीर ने गलतियां भी कई गलतियां की. न्यायपालिका के काम में टांग अड़ाने की कोशिश की. राष्ट्रपति के सहारे प्रांतीय सरकारों को हटाने की कोशिश की. इन सबके अलावा कानून-व्यवस्था की हालत भी लगातार बिगड़ती जा रही थी. कराची में हिंसा की घटनाएं बढ़ गईं. आतंकवादी घटनाएं बढ़ गईं. फिर बेनजीर और उनके पति आसिफ अली जरदारी पर भ्रष्टाचार के इल्जाम भी बढ़ते गए.
मुर्तजा की हत्या का शक बेनजीर और उनके पति आसिफ अली जरदारी पर भी गया. मुर्तजा के परिवार ने तो खुलकर जरदारी का नाम लिया. जरदारी पर केस भी चला इसका, लेकिन वो बरी हो गए. मुर्तजा को किसने मारा, ये सवाल आज भी सवाल ही है. ये अस्पताल की तस्वीर है. डॉक्टर मुर्तजा की लाश साफ कर रहे हैं (फोटो: AP)
मुर्तजा की हत्या का शक बेनजीर और उनके पति आसिफ अली जरदारी पर भी गया. मुर्तजा के परिवार ने तो खुलकर जरदारी का नाम लिया. जरदारी पर केस भी चला इसका, लेकिन वो बरी हो गए. मुर्तजा को किसने मारा, ये सवाल आज भी सवाल ही है. ये अस्पताल की तस्वीर है. डॉक्टर मुर्तजा की लाश साफ कर रहे हैं (फोटो: AP)

और फिर बेनजीर के भाई मुर्तजा पुलिस मुठभेड़ में मारे गए इन सबके बीच ये भी हुआ कि बेनजीर के छोटे भाई मुर्तजा कराची में एक पुलिस मुठभेड़ के दौरान मारे गए. इस एनकाउंटर में उनके सात सहयोगी भी कत्ल कर दिए गए. ये 20 सितंबर, 1996 की बात है. शक की अंगुली बेनजीर और उनके पति आसिफ अली जरदारी पर उठी. मुर्तजा के पास लोगों की सहानुभूति थी. जब जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर चढ़ाया गया, तब मुर्तजा ऑक्सफर्ड में पढ़ाई कर रहे थे. पिता की हत्या के बाद मुर्तजा और उनके भाई शहनवाज ने पढ़ाई छोड़ दी. पिता की हत्या का बदला लेने के लिए हथियार उठा लिया.
1979 में ही इन्होंने अल-जुल्फिकार नाम का एक संगठन भी बनाया. मार्च 1981 में इस अल-जुल्फिकार ने पाकिस्तान इंटरनैशनल एयरलाइन्स के एक विमान को हाइजैक किया. ये विमान पेशावार से कराची जा रहा था. उन्होंने पाकिस्तान की जेल में बंद लगभग 55 राजनैतिक कार्यकर्ताओं को रिहा किए जाने की मांग की. ज़िया को उनकी ये मांग माननी पड़ी. उस समय बेनजीर कराची जेल में बंद थीं. उन्होंने इस हाइजैकिंग की निंदा की थी. 1993 में मुर्तजा पाकिस्तान लौटे थे. उनकी पार्टी PPP- शहीद भुट्टो ने सिंध में चुनाव भी लड़ा. कुछ खास तो नहीं कर पाए वो इलेक्शन में. हां, अपनी बहन बेनजीर और जीजा आसिफ अली जरदारी की जमकर आलोचना जरूर करते थे. इसीलिए जब मुर्तजा की हत्या हुई, तो बेनजीर पर सवाल उठना स्वाभाविक था. जरदारी पर तो बाद में मुर्तजा की हत्या करवाने का केस भी चला. लेकिन 2008 में वो बरी हो गए. मुर्तजा की हत्या वाले दिन का एक विडियो नीचे देखिए-

'इंकी पिंकी पॉन्की, हर हजबैंड इज अ डॉन्की' बेनजीर कहती थीं कि उनके और मुर्तजा के बीच सब ठीक है. ये अलग बात थी कि मुर्तजा जब पाकिस्तान लौटे थे, तब बेनजीर ने ही उन्हें गिरफ्तार करवाया था. बेनजीर कहती थीं कि उन्हें भाई से बस एक दिक्कत है. कि वो आतंकवादी है. इसके अलावा कोई शिकायत नहीं. मगर ये सच नहीं था. भाई और बहन के बीच कुछ ठीक नहीं था. मुर्तजा जब भी अपनी बहन के बारे में बात करते, अक्सर उन्हें 'मिसेज जरदारी' कहकर पुकारते. मानो वो लोगों को याद दिला रहे हों. कि बेनजीर अब भुट्टो नहीं, जरदारी हैं. उधर बेनजीर शादी के बाद भी अपने पिता का सरनेम 'भुट्टो' इस्तेमाल करने की सफाई ये देतीं कि वो फेमिनिस्ट हैं. वो फेमिनिस्ट रही हों शायद, लेकिन नाम के साथ भुट्टो लगाने की उनकी वजह अलग थी. नाम के साथ लगा भुट्टो सरनेम ही तो बेनजीर की राजनीति का आधार था. वो अपने पिता के पहचान की वजह से ही तो वहां पहुंची थीं. मुर्तजा और उनकी बड़ी बहन के बीच चीजें कितनी कड़वी थीं, इसका अंदाजा आपको फातिमा भुट्टो की किताब 'सॉन्ग्स ऑफ ब्लड ऐंड सॉर्ड' पढ़कर होता है. फातिमा मुर्तजा की बेटी हैं. इस किताब में उन्होंने अपने पापा की लिखी एक चिट्ठी का जिक्र किया है. चिट्ठी में मुर्तजा फातिमा को एक कविता याद दिलाते हैं. जो वो बचपन में बोला करती थीं. वो कविता थी-
इंकी, पिंकी, पॉन्की हर हजबैंड इज अ डॉन्की बोथ लूट द कंट्री हर हजबैंड इज अ मंकी इंकी, पिंकी पॉन्की 
अगर आपका सवाल है कि इस कविता में क्या है, तो सुनिए. बेनजीर को उनके घरवाले प्यार से पिंकी कहते थे. अब समझिए कि इस कविता में बेनजीर और उनके पति आसिफ अली जरदारी के बारे में क्या कहा गया है.
दोबारा बर्खास्त हो गईं बेनजीर भुट्टो बेनजीर के खिलाफ वैसे भी माहौल बन रहा था. मुर्तजा की हत्या ने बेनजीर को और कमजोर कर दिया. उनके पति आसिफ अली जरदारी की भ्रष्ट छवि ने भी बेनजीर को बहुत नुकसान पहुंचाया. 5 नवंबर, 1996 को बेनजीर की अपनी ही पार्टी के नेता, उनके हाथों चुने गए राष्ट्रपति फार्रुख लेघारी ने उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया. उनके खिलाफ इल्जाम थे- कराची में हो रही हिंसा, केंद्रीय संस्थाओं के प्रति असम्मान, न्यायपालिका की अवमानना और भ्रष्टाचार. राष्ट्रपति के इस फैसले को बेनजीर ने अदालत में चुनौती दी. वहां सज्जाद अली शाह थे. चीफ जस्टिस. बेनजीर और सज्जाद के बीच एक वक्त काफी दोस्ती थी. लेकिन फिर दोनों छिटक गए. वही हुआ, जिसकी उम्मीद थी. सुप्रीम कोर्ट ने बेनजीर को बर्खास्त किए जाने के फैसले को बरकरार रखा. फैसला सुनाते हुए सज्जाद बोले- बेनजीर सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और अव्यवस्था के आरोप साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं. जवाब में बेनजीर ने कहा-
मैं जानती थी कि अदालत मेरे खिलाफ फैसला सुनाएगी. जब भी भुट्टो परिवार का कोई शख्स कोर्ट जाता है, तब फैसला हमारे खिलाफ ही आता है.
हालांकि ये भी कहते हैं कि बेनजीर को अमेरिका के दबाव में बर्खास्त किया गया था. शायद इसलिए कि वो अफगानिस्तान के साथ दोस्ती बढ़ाने की कोशिश कर रही थीं. बेनजीर दो बार प्रधानमंत्री बनीं. दोनों ही बार बर्खास्त की गईं. दोनों ही बार उनके ऊपर भ्रष्टाचार के इल्जाम लगे. दोनों ही बार वो अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाईं. बतौर प्रधानमंत्री बेनजीर की ये आखिरी पारी थी. अब उन्हें अगला मौका नहीं मिलने वाला था.
1997 में बेनजीर की पार्टी का मनोबल जमीन में लोट रहा था जैसे. मानो उन्हें जीत की कोई उम्मीद ही नहीं थी. इस दौर में लगातार यही हो भी रहा था. बेनजीर सत्ता में, तो नवाज विपक्ष में. फिर नवाज सत्ता में, तो बेनजीर विपक्ष में. 1997 के चुनाव में नवाज को भारी बहुमत मिला (फोटो: Getty)
1997 में बेनजीर की पार्टी का मनोबल जमीन में लोट रहा था जैसे. मानो उन्हें जीत की कोई उम्मीद ही नहीं थी. इस दौर में लगातार यही हो भी रहा था. बेनजीर सत्ता में, तो नवाज विपक्ष में. फिर नवाज सत्ता में, तो बेनजीर विपक्ष में. 1997 के चुनाव में नवाज को भारी बहुमत मिला (फोटो: Getty)

1997 में फिर चुनाव हुआ, फिर नवाज शरीफ लौटे बेनजीर गईं. तय हुआ कि पाकिस्तान में फिर चुनाव होंगे. फरवरी 1997 में पाकिस्तानी जनता ने फिर वोट डाला. इस बार नवाज शरीफ की पार्टी PML-N को बंपर जीत मिली. उन्हें दो-तिहाई बहुमत मिला. 1977 के बाद ये पहली बार था, जब किसी पार्टी को इतना बड़ा बहुमत मिला. इस चुनाव में इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ ने भी हिस्सा लिया था. मगर उनकी पार्टी को नैशनल असेंबली में एक भी सीट नहीं मिली.
बेनजीर और नवाज, लोकतंत्र के नाम पर कई सालों तक पाकिस्तान के पास बस यही दो चेहरे थे. अब बेनजीर नहीं हैं. फिर भी पाकिस्तान की राजनीति दो शख्सों के इर्द-गिर्द घूम रही है- नवाज के सामने अब इमरान खान हैं (फोटो: Getty)
बेनजीर और नवाज, लोकतंत्र के नाम पर कई सालों तक पाकिस्तान के पास बस यही दो चेहरे थे. अब बेनजीर नहीं हैं. फिर भी पाकिस्तान की राजनीति दो शख्सों के इर्द-गिर्द घूम रही है- नवाज के सामने अब इमरान खान हैं (फोटो: Getty)

जाते-जाते
दो दुश्मन, दो किस्से
नवाज शरीफ
नवाज को नरगिस और वहीदा रहमान बहुत पसंद हैं. उनके लिए हीरो का मतलब, दिलीप कुमार. उनको रफी के गाने भी बहुत पसंद हैं. शास्त्रीय संगीत की भी बड़ी दीवानगी है उनके अंदर. पाकिस्तान की लीडर सैयदा आबिदा हुसैन ने अपनी किताब 'पावर फेलियर: द पॉलिटिकल ऑडिसी ऑफ अ पाकिस्तानी वुमन' में एक वाकया बताया है. पढ़िए, क्या है-
नवाज ने फिल्मों में तकदीर आजमाने की कोशिश की थी. लेकिन कामयाब नहीं हुए. मगर राजनीति में आने के बाद भी फिल्मों का उनका चाव खत्म नहीं हुआ. ये उन दिनों की बात है, जब नवाज पंजाब के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. उस समय नवाब अकबर बुगती बलूचिस्तान के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने क्वेटा में विपक्षी पार्टियों की एक मीटिंग बुलाई. नवाज ने कहा कि उन्हें एक जरूरी फोन करना था. ये कहकर वो बुगती का फोन इस्तेमाल करने उनके दफ्तर की तरफ चले गए. बहुत देर हो गई, लेकिन नवाज लौटकर नहीं आए. आबिदा को भेजा गया, कि देखकर आओ नवाज कहां रह गए. आबिदा बुगती के दफ्तर की तरफ बढ़ीं. वहां उन्हें बुगती के पर्सनल सेक्रटरी खड़े दिखे. उन्होंने आबिदा को बताया कि नवाज अंदर फोन पर किसी से बात कर रहे हैं और उसको गाना गाकर सुना रहे हैं.
बेनजीर भुट्टो ज़िया ने भुट्टो परिवार के साथ क्या नहीं किया. इससे ज्यादा दुश्मनी कोई क्या ही निभाएगा. बेनजीर को ज़िया से भले जितनी भी दिक्कत रही हो, एक बात पर वो ज़िया की मुरीद थीं. कहती थीं, ज़िया ने एक काम तो अच्छा किया. पंजाब और कश्मीर में अलगाववाद को हवा दी. उनको बांग्लादेश बड़ा सालता था. कहतीं, 1971 में भारत के हाथों मिली हार की शर्मिंदगी पाकिस्तान कभी नहीं भूलेगा. तो इस शर्मिंदगी का इलाज क्या था? बदला! हां, शायद इसीलिए बेनजीर ने बतौर प्रधानमंत्री अपने पहले कार्यकाल में जम्मू-कश्मीर के अंदर स्थितियां खराब करने में खूब बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. इसी का एक किस्सा है. एक दिन बेनजीर टीवी पर नजर आईं. आपने किसी को कुछ काटते देखा है. वो काटने का अंदाज याद कीजिए. उस दिन बेनजीर ने ऐसा ही किया. उनका दाहिना हाथ उनके बायें हाथ की कलाई से होते हुए कोहनी तक बढ़ रहा था. मानो, हाथ न हो कोई चॉपिंग बोर्ड हो. और बेनजीर ने अपने दाहिने हाथ को चाकू बना लिया हो. वो यूं ही काटने का इशारा करते हुए बोलीं- जग जग, मो मो, हन हन. उस समय कश्मीर के गवर्नर थे जगमोहन. साफ था कि बेनजीर क्या कह रही थीं. वो जैसे कश्मीरियों को संदेश दे रही थीं. कि जगमोहन को काट डालो.
ये बेनजीर का डिफेंस मकेनिज्म था. उनके विरोधी उनको बाहरी साबित करने पर तुले थे. वो खुद को देशभक्त साबित करने की जी-तोड़ कोशिश कर रही थीं. खुद को सच्चा देशभक्त साबित करने के लिए भारत-विरोध से श्योर शॉट और आसान तरीका और क्या हो सकता था उनके लिए. आखिरकार, वो पाकिस्तान की वजीर थीं.


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भारत के आर्मी चीफ ने गलत जानकारी न दी होती, तो उस साल भारत लाहौर जीत जाता!
पाकिस्तान के खिलाफ अपने दोस्त की मदद के लिए भारत ने अपना ही प्लेन हाइजैक करवा दिया!
वो जंग, जहां पाकिस्तान के एक पत्रकार ने अपने मुल्क के खिलाफ जाकर भारत की सबसे बड़ी मदद कर दी
भारत के जिस आर्मी अफसर ने पाकिस्तान को सबसे बड़ी शर्मिंदगी दी, वो जिंदगी भर कुवांरा रहा
वो PM जिसे फांसी देने के बाद नंगा करके तस्वीर ली गई, ताकि पता चले खतना हुआ था कि नहीं
वो तानाशाह, जो आग में झुलसकर ऐसी बुरी मौत मरा कि लाश भी पहचान नहीं आ रही थी


करगिल वॉर की अनोखी कहानियां। । दी लल्लनटॉप शो।

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