"हम लोगों को जो भी बौद्ध ज्ञान मिला, वो सब नालंदा से आया था." ये बयान दिया था तिब्बत के आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा ने. प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय को दुनिया का पहला रेजिडेंशियल यूनिवर्सिटी कहा जाता था. यहां मेडिसिन, तर्कशास्त्र (Logic), गणित और बौद्ध सिद्धांतों की पढ़ाई होती थी. अब इसी नालंदा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नालंदा यूनिवर्सिटी के नए कैंपस का उद्घाटन किया है. प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की विरासत को पुनर्जीवित करने का ये प्रयास नया नहीं है. और विवादों से खाली भी नहीं है. इस कड़ी में अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आजाद का भी नाम आता है.
नालंदा यूनिवर्सिटी से क्यों अलग हो गए थे अब्दुल कलाम और अमर्त्य सेन?
PM Modi inaugurates Nalanda University: नालंदा यूनिवर्सिटी को पुनर्जीवित करने का आइडिया Ex President Abdul Kalam Azad का था. Economist Amartya Sen को इसका पहला चांसलर बनाया गया था. लेकिन बाद में दोनों ने खुद को इससे अलग कर लिया.
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साल 2006. देश के राष्ट्रपति थे- अब्दुल कलाम आजाद. बिहार विधानमंडल के एक संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए कलाम ने कहा कि नालंदा यूनिवर्सिटी को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए. तब बिहार के मुख्यमंत्री थे- नीतीश कुमार, जो अब भी बिहार के मुख्यमंत्री हैं. उन्होंने कलाम के इस आइडिया को सपोर्ट किया. 2007 में बिहार विधानसभा से नए विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए एक विधेयक पारित कराया गया.
तब देश के प्रधानमंत्री थे- मनमोहन सिंह. उनकी सरकार ने इसका जिम्मा दिया नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन को. उनकी अध्यक्षता में नालंदा मेंटॉर ग्रुप की स्थापना की गई. इस ग्रुप में लॉर्ड मेघनाद देसाई, प्रोफेसर सुगाता बोस और एनके सिंह जैसे लोग शामिल थे. 21 अगस्त 2010 को राज्यसभा में और 26 अगस्त 2010 को लोकसभा में नालंदा विश्वविद्यालय विधेयक पारित हुआ. इस प्रोजेक्ट को 2,000 करोड़ से अधिक का बजट मिला.

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नालंदा यूनिवर्सिटी से क्यों अलग हुए कलाम?इकोनॉमिक टाइम्स (ET) ने 2011 में इस मसले पर रिपोर्ट करते हुए लिखा था कि इस प्रोजेक्ट का आइडिया अब्दुल कलाम के दिमाग की उपज थी. और 16 देशों के पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन ने इसे सपोर्ट किया था. कलाम विश्वविद्यालय के विजिटर थे. इसका मतलब था कि वो आधिकारिक तौर पर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति और उप-कुलपति की नियुक्ति करते. इसके बावजूद 15 सितंबर 2011 को नालंदा यूनिवर्सिटी के विजिटर अब्दुल कलाम ने खुद को इस प्रोजेक्ट से अलग कर लिया.
आधिकारिक रूप से इसका कारण कभी सार्वजनिक नहीं किया गया. लेकिन कुछ मीडिया संस्थानों ने इस बारे में रिपोर्ट किया. इकोनॉमिक टाइम्स ने लिखा,
"कुछ ऐसी चीजें हुईं जो विवाद का विषय बन गईं. नालंदा मेंटॉर ग्रुप ने गोपा सभरवाल को विश्वविद्यालय का वाइस चांसलर नियुक्त करने की सिफारिश की. सभरवाल दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में समाजशास्त्र की रीडर थीं (तब). इस प्रोजेक्ट को संभाल रहे विदेश मंत्रालय ने उनकी नियुक्ति को स्वीकार कर लिया. पिछले एक साल से सभरवाल विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर की तरह ही काम कर रही थीं. क्योंकि यूनिवर्सिटी के विजिटर यानी अब्दुल कलाम ने उनकी नियुक्ति को औपचारिक रूप नहीं दिया था. इससे पहले इस पद को इतिहासकार रामचंद्र गुहा और राजनीतिशास्त्री प्रताप भानु मेहता ने कथित रूप से ठुकरा दिया था."
दूसरी तरफ पटना के शिक्षाविदों और पत्रकारों ने सभरवाल की क्षमता पर भी सवाल उठाए. सभरवाल ने ET को बताया था कि नालंदा मेंटॉर ग्रुप को किसी को भी नियुक्त करने का स्वतंत्र अधिकार दिया गया था. और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) या मानव संसाधन विकास मंत्रालय के दिशा-निर्देश इस पर लागू नहीं होते थे. सभरवाल ने कहा था कि उन्हें नहीं पता कि अन्य उम्मीदवार भी मैदान में हैं या नहीं. या समूह ने उनकी नियुक्ति के लिए किस प्रक्रिया का पालन किया है.
अमर्त्य सेन चांसलर बनेसाल 2012 में अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन को नालंदा यूनिवर्सिटी का पहला चांसलर बनाया गया. सितंबर 2014 में यूनिवर्सिटी का पहला सत्र शुरू हुआ. जुलाई 2015 में चांसलर के तौर पर उनका कार्यकाल खत्म हो गया. लेकिन वो यूनिवर्सिटी की गवर्निंग बोर्ड के सदस्य थे. साल 2016 में PM नरेंद्र मोदी के मुखर आलोचक सेन का नालंदा यूनिवर्सिटी से करीब एक दशक पुराना नाता टूट गया. उन्होंने गवर्निंग बोर्ड से खुद को अलग कर लिया. तब के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गवर्निंग बोर्ड के पुनर्गठन को मंजूरी दी थी. विश्वविद्यालय के विजिटर के तौर पर और नालंदा विश्वविद्यालय अधिनियम 2010 के प्रावधानों के अनुसार उन्होंने ये बदलाव किया.
इससे पहले फरवरी 2015 में अमर्त्य सेन ने एक ऐसा बयान दिया था जिसकी खूब चर्चा हुई थी. सेन ने कहा था कि वो नालंदा यूनिवर्सिटी के चांसलर के तौर पर अपना काम जारी नहीं रखना चाहते. इसका कारण उन्होंने ‘राजनीतिक हस्तक्षेप’ को बताया. उन्होंने कहा,
"भाजपा सरकार नहीं चाहती कि वो इस पद पर बने रहें."
सेन के बाद अस्थायी रूप से ये जिम्मा गोपा सभरवाल को दिया गया. इसके बाद 27 अगस्त 2016 को पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नालंदा के प्राचीन स्थल के पास पिलखी गांव में स्थायी परिसर की आधारशिला रखी. नवंबर 2016 में उन्होंने नालंदा मेंटॉर ग्रुप को खत्म कर दिया और दो दिनों के अंदर सभरवाल को इस्तीफा देने के लिए कहा गया. उन्होंने इस्तीफा दिया और फिर इसके कुछ दिनों बाद सिंगापुर के पूर्व विदेश मंत्री जॉर्ज यो ने भी वाइस चांसलर के पद से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने कहा कि उन्हें गवर्निंग बोर्ड के पुनर्गठन के फैसले में उनकी राय नहीं ली गई.
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