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भोजपुरी गानों की वो सिंगर, जिसने आज तक कोई अश्लील गाना नहीं गाया

अब सरकार ने इन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया है.

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मंच पर शारदा सिन्हा
डॉ. अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
डॉ. अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी

डॉ. अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी. शिक्षक और अध्येता. लोक में खास दिलचस्पी, जो आपको यहां दिखेगी. अमरेंद्र हर हफ्ते हमसे रू-ब-रू होते हैं. 'देहातनामा' के जरिए. पेश है इसकी इक्कीसवीं किस्त:

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शारदा सिन्हा को पद्म भूषण मिलने की ख़बर ने भीतर तक ख़ुश कर दिया है. जब मैंने यह खबर पाई, उस वक़्त पचीस जनवरी की रात बीतने-बीतने को थी और 26 जनवरी 2018 का सबेरा पूरे भारत को फिर गणतंत्र की सुबह देने की ख़ुशी में आने-आने को. एक लोकसंगीत प्रेमी के दिल का उद्गार रखूं, तो यह 26 जनवरी और खिल उठी. अपने अखिल भारतीय उत्साह में ज़रा और सांगीतिक.

यह सम्मान इस वक़्त के एक अत्यंत सुरीले कंठ का सम्मान है. सम्मान की हकदार, अपने समय की एक 'यूनीकनेस' का सम्मान है. लोकसंगीत में शारदा सिन्हा वैसे ही अनोखी हैं, जैसे पार्श्वगायन में लता मंगेशकर. जैसे शास्त्रीय गायन में पंडित भीमसेन जोशी. जैसे ग़ज़ल और ठुमरी गायन में बेगम अख्तर साहिबा. शारदा सिन्हा की अनूठी उपलब्धि का अनदेखा रह जाना कई मायनों में वर्तमान के लोकसंगीत और लोकगायन के प्रति अनदेखी होती. इस रूप में उन्हें पद्म भूषण दिए जाने की घोषणा संपूर्ण लोकसंगीत के लिए एक गौरवपूर्ण क्षण है. लोकसंगीत की महिमा का स्वीकार तो है ही.

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भोजपुरी भाषा की लोकगायिका के रूप में शारदा सिन्हा को विशेष ख्याति मिली है. यद्यपि उन्होंने बड़े आकर्षक मैथिली लोकगीत भी गाए हैं. ग़ज़लों और कुछ कविताओं को भी अपना कंठ दिया है. हिन्दी फिल्मों में भी कुछ गीत गाए हैं. भोजपुरी के अलावे दूसरी भाषाओं में उनका गायन उत्कृष्ट भी है, लेकिन भोजपुरी लोकगीतों के बहाने उनकी चर्चा अधिकाधिक रही. इसका पहला कारण उत्तर भारत में भोजपुरी भाषी समाज का बहुतायत में होना है. उत्तर प्रदेश और बिहार, दोनों प्रदेशों में. साथ ही, ये लोग जीविका और दूसरे कारणों से देश में दूर-दूर तक फैले भी हैं.

दूसरा कारण यह कि भोजपुरी गायन और अश्लीलता को एक-दूसरे का पर्याय माने जाने वाले समय में शारदा सिन्हा का भोजपुरी लोकगायन जितनी बड़ी चुनौती रही, उतनी ही बड़ी आश्वस्ति भी. वे अकेली ऐसी भोजपुरी की अत्यधिक लोकप्रिय लोकगायिका हैं, जिन्होंने पिछले कई दशकों में एक भी ऐसा गाना नहीं गाया, जिस पर अश्लील होने का आरोप लग सके. इससे बहुत से भोजपुरी और गैर-भोजपुरी भाषियों ने, जो ख़ुद को परिष्कृत रुचि का मानते हैं, उनके लोकगीतों को ख़ूब सुना और सराहा.

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बहुत से लोग शारदा सिन्हा के गाने सुनकर लोकसंगीत के प्रेमी बन गए. उनकी आवाज़ के जादू में जो एक बार बंध जाए, उसके ऊपर से उसका असर नहीं उतरता. जिसे संगीत के व्याकरण की कोई जानकारी न हो, सुर की पहचान से भी कोई ख़ास वास्ता न रहा हो, वह भी एक बार उनके गीतों को सुनकर उसके प्रभाव की गिरफ़्त में हमेशा-हमेशा के लिए आ जाता. जिस तरह लोककविता बिना पिंगल जाने व्यक्ति को भी अपने असर में खींच लेती है, उसी तरह लोकसंगीत भी. या शायद कहीं अवचेतन में संगीत का कोई तार पड़ा होता है, जिससे व्यक्ति ख़ुद अनजान रहता है और ज्यों ही लोकगीत या शारदा सिन्हा के गीत सुनता है, वह तार ख़ुद उसे सांगीतिक आनंद से जोड़ देता है.


अपनी क्रिएटिव टीम के साथ शारदा
अपनी क्रिएटिव टीम के साथ शारदा

हिन्दी प्रदेश का कौन-सा लोकगीत प्रेमी होगा, जिसने 'प्रीति-पगा हो' न गुनगुनाया होगा- पिरितिया काहे न लगवले, बेकल जिया रहलो न जाय.
बियोग की हूक ने किसे नहीं साला होगा- कइनी हम कवन कसूर नयनवो से दूर कइला बलमू.
और यह जो है- 'पनिया की जहाज से पलटनिया बने अइहा पिया, ले ले अइहा हो, पिया सेंदुर बंगाल के'.
इसे सुनते हुए जब किसी 'गिरमिटिया एक्ट' के चलते मॉरीशस, सूरीनाम जैसी और दूसरी जगहों पर जी रहे मज़दूर और उसकी पत्नी या प्रिया की ख्वाहिशें याद आती हैं, तो दिल सागर की अतल गहराइयों में डूबने लगता है.

उन्हें नहीं पता होता था कि उनका प्रिय या पति लौटेगा भी या नहीं और लौटेगा भी तो कैसे, किस हालत में. लेकिन आकांक्षाएं और भरोसे मिलकर उनकी जिजीविषा का रूप ले लेते थे. इस गीत को शारदा सिन्हा की आवाज़ में सुनना, सुनते हुए सुर की दुनपर्त में ठहरना और आगे बढ़ना, सागर में हिचकोले लेते जहाज को महसूसने जैसा भी है.

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स्थानांतरण (माइग्रेशन) का दर्द शारदा सिन्हा के लोकगीतों में अहसास या अनुभूति की फैलहर भूमि है. यह स्थानांतरण नया नहीं है. परंपरा से होता आया है. इस परंपरा में अनेक मुंतजिर आंखें हैं, जो अपने प्रिय या पति की राह निहारते-निहारते पथरा गईं. ऐसे कई घर हैं, जो तबाह हो गए. ऐसे नौजवान हैं, जो कभी घर न जा पाए. इन गानों में स्थानांतरण की स्मृति और वर्तमान दोनों है, इसलिए प्रभाव सघन है. अनुभूति तीव्र है. जो लोग अपने घर-बार को छोड़कर दूर-दूर रह रहे हैं, उन्हें यह अनुभूति गहरे छूती है. शारदा सिन्हा की गाई एक पूरबी में, पुजारी बाबा से नायिका की इंतिज़ार में 'थकल अंखियां' पूछती हैं-


'सपना में देखनी हम, सैंया के सुरतिया, ए पुजारी बाबा, भूलि गइले सूरति हमार, ए पुजारी बाबा, कबु अइहैं सैंया जी हमार, ए पुजारी बाबा!'

महिन्दर मिसिर के लिखे एक दूसरे लोकगीत की नायिका 'दुनहूं परानी' साथ ही रहने की सोचती है, जगह-बदल का झंझट ही न रहे-


'कहत महिन्दर मिसिर सुना दिलजानी केकरा से आगि मांगी, केकरा से पानी मिलके रहब जानी, दूनिउ परानी...'

यहां 'आग-पानी' अपने अर्थ की मार दूर तक रखते हैं, लेकिन अश्लीलता नहीं दिखने पाती.

दूसरे कई भोजपुरी गायकों ने भी माइग्रेशन के दर्द को रखने की कोशिश की, लेकिन गीत-संगीत का जो सलीका शारदा सिन्हा के यहां है, वह कहीं और नहीं निभ पाया. यह गीत-संगीत अपनी पारंपरिक ऊर्जा के साथ सुनने वाले को अनुभूति की गहराई तक ले जाता है. वहीं दूसरे कई लोकगायकों के यहां इस बात का ध्यान नहीं रखा गया है. जिन लोकगीतों में 'तनी आ जा डीयर, पिया तारा बीयर...'
जैसी चाल-चलन है, वे अपने असर में हवा-हवाई साबित होते हैं. ऐसे लोकगीत और लोकगायक आंधी की तरह आते हैं, तूफान की तरह चले जाते हैं. टिकते नहीं.

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एक महिला लोकगायक के रूप में शारदा सिन्हा को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा, हम इसका सहज ही अनुमान कर सकते हैं. जब उन्होंने गाना शुरू किया था, तब का समाज अब से ज्यादा रूढ़ियों और बंदिशों वाला था. उनके साक्षात्कारों को पढ़ना-सुनना इस लिहाज से उपयोगी और ज्ञानवर्धक है. अपने पहले लखनऊ में हुए HMV के ऑडिशन के बारे में बताती हैं कि पहली बार वे असफल हो गई थीं. बहुत दुख हुआ था. फिर दूसरे दिन मौका मांगा, ऑडिशन के लिए. किसी तरह मौका मिला. आगे की कहानी बताते हुए वे कहती हैं,


"मेरी खुशकिस्मती थी कि जिस दिन मैंने दूसरी बार ऑडिशन दिया, उस दिन ऑडिशन बूथ पर बेगम अख़्तर बैठी थीं. उन्होंने मुझे बुलाया, मेरी पीठ थपथपाई. आशीर्वाद दिया. उन्होंने कहा कि बेटा तुम्हारी आवाज़ बहुत अच्छी है, तुम रियाज करोगी तो बहुत आगे जाओगी. इस तरह मैं पास हो गई."

कहना न होगा कि एक असाधारण गायिका से आशीर्वाद पाकर खुद असाधारण गायिका बनकर शारदा सिन्हा ने सफलता और सार्थकता की सुन्दर कहानी लिख दी.

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लोकगीतों के 'विजुअलाइजेशन' को लेकर शारदा सिन्हा सहज नहीं हैं. यह उनका गौरतलब विचार है. उनका मानना है कि 'लोकगीतों को जो विजुअलाइज किया जाता है आजकल, उन चीज़ों से मुझे तकलीफ़ होती है. इसलिए कि हमारी जो परंपरा है, उसमें कमी नहीं है. बहुत कुछ है. उसको ज़रूरत है आगे लाने की. उसमें हम कुछ मॉडर्न टच दें, लेकिन उसकी जो टिपिकैलिटी है, उसको बरकरार रखें. ये मेरी ख्वाहिश रहती है...'

इस बात पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है. लोकगीत सुनने से अलग या उसके साथ-साथ, देखने की चीज़ भी बन रहे हैं, तो उनका कितना हित-अहित हो रहा है. क्या और जागरूक होकर विजुअलाइजेशन पर काम करने की ज़रूरत नहीं है? विजुअलाइजेशन लोकगीत को एक व्याख्या भी दे देता है, इससे उसकी अनुभूति और अर्थ की कई तहें ख़त्म भी हो जाती हैं. यह भी ध्यान देने वाली बात है कि जिस अश्लीलता का जिक्र भोजपुरी लोकगीतों के संदर्भ में बार-बार होता है, वह विजुअलाइजेशन के बाद अधिक तेज़ रफ़्तार से फैली.

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आज शारदा सिन्हा उपलब्धि की जिस मंजिल पर हैं, वहां वे किसी शॉर्टकट से नहीं पहुंचीं. इस तरह वहां पहुंचा भी नहीं जा सकता. लोकगीतों के नाम पर 'फूहड़ गायन' को कई भोजपुरी (और दूसरे भी) लोकगायकों ने शॉर्टकट की तरह इस्तेमाल किया. बेशक उन्हें थोड़े समय में काफी लोकप्रियता मिली, लेकिन इससे अपने लंबे समय का रास्ता उन्होंने खुद ही रूंध लिया. शारदा सिन्हा को मिला यह पद्मभूषण भोजपुरी के ऐसे जल्दबाज और मौकापरस्त लोकगायकों के लिए सीखने के अवसर की तरह भी है.




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