पश्चिम बंगाल का बांकुरा जिला. यहां का बेलियाटोर गांव. यहीं जन्मे जामिनी रॉय. 14 अप्रैल 1887 को. कलकत्ता के गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड क्राफ्ट से पढ़ाई की. ये वो समय था जब अधिकतर आर्टिस्ट्स पश्चिमी आर्ट से प्रभावित थे, और वैसी तस्वीरें बना रहे थे जिनमें इटैलियन ऑयल पेंटिंग, या क्लासिकल न्यूड आर्ट (जिसमें नग्न मानव शरीर को कला के ऑब्जेक्ट के रूप में दिखाया जाता है) ज़्यादा दिखाई देती थी. जामिनी ने लोगों की तस्वीरें यानी पोर्ट्रेट बनाकर अपना काम शुरू किया, लेकिन उसमें उनका मन नहीं रमा. ये काम बंद कर के फ़ोक आर्ट (लोककला) की तरफ बढ़ गए. ये बात 1920 के दशक की है. वहां से उन्होंने प्रेरणा ली, और संथालों के नृत्य से जुड़ी तस्वीरें बनाने लगे. संथाल झारखंड और आस-पास के इलाके में रहने वाली जनजाति हैं.

1940 का दशक आते-आते जामिनी का काम न सिर्फ भारत, बल्कि यूरोपी कद्रदानों के बीच भी काफी पॉपुलर हो चुका था. शुरू-शुरू में उन्होंने कालीघाट पट्टचित्र से प्रभावित होकर चित्र बनाए. कालीघाट पेंटिंग पश्चिम बंगाल (उस समय बंगाल) के गांव-देहातों में पॉपुलर कला थी. इसमें हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र कपड़े के टुकड़ों (पट्ट) पर बनाए जाते थे. इन चित्रों को बनाने वालों को ‘पटुआ’ कहा जाता था. ये अपने बनाए हुए चित्रों की बिक्री करने निकलते थे, तो उनसे जुड़ी कहानियां भी गाते हुए, सुनाते हुए चलते थे. जामिनी गांव के इन कलाकारों से भी गुर सीखने पहुंचे थे.

कला से प्रेम, नाम से नहीं
जामिनी रॉय के सबसे छोटे बेटे मोनी रॉय बताते हैं,
मेरे पिता ये सुनिश्चित करते थे कि जो लोग उनकी पेंटिंग्स खरीद रहे हैं, उनको कला में सच में इंट्रेस्ट हो. ऐसा कई बार हुआ जब उन्होंने लोगों से अपनी पेंटिंग्स वापस खरीद ली थी. क्योंकि उन लोगों ने पेंटिंग्स का ध्यान नहीं रखा था. जो लोग सिर्फ उनके नाम के चलते उनकी पेंटिंग्स खरीदने आते थे, उन्हें लौटा दिया जाता था.मौनी ने एक बहुत रोचक कहानी सुनाई. बात 1943 की है. बागबाजार के उनके घर में प्रदर्शनी लगी थी. जामिनी की पेंटिंग्स की. सात विदेशी लोग एक ही पेंटिंग पर रीझ गए. और उसे खरीदने पर अड़ गए. कोई पीछे हटने को तैयार नहीं था. फिर जामिनी ने उन्हें इंतज़ार करने को कहा, और सात अलग-अलग पेंटिंग्स बना दीं. उसी विषय पर. केवल हलके से अंतर के साथ. सभी को उनकी पसंद की पेंटिंग्स मिल गईं और वो ख़ुशी-ख़ुशी लौट गए.

पचानन पंडा, जो जामिनी के साथ उनके घर में रहते थे और उनके लिए रंग वगैरह मिलाकर लाते थे, बताते हैं कि जब 1970 में जामिनी बीमार पड़े तब घर में तकरीबन हजार पेंटिंग्स पड़ी हुई थीं, जिन पर उनके साइन नहीं थे. तकरीबन 20 हजार पेंटिंग्स बनाने वाले जामिनी ने अपनी पेंटिंग्स को कभी भी महंगे दामों पर नहीं बेचा. अपने जीते-जी अपनी किसी पेंटिंग के लिए साढ़े तीन सौ रुपये से ज्यादा नहीं लिए.
आज भी इनकी पेंटिंग्स कम दामों में मिल जाती हैं. इसके पीछे वजह ये बताई जाती है कि उनके काम से मिलता-जुलता फेक काम भी बहुत बिकता है. चित्रकूट आर्ट गैलेरी के डॉक्टर प्रकाश केजरीवाल बताते हैं कि इसके अलावा एक दिक्कत और है. लोग ये भी मानते हैं कि जामिनी रॉय ने कई पेंटिंग्स के सिर्फ स्केच बनाए. और उन्हें रंगने के लिए अपने बेटे अमिय को दे दिया. ऐसी पेंटिंग्स को ‘सेमी-फेक’ कहा जाता है. इनमें और असली पेंटिंग में फर्क करना एक्सपर्ट्स के ही बस की बात है. यही नहीं, अमिय ने खुद उनकी नकल में कई फेक पेंटिंग्स बनाईं, ऐसे आरोप लगते हैं.

1955 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया. इसी साल वो ललित कला अकादमी के फेलो बने. जामिनी रॉय की मृत्य 1972 में हुई. उन्हें देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नौ राष्ट्रीय कलाकारों में से एक घोषित किया था. 1976 में भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने उनकी कलाकृतियों को धरोहर की संज्ञा दी. यानी इनकी कलाकृतियां देश के बाहर बेची नहीं जा सकतीं. इनकी कई पेंटिंग्स नई दिल्ली के नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, कोलकाता के अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स और कुछ प्राइवेट कलेक्टर्स के पास हैं.
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