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इस इस्लामिक देश में महिलाएं हिजाब क्यों जला रही हैं?

ईरान में एक 22 वर्षीय महिला माहसा अमीनी की मौत के बाद महिलाएं हिजाब उतारकर प्रदर्शन कर रही हैं. पुलिस हिरासत में लिए जाने के बाद अमीनी की मौत हो गई थी.

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ईरान में हिजाब के विरोध में निकलीं महिलाएं (TWITTER)

ईरान में महिलाएं ख़ुद से अपने बाल काट रहीं है. हिजाब उड़ा रहीं है. वे नारे लगा रहीं है, डेथ टू द डिक्टेटर! तानाशाही मुर्दाबाद. ऐसा क्यों? क्योंकि उनके कुल की एक सपनों से भरी लड़की को बेरहमी से मार डाला गया है. उसका कथित गुनाह इतना भर था कि उसने ठीक से हिजाब नहीं पहना था. वो धर्म के नाम पर गढ़े गए नियमों से आज़ादी चाहती थी. इतनी सी चाह उसकी ज़िंदगी पर भारी पड़ गई. आरोप हैं कि पुलिस ने कस्टडी में उसको बेतहाशा पीटा. पिटाई के कारण लड़की कोमा में चली गई. बाद में अस्पताल में ही उसकी मौत हो गई.
ये कहानी महसा अमीनी की है. 22 साल की महसा अब इस दुनिया में नहीं है. लेकिन उसके सवाल बरकरार रहने वाले हैं.

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आज हम जानेंगे,

महसा अमीनी के साथ आख़िर हुआ क्या था?

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मॉरेलिटी पुलिस की कहानी क्या है?

और, ईरान में चल रहा प्रोटेस्ट अनोखा क्यों है?

ये पूरा मामला ईरान की राजधानी तेहरान के एक मेट्रो स्टेशन से शुरू हुआ. 13 सितंबर को महसा अमीनी अपने भाई के साथ तेहरान घूमने आई थी. जब वो ट्रेन से उतरी, तब वहां मौजूद मॉरेलिटी पुलिस ने उसको रोक लिया. वे उसके हिजाब को लेकर शंका में थे. उनके अनुसार महसा ने सही तरीके से हिजाब नहीं पहना था. वे उसे पुलिस स्टेशन ले गए. वहां तबियत बिगड़ी तो पुलिसवाले अस्पताल ले गए. तीन दिनों के बाद पता चला कि महसा की मौत हो चुकी है.

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इस घटना के दो वर्ज़न सामने आए.

पहला वर्ज़न सरकारी है.

पुलिस और मंत्रालय का दावा है कि महसा को दिल की बीमारी थी. इसी वजह से वो चक्कर खाकर गिर गई थी. अस्पताल की तरफ़ से जारी बयान में कहा गया कि महसा को जब उनके यहां लाया गया, तब तक उनका ब्रेन डेड हो चुका था. ये बयान घंटे भर बाद ही डिलीट हो गया.

दूसरा वर्ज़न महसा के घरवालों का है.

महसा के पिता ने कहा कि महसा को कोई बीमारी नहीं थी. उन्होंने आरोप लगाया कि पुलिस ने थाने में उसके साथ मारपीट की. जिसके कारण वो कोमा में गई. अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी महसा की तस्वीर इस आरोप में दम भरती है. उसके पूरे चेहरे पर मारपीट के निशान देखे जा सकते हैं.
महसा के घरवालों ने पूरा सीसीटीवी फ़ुटेज रिलीज़ करने की मांग भी की है. उनका कहना है कि पुलिस ख़ुद को पाक-साफ़ साबित करने के लिए एडिट किया हुआ वीडियो दिखा रही है.

ये तो हुए आरोप-प्रत्यारोप. प्रोटेस्ट की बात कहां से आई?

16 सितंबर को महसा की मौत के बाद तेहरान में प्रोटेस्ट शुरू हुआ. बड़ी संख्या में लोग अस्पताल के बाहर इकट्ठा हुए. सरकार ने गुस्सा कम करने का एक रास्ता निकाला. वे महसा की बॉडी को प्लेन से उसके शहर सेक़ेज़ ले गए. 17 सितंबर को अंतिम संस्कार होना था. पुलिस की तैयारी थी कि किसी भी तरह का हंगामा खड़ा ना हो. लेकिन लोग सुबह से ही क़ब्रिस्तान के बाहर इकट्ठे होने लगे थे. लोगों ने महसा की अंतिम यात्रा के दौरान जमकर नारेबाजी की. महिलाओं ने अपने हिजाब उतारकर फेंक दिए. कुछ लोग सेक़ेज़ के गवर्नर के दफ़्तर के बाहर पहुंच गए. पुलिस ने किसी तरह उन्हें अंदर जाने से रोका. जब प्रोटेस्ट बढ़ा, तब पुलिस ने फ़ायरिंग भी की. मीडिया रपटों के मुताबिक, इसमें 30 से अधिक लोग घायल हो गए.

अब सोशल मीडिया पर भी इस घटना का विरोध शुरू हो गया है. महिलाएं ख़ुद से अपने बाल काटकर वीडियो पोस्ट कर रहीं है. दुनियाभर के कई नेताओं और मानवाधिकार संगठनों ने महसा की मौत की जांच की अपील की है. साथ ही, ईरान के सख़्त हिजाब कानून को बदलने की मांग भी की जा रही है.

अब सवाल ये आता है कि ईरान में हिजाब को लेकर क्या कानून है?

इसके लिए हमें थोड़ा इतिहास में जाना होगा.

साल 1936 की बात है. उस समय ईरान में पहलवी वंश के रेज़ा शाह का शासन चल रहा था. रेज़ा शाह को बुर्क़ा और हिजाब पसंद नहीं था. एक दिन उन्होंने हिजाब और बुर्क़े पर बैन लगा दिया. समय के लिहाज से ये कदम काफ़ी क्रांतिकारी था. लेकिन ईरान का समाज इसके लिए तैयार नहीं था. बैन के ऐलान के बाद पुलिस ज़बरदस्ती करने लगी थी. जिन्हें परदे से कोई दिक़्क़त नहीं थी, उन्हें भी परेशान किया जाता था. इसके चलते बहुत सारी महिलाओं को उनके घर के पुरुष बाहर ही नहीं निकलने देते थे.

फिर आया साल 1941 का. रेज़ा शाह को निर्वासन में जाना पड़ा. उनकी जगह पर उनके बेटे मोहम्मद रेज़ा पहलवी को गद्दी पर बिठाया गया. रेज़ा पहलवी ने बैन वाले नियम में थोड़ी छूट दी. लेकिन वो भी पश्चिमी सभ्यता के पक्षधर थे. 1970 के दशक में रेज़ा पहलवी के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट शुरू हुआ. उस समय महिलाओं ने हिजाब को शाह के विरोध का प्रतीक बना लिया. नौजवान पीढ़ी के लिए हिजाब पश्चिम का विरोध था. उन्हें उस समय ये अंदाज़ा नहीं था कि ये बाद में उनके गले की फांस बनने वाला था.

फ़रवरी 1979 में ईरान की इस्लामिक क्रांति सफ़ल हो गई. अयातुल्लाह रुहुल्लाह ख़ोमैनी ने ईरान में इस्लामिक गणतंत्र की बुनियाद रखी. नए निज़ाम ने कहा कि कामकाजी महिलाओं को इस्लामिक ड्रेस पहनना चाहिए. इसका विरोध हुआ. तब कहा गया कि बयान का ग़लत मतलब निकाला गया है. वो ज़बरदस्ती थोड़े कर रहे हैं, बस मार्गदर्शन कर रहे हैं. परदेदारी को अनिवार्य नहीं बनाया जाएगा. सरकार ने ये भी कहा कि विरोध करने वाले लोग वामपंथी हैं, भ्रष्टाचारी हैं. वे क्रांति के माहौल को बिगाड़ना चाहते हैं.

ईरान में हिजाब के विरोध में निकलीं महिलाएं (TWITTER)

इसकी आड़ में प्रोटेस्ट को दबा दिया गया. ख़ोमैनी की धार्मिक पुलिस का दबदबा बढ़ चुका था. 1980 में सरकार ने सरकारी और निजी दफ़्तरों में बुर्के और हिजाब को अनिवार्य कर दिया गया. इस फ़ैसले का बहुत कम विरोध हुआ. इसने सरकार का मनोबल बढ़ा दिया. फिर अप्रैल 1983 में पर्देदारी को सभी महिलाओं के लिए अनिवार्य बना दिया गया. सात साल से ऊपर की लड़कियों और महिलाओं के लिए हिजाब पहनना ज़रूरी हो गया.

ईरान के कानून के मुताबिक, पब्लिक में सही तरीके से हिजाब नहीं पहनने पर महिलाओं के लिए तीन तरह की सज़ा निर्धारित है.

10 से 60 दिनों तक की जेल.
सौ से एक हज़ार रुपये का ज़ुर्माना.
या, 74 कोड़े मारने की सज़ा.

ईरान के कानून में ये दर्ज़ नहीं है कि हिजाब पहनने का सही तरीका क्या है. फिर ये तय कौन करता है? ये तय करने का काम धार्मिक पुलिस का है. ये क्या है? इस तरह की पुलिस दुनिया के कई इस्लामिक देशों में है. इस फ़ोर्स में शामिल लोग तय जगहों पर निगरानी करते हैं. वे ये देखते हैं कि लोग इस्लामिक कानून का पालन कर रहे हैं या नहीं. उनके पास संदिग्धों को गिरफ़्तार करने, ज़ुर्माना लगाने और जेल भेजने का अधिकार होता है. ईरान में धार्मिक पुलिस को गश्त-ए-इरशाद के नाम से जाना जाता है. ये सीधे तौर पर सुप्रीम लीडर के आदेश पर काम करती है.

इस तरह की सख़्तियों के बावजूद ईरान में हिजाब-विरोधी प्रदर्शनों का लंबा इतिहास रहा है. हमने दुनियादारी के एक ऐपिसोड में मसीह अलीनेजाद की कहानी सुनाई थी. मसीह पत्रकार थीं. उन्हें हिजाब का विरोध करने के लिए कोड़े मारने की सज़ा सुनाई गई थी. जेल में टॉर्चर किया गया था. बाद में वो लंदन चलीं गई. वहां से उन्होंने हिजाब और बाकी दकियानुसी नियमों को चुनौती देना जारी रखा है. मसीह वाले ऐपिसोड का लिंक आपको डिस्क्रिप्शन में मिल जाएगा.

मसीह तो विदेश चलीं गई. लेकिन उन्होंने जाते-जाते कुछ पंखों को हवा दे दी थी. ईरान में महिलाओं ने हिजाब का विरोध करना जारी रखा. वे कभी सड़क पर, कभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट में तो कभी सोशल मीडिया पर विरोध दर्ज़ कराती रहीं. इसके लिए उन्हें कई बार हिंसा झेलनी पड़ी. महिलाओं को टीवी पर माफ़ी मांगने के लिए विवश किया गया.

सितंबर 2022 की अरब न्यूज़ की रिपोर्ट के अनुसार, ईरान सरकार ड्रेस कोड लागू कराने के लिए फ़ेशियल टेक्नोलॉजी लाने पर विचार कर रही है. इसका इस्तेमाल पब्लिक ट्रांसपोर्ट और दूसरी सावर्जनिक जगहों पर किया जाएगा. जानकारों की मानें तो इससे महिलाओं का शोषण और बढ़ेगा.

आज की कहानी का फ़ोकस इसी हिजाब कानून की आड़ में हुई एक मौत का है. आरोपों के मुताबिक, ये मौत नहीं हत्या है. सरकार जांच की बात कर रही है. जांच इस बात की कि मौत की वजह क्या थी. लेकिन इन सबके बीच असली मुद्दा फिर से किनारे कर दिया जाएगा. क्या धर्म के नाम पर किसी की मर्ज़ी से कपड़े पहनने की आज़ादी छीनी जानी चाहिए? क्या ये मानवीय अधिकारों के ख़िलाफ़ नहीं है?

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