Sudhir is the original Anurag Kshyap. He is the original maverick filmmaker of our time. - विक्रमादित्य मोटवाणे ('उड़ान', 'लुटेरा' और 'ट्रैप्ड' के डायरेक्टर)
जाबड़ डायरेक्टर सुधीर मिश्रा से दासदेव के बहाने खुली खिली बातचीत
और इतने के बाद भी ये कहते हैं कि मैंने मक्कारी की, क्योंकि भारत में हाफ-गुड होकर भी काम चल जाता है.

ये बयान पहली नज़र में अटपटा लगता है. फिर आप ठिठक इसे निहारते हैं, तो मुस्कुरा देते हैं. ये गलत भी नहीं. गलत है दरअसल, मगर बेईमान नहीं है. हम अपने आसपास के उदाहरणों से ही चीज़ें समझते हैं. और ये अपने गठन में ऐसा है कि अनुवाद की कोशिश इसका सत्व खत्म कर देती.
अनुराग का ज़िक्र है, तो उनका भी हलफनामा दर्ज करें He is relentless, he never gives up. - अनुराग कश्यप ('देव डी' और 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के डायरेक्टर)
अनुराग की इस बात को विक्रमादित्य आगे बढ़ाते हैं. सुधीर मिश्रा ने कई ऐसी लड़ाइयां लड़ीं, जिनकी वजह से हमारे लिए फिल्म बनाना मुमकिन हो पाया. मगर बीज आसमान में उमड़ना नहीं चुनता. उसके लिए दाब-ताप होते हैं. स्वानंद किरकिरे इसे स्वर देते हैं.
Thats why he is not celebrated enough. Because he still stays with younger lot. - स्वानंद किरकिरे ('3 इडियट्स' और 'बर्फी' के लिरिसिस्ट)

विक्रमादित्य मोटवाणे (बाएं), अनुराग कश्यप (बीच में) और स्वानंद किरकिरे (दाएं)
तो ये नई पीढ़ी बोल-सुन ली गई. उनके अपने वक्त के लोगों की नुमाइश भी ली जाए.
मुझे लगता है कि सुधीर मिश्रा का सर्वश्रेष्ठ आना अभी बाकी है. - नसीरुद्दीन शाह, एक्टर
और इससे पहले कि मैं अपने हिस्से का सुधीर मिश्रा बताना शुरू करूं, उनसे हुई एक लंबी बातचीत के ब्यौरों से रिम भरूं, खुद उनका कन्फेशन भी ग्रहण किया जाए.
मेरे जिस तरह के हालात थे, जैसे मेरे पिता थे, जैसी मेरी परवरिश थी, उस हिसाब से मुझे जितना करना चाहिए था, नहीं कर पाया. आधा-अधूरा किया. मक्कार हो गया. भारत में ये मुमकिन है. हाफ-गुड होना. और फिर भी काम चल जाना.
(ऊपर के सब बयान सुधीर भाई (इस भाई की कहानी आखिरी पैरा में) पर बनी डॉक्युमेंट्री
से.)

'बावरा मन' में सुधीर मिश्रा
मैं सुधीर मिश्रा को नहीं जानता था. एक पोस्टर देखा. 2005 में. 'हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी', ऐसा फिल्म का नाम था. एक हीरो फौजी कोट पहने था, मगर फौजी नहीं था. JNU में बड़ी चर्चा थी इस फिल्म की. एक सीनियर के कंप्यूटर (मने डेस्कटॉप) पर देखी. प्रिंट अच्छा नहीं था. फिल्म पता नहीं कैसी थी. उसे देख कुछ भी फिल्म जैसा फील नहीं हुआ. इसलिए बहुत बात तक याद आती रही. बेकसी के दिनों में उसके शाइनी आहूजा वाले किरदार का डायलॉग याद आता. 'सर, एम ए फिक्सर. आई फिक्स थिंग्स.' कैसा शांत और परिश्रम से हासिल की गई कमीनियत से दीप्त था शाइनी के किरदार का चेहरा उस वक्त. हर ज़ोर-जुल्म को जवाब जैसा.

यही वो पोस्टर था, जो पाइरेटेड कॉपी पर और भी धुंधला नजर आ रहा था
बाद के दिनों में सिनेमा कुछ समझना शुरू किया, तो सुधीर मिश्रा के नाम से बाकायदा बावस्ता हुआ. आजमाइश का पहला मौका मिला 2007 में. मेरी बेस्ट फ्रेंड इंडियन एक्सप्रेस के लिए काम करती थी. उसे सुधीर मिश्रा का इंटरव्यू करना था. 'खोया खोया चांद' फिल्म के लिए. मेरे गढ़े सवालों से दोस्त का इंटरव्यू ठीक हो गया. और बदले में मुझे उनका फोन नंबर मिल गया. उस पर पहली मर्तबा फोन किया नवभारत टाइम्स के लिए एक खबर लिखने के दौरान. तब तक कुछ बरस बीत चुके थे. फिर मिलने का तय हुआ. वो दिल्ली में 'ये साली ज़िंदगी' शूट कर रहे थे. तब फिल्म का नाम ये नहीं था. नाम था दर ब दर दिल्ली. इसे वह बना रहे थे अदिति, अरुणोदय और इरफान के साथ. बुला लिया सुबह सवेरे. बोले, 'आ जाओ, बातें करते हैं.' कितना सुबह? 4.30 बजे. दिसंबर के महीने में. पर हुलस थी मिलने की. तो पहुंच गए, जैकेट-मफलर जूता कसके. आधा दिन उनके साथ रहे. पुरानी दिल्ली की गलियों में रिक्शे पर घूमे. बातें करते रहे. कहते रहे. सुनते रहे. शूट देखते रहे.

अपनी फिल्म 'दासदेव' के सेट पर सुधीर मिश्रा
क्या दिखा? खूब सारी भीड़. मज़ा लेने के लिए. उसमें से एक ने पूछा. मुझसे. 'भाई, शाहरुख खान आ रहा है या नहीं?'
मैं सुधीर मिश्रा की तरफ देखने लगा, जिन्होंने किसी शाहरुख का इंतजार नहीं किया. अपने हिस्से की कहानी कहने के लिए. लगा कि जैसे आइरनी अभी-अभी सरककर सामने से गुज़र गई.
फिर हमारी बात होती रही. कभी-कभार. हमेशा ओपनिंग एक सी होती.
हैलो. हैलोओओओ (उनका ओ विलंबित में रहता है. ऐसा लगता है कि उनके दफ्तर की तरफ टेलिफोन डिपार्टमेंट वाले जान-बूझकर पोल पर ढीलते तार रखते हैं. आवाज़ रुककर आती है. कुछ सीली सी भी.) सुधीर भाई, नमस्कार. नमस्ते (ते के साथ एक प्रश्नवाचक चिह्न, जिसे अभ्यास से ही समझा जा सकता है.) सौरभ द्विवेदी बोल रहा हूं. ...से (जहां भी काम कर रहे हों, उस संस्थान का नाम उच्चारित करें.) क्या हाल हैं... (ये सुधीर भाई का पहचान लेने के क्रम की शुरुआत है. ये हमेशा फुटकर में होता है. थोक में शायद ही कभी. पर ऐसा हमेशा हो, ज़रूरी नहीं. कभी तीसरे वाक्य से ही सिलसिला जुड़ जाएगा. तमाम पुरानी बातें बताने लगेंगे. कभी-कभी दोहराएंगे भी. जब दोहराते हैं, तब मैं समझ जाता हूं. सुधीर भाई को ध्यान नहीं गरीब पहले भी मिला है.)

'दासदेव' के सेट पर सुधीर
लेकिन ये ज़रूरी बात नहीं. ज़रूरी ये है कि उनसे बात करना समृद्ध होना है. हमेशा ही. हमने बात की. क्योंकि उनकी फिर एक फिल्म आ रही है. लंबे अंतराल के बाद. 'इनकार' के बाद.
तारीख 23 मार्च. साल 2018. फिल्म का नाम 'दासदेव'. डायरेक्टर- सुधीर मिश्रा. हीरो हीरोइन- वो नहीं होते सुधीर मिश्रा की फिल्म में. एक्टर- राहुल भट्ट, ऋचा चड्ढा, अदिति राव हैदरी, सौरभ शुक्ला, विपिन शर्मा, विनीत सिंह (छोटा मगर ज़रूरी रोल), अनुराग कश्यप (और भी छोटा, और भी ज़रूरी रोल).

'दासदेव' का पोस्टर
- सुधीर भाई. कहानी से शुरू करते हैं. आपने लिखी. साथ में जयदीप सरकार का भी क्रेडिट है. क्या है इस 'दासदेव' की कहानी की कहानी. - मुझे प्रीतीश नंदी ने काफी पहले बोला था, तुम 'देवदास' बनाओ. हम लिखने बैठे. मैं और जयदीप सरकार. जयदीप मेरा असिस्टेंट था. 'चमेली' समेत कई फिल्में कीं उसने. फिर कहानी आगे बढ़ने लगी, तो बीच-बीच में ख्याल आया कि यार, ये तो 'देवदास' के उलट ही जा रहे हैं. लिखते रहे. अपने-आप ही कुछ होने लगा. शेक्सपियर चाचा आने लगे बीच में. पारो कोठी से निकल गई. सब दरवाज़ों से बाहर. फिर चंद्रमुखी चांदनी के नाम से सामने आ गई. वो ऐसी लड़की है, जो आपको सत्ता के गलियारों में खूब नज़र आती है. कोई भी नेता उसे जानने की बात पब्लिक में कबूल नहीं करेगा, मगर किसी का भी उसके बिना काम नहीं चलेगा. मगर उसमें खामी ये रह गई कि वो देव से इश्क करती है. और देव. उसे एडिक्शन सिर्फ शराब और ड्रग्स का नहीं, सत्ता का है. ये सबसे लीथल है. 'दासदेव', देव और पारो की कहानी है, जिसे आप चांदनी की नजर से देख रहे हैं. दास देव देवदास के आजाद होने की कहानी है. दासता से.

'दासदेव' की शूटिंग की एक तस्वीर. शर्ट खोले हुए राहुल भट्ट.
- फिल्म पॉलिटिक्स की जमीन पर पनपी है. आप खुद भी एक पुराने और प्रतिष्ठित राजनीतिक परिवार से आते हैं. (सुधीर मिश्रा के नाना द्वारका प्रसाद मिश्र (डीपी मिश्रा) मध्य प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रहे. इंदिरा गांधी के सबसे मुश्किल दिनों में उनके सबसे विश्वस्त राजनीतिक सहयोगी भी. डीपी मिश्रा के बेटे ब्रजेश मिश्रा अटल सरकार में सबसे ताकतवर नौकरशाह थे.) - एक ज़माने की बात है. मेरे नाना डीपी मिश्रा ने पूछा, 'तुममें से कोई पॉलिटिक्स में तो नहीं जा रहा?' फिर खुद ही बोले, 'जाने भी नहीं दूंगा किसी को.' उनका मानना था कि कोई किसी कोख से पैदा हुआ, सिर्फ इसलिए ही राज नहीं कर सकता. वो अक्सर कहते थे, 'हम तो अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए, अपना भारत बनाने के लिए सियासत में आए थे. मगर सत्ता के लालच में बिगड़ गए आज़ादी के बाद.' इंदिरा की उन्होंने मदद की. मगर बाद में वह भी अपनी कोख के मोह में पड़ गईं. संजय को बढ़ाने लगीं. तो आखिरी में नाना को लगा कि सब बेकार है. मैं तो वैसे ही सीधे तौर पर उनकी पॉलिटिकल लीनिएज (राजनीतिक विरासत) का पार्ट नहीं था. उनकी बेटी का बेटा था. लेकिन माहौल तो मिला ही था. तो जब इसे लिख रहा था, तब दिमाग में था कि अगर मैं राजनीति में आता, तो मेरी ज़िंदगी कैसी होती. इसका पुट है. इसीलिए 'दासदेव' तीन लोगों को डेडिकेट की गई है. शरत बाबू, शेक्सपियर और डीपी मिश्रा. ये जर्नी शरत बाबू की कहानी से शुरू हुई. हमने उसे बहुत बदल दिया. मगर आभार है. सब कुछ मैंने ईजाद किया, ऐसा नहीं कह रहा.

बृजेश मिश्रा और द्वारका प्रसाद मिश्रा
- फिल्म अटकी भी रही काफी वक्त तक. - हां यार. लिखते-लिखते कहीं और चला गया था. ऑरिजिनल स्क्रीनप्ले से बहुत बदल गई है ये फिल्म. 'इनकार' के बाद काफी बाद लिखनी शुरू की. फिर फिल्म अटक भी गई. अभी पिछले महीने ही इसकी लास्ट शूटिंग की है. जब एक फिल्म का बनना इतना टाइम लगाए, तो मूड बदल जाता है. दिमाग बदल जाता है. और उसके हिसाब से ट्रीटमेंट भी. मेरे प्रॉड्यूसर ने साथ दिया, तो हमने अलग सी फिल्म बना दी. इसीलिए नाम भी 'दासदेव' रख दिया. कहानी उल्टी है. अगर अर्थ समझें दास का और देव का.

'दासदेव' की शूटिंग के दौरान बाकी एक्टर्स के साथ सुधीर
- फिल्म का ट्रेलर देखने के बाद लोग डायलॉग्स की चर्चा कर रहे हैं. ये आपने और तारिक नावेद सिद्दीकी ने लिखे हैं. क्या प्रोसेस रहा इसका? - फिल्म का वीओ (वॉइसओवर) मैंने लिखा है. कुछ कैरेक्टर मेरे पास थे. जैसे देव में मेरा दिमाग अटका रहा. तारिक पहले मेरे साथ काम कर चुका है. इसके अलावा उसने बिजॉय नांबियार की फिल्म 'डेविड' में डायलॉग लिखे थे. वो लखनऊ का रहने वाला है. इस फिल्म में यूपी का माहौल था, तो हमने साथ में काम किया.
- आपकी ये बात मुझे बहुत प्रेरित करती है. लगातार नए लोगों के साथ काम करना. उन नए लोगों से मैंने आपकी अप्रोच के बारे में खूब सुना. अब आपकी नज़र से उधर की तस्वीर देखना चाहता हूं. - मैं कभी ये माना नहीं कि मुझे उन सबके साथ काम करने के लिए एफर्ट करना पड़ता है. हम क्या हैं? एक मीडियम भर हैं. आप कहानी लिखते हैं. कहानी आपको लिखती है. ये एक मिस्ट्री है. बनी रहे, तो बेटर है. खेल क्या है. कौन है. पता नहीं. यंग लोग मुझे पसंद आते हैं. मैं 22 साल का था, जब 'जाने भी दो यारों' लिखी थी. वो तो एक एक्सिडेंट था. कुंदन (शाह, फिल्म के डायरेक्टर) की मेहरबानी थी, जो उन्होंने मेरे साथ काम किया. उन्हें लगा कि ये यंग बच्चा लिखने लायक है. मुझे भी लगा कि लिख सकता हूं. वही यंग बच्चे वाली कोशिश करता रहता हूं. मुझे लगता है कि यंगर लोग इंस्पायर करते हैं. इतना लंबा वक्त हो गया. लोग साथ आते गए. लोग बिछड़ते भी गए. दूसरे रस्ते पर चले गए. मैं यंगर लोगों के साथ आगे बढ़ता जाता हूं. यंग लोगों में एक एनर्जी होती है. गलतियां करने की हिम्मत होती है. कभी-कभी कुछ नया ख्याल आता है. एक ज़माने में अनुराग या विक्रम मुझसे इंस्पायर रहे होंगे, तो आज मैं भी उनसे इंस्पायर होता हूं. शायद यही वजह है कि 'दासदेव' का ट्रेलर जब रिलीज हुआ मुंबई में, तो 22 डायरेक्टर आए लॉन्च के मौके पर. मैंने अब तक उनसे सिर्फ टीचर की तरह इंटरेक्ट नहीं किया. एक फेलो फिल्ममेकर की तरह बात की. हमारे बीच अब एक दोस्ताना है. हम एक-दूसरे के लिए खड़े होते हैं.

क्लासिक फिल्म 'जाने भी दो यारों' का एक दृश्य. इसकी कहानी सुधीर मिश्रा और कुंदन शाह ने लिखी थी.
- 'दासदेव' की कास्टिंग दिलचस्प है. एक-एक करके उनके बारे में पूछता हूं. - 1. राहुल भट्ट- 'अग्ली' (UGLY- अनुराग कश्यप की फिल्म) देखकर तय किया. अनुराग कास्ट कर रहा था उसे. फिर 'अग्ली' के रशेज़ (फिल्म के असंपादित अंश) देखे थे. अनुराग हमेशा ही यही करता है. शूट के दौरान दिखाता रहता है. तो उसने ही मुझे राहुल भट्ट से मिलाया था. उधर ही डिसाइड किया. मुझे बिना इमेज के एक्टर चाहिए थे. राहुल बढ़िया एक्टर है. फिर ये भी ज़रूरत थी कि चेहरा ऐसा हो कि जिसे देख लगे कि उसकी विरासत है. फिल्म के रोल के मुताबिक. अच्छी चीज ये है कि वो अपने गुड लुक्स को लाइटली लेता है. उसमें फंसा नहीं होता.

'दासदेव' के शूट के दौरान राहुल भट्ट
2. ऋचा चड्ढा- पारो लिखते वक्त ऋचा का चेहरा दिमाग में आया. ये कास्टिंग का सबसे अच्छा तरीका है. पहले से तय न करें. लिखते-लिखते कोई चेहरा ख्याल आएगा. कभी नहीं आए, तो नया खोजना चाहिए. मेरा यही एक तरीका है, जिसे मैं शुरू से करता आया हूं.

'दासदेव' के एक सीन में ऋचा चड्ढा
3. अदिति राव हैदरी- मुझे 'चांदनी' को लिखने में सबसे ज़्यादा टाइम लगा. फिर जब उसे पूरा करने को थे, तब सूझा. अरे, ये तो अदिति है. उसके साथ 'ये साली ज़िंदगी' में काम कर चुका था. तो एक को-आर्टिस्ट का रिश्ता बना हुआ था. वो हिम्मती लड़की है. रोल समझ आता है, तो पूरे कमिटमेंट के साथ जाती है. 'दासदेव' में उसका पार्ट ऐसा है कि कोई और घबरा जाए, क्योंकि कहानी तो ये पारो और देव की है.

'दासदेव' की शूटिंग पर अदिति राव हैदरी
4. सौरभ शुक्ला- सौरभ के बगैर तो बनाता ही नहीं फिल्म. अवधेश प्रताप सिंह का जो रोल है, वो पूरी तरह से उसका ही था. वैसे भी जब मैं लिखता हूं, तो सौरभ तो आ ही जाता है मेरे दिमाग में कहीं न कहीं.

'दासदेव' के शूट के दौरान सौरभ शुक्ला
5. विनीत सिंह- अरे, इट्स वेरी नाइस ऑफ हिम. उसका कैमियो है. स्ट्रॉन्ग कैमियो. उसे देखकर लगना चाहिए कि पारो देव को छोड़कर इसके साथ जा सकती है. एक करिश्मा होना चाहिए.

'दासदेव' के शूट के दौरान विनीत कुमार सिंह. उनके साथ हैं ऋचा चड्ढा.
6. विपिन शर्मा और अनिल जॉर्ज- विपिन 'ये साली ज़िंदगी' और 'इनकार' में भी था. अनिल 'मिस लवली' के बाद नज़र में आया था.

'दासदेव' के शूट के दौरान विपिन शर्मा
7. अनुराग कश्यप- ऐसे देखेंगे, तो वो बहुत कम है फिल्म में. मगर है पूरी फिल्म में. राहुल को लिटरली उसी ने इंट्रोड्यूस किया था. और फिल्म में भी वो राहुल का बाप है.
- आपकी फिल्मों का संगीत अलहदा है. ये एक घिसा हुआ मुहावरा है म्यूजिक एलिमेंट को हाइलाइट करने का. मगर अभी यही कहना सूझ रहा है. और ये भी कि 'दासदेव' में म्यूज़िक और लिरिक्स के खांचे में खूब नाम हैं. - मुझे खूब वैराइटी पसंद आती है. सब अलग किस्म का रच-लिख रहे हैं, तो सबको ले लो. बांधो मत. दो गाने विपिन पटवा के हैं. उसमें एक आतिफ असलम ने गाया है. डॉ. सागर ने लिखा है. दो संदेश शांडिल्य के गाने हैं. एक गाना पापौन गा रहा है, एक रेखा भारद्वाज गा रही हैं. गौरव सोलंकी एक नया लड़का है. कविता बहुत अच्छी लगती है उसकी, तो आखिरी के लिए उसने एक गाना लिखा. हंसराज हंस का बेटा नवराज भी गा रहा है. इंट्रेस्टिंग है काफी. और हां, अनुपमा राग भी हैं आपकी तरफ की. उनका ट्यून पसंद आया. स्वानंद को बोला गा ले यार. स्वानंद ने गा दिया. (तो आपको लगा था कि वो सिलसिलेवार ब्यौरे देंगे! ये भी एक सुधीर भाई हैं. जैसे जिस क्रम में याद आता गया, बोलते गए. अपनी म्यूजिक सेंसिबिलिटी पर कुछ नहीं बोले.)
- समीर अनजान ने भी एक गाना लिखा है सुधीर भाई. - हां. वो बहुत अच्छा पोएट है. उसने 'इनकार' में भी लिखा था. मेरे साथ बड़ी दोस्ती है. देखिए है क्या, वो जमाना था 80-90 का, जिसमें आनंद-मिलिंद और जतिन-ललित, सब म्यूजिक डायरेक्ट कर रहे थे. सारे गाने समीर ही लिख रहे थे. पॉपुलर लिख रहे थे. तो लोगों को लगा कि इतनी ही रेंज है बस.
- सुधीर भाई, 2013 में 'इनकार' आई थी. इस बार काफी लंबा गैप हो गया. - होना चाहिए कभी कभी. कहानी जब ठीक से बने, तब फिल्म बनानी चाहिए. फिर जब आप अलग तरह की फिल्म बनाते हैं हर बार, तो थोड़ा ज़्यादा समय लगता भी है. आप देखें 'इनकार' 'चमेली' से अलग है. 'चमेली' 'ये साली ज़िंदगी' से अलग है. और कई बार तो लगता है कि क्यों फिल्म बनाएं. ज़रूरत क्या है! क्या सिर्फ फिल्म बनाने के लिए फिल्म बना दें.

फिल्म 'चमेली' का पोस्टर. इसमें करीना कपूर लीड रोल में थीं.
- चलिए, ये भी सही. आगे के प्रॉजेक्ट्स पर बात करते हैं. सुना है आप AIB के लिए स्क्रिप्ट मेंटरिंग कर रहे थे. - हां. 'गौरमिंट' नाम है. सटायर है. वेब सीरीज. ऐमजॉन के लिए. इरफान है. मैं स्क्रिप्ट मेंटर कर रहा था ओवरऑल. AIB वाले बड़े मज़ेदार लड़के हैं. आज के ज़माने में कई अच्छे कॉमिक हैं. वो जो यूट्यूब पर बहुत पॉपुलर है, भुवन बाम. (भुवन का उन्हें नाम याद नहीं आ रहा था, एडी से पूछकर बताया).
- वो 1857 वाला प्रॉजेक्ट कहां पहुंचा? (सुधीर मिश्रा से पिछली मर्तबा मुंबई में उनके दफ्तर में जब मुलाकात हुई, तब इसी पर काम चल रहा था. वो ताज़ा-ताज़ा इंग्लैंड से लौटे थे और बच्चों की तरह किताबों के कथ्य के बारे में चहकते हुए बता रहे थे. ये तैयारी एक वेब सीरीज़ के लिए है, भारत की आजादी की पहली लड़ाई के वक्त के इर्द-गिर्द.) - आज का भारत समझने के लिए अंग्रेजों और उनके राज को समझना क्रूशियल है. एक कंपनी पूरा मुल्क चला रही थी. जब मैं रिटायर हो जाऊंगा, तो 1800 से अब तक की पॉलिटिकल हिस्ट्री लिखूंगा. मैं तो हूं यूपी का. हमीं लोग (हम यानी सुधीर भाई जो अवध से हैं और सौरभ भाई जो बुंदेलखंड से) तो लड़े थे अंग्रेज़ों से. इसीलिए हमारी सबसे ज़्यादा ऐसी-तैसी हुई. डिवेलपमेंट नहीं हुआ. आर्मी में कोई अवध रेजिमेंट नहीं है. खैर, 1857 वाली एक वेब सीरीज़ है. इसे हम अगले साल बनाएंगे. इसको लिखने में बहुत टाइम लगेगा. 13 एपिसोड. 10 घंटे का मटीरियल लिखना है. फिर सेकेंड सीज़न की कहानी. फिर थर्ड सीज़न की कहानी. सेकेंड सीज़न में कुछ हुआ, जो फर्स्ट सीज़न को अफेक्ट करेगा, तो चेंज करना पड़ेगा. इसलिए पहले सीज़न के शूट से पहले दूसरे सीज़न की कहानी लिखनी होगी. इसे हम पांच लोग लिख रहे हैं. मेरे अलावा दो इंग्लैंड में, एक अमेरिका, एक हिंदुस्तान में. इस प्रॉजेक्ट में भी कई यंगर और एक्साइटेड लोगों के साथ काम कर रहा हूं. शिवा वाजपेयी और निसर्ग मेहता जैसे.

'दासदेव' के शूट के दौरान सुधीर मिश्रा
- सुधीर भाई. वेब सीरीज़ को लेकर इधर सहजता दिखी है फिल्म बनाने वालों में. - ये जो वेब की दुनिया है, बड़ी इंट्रेस्टिंग है. इसमें कई चीज़ें कही जा सकती हैं, जो पहले मुमकिन नहीं थीं. जितना एक फिल्म की मार्केटिंग में लगता है, उसमें एक छह एपिससोड की वेब सीरीज़ बन जाती है. रही फिल्म डायरेक्टर की बात, तो दुनिया बदल रही है. आपको भी बदलना होगा. वरना बैठे रहो नॉस्टैल्जिया में. बड़े पर्दे को छोड़ो मत, मगर नए प्रयोग भी तो करो.
- भाषा को लेकर भी ज़्यादा प्रयोग हो सकते हैं क्या? ये पूछा और ख्याल आया. कुछ लोगों ने 'दासदेव' की गालियों की तरफ खास ढंग से इशारा किया. - कोई पहली बार तो गालियां आई नहीं हैं फिल्म में. 'धारावी' में थीं. गैंगस्टर तो एक खुली सी भाषा में ही बात करेगा न. 'इस रात की सुबह नहीं' में भी थी. 'ये साली ज़िंदगी' में थीं. जो डायलॉग्स हैं, वो अपने आसपास के माहौल को भी दिखा रहे हैं. 'हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी' में जिस तरह का माहौल था, उसमें नहीं थीं. चूंकि वेब सीरीज़ में विस्तार की गुंजाइश होती है, तो भाषा पर भी वही पैमाना आयद होता है. प्रयोग किए जा सकते हैं. हर किरदार को भाषा के जरिए भी संवारा जा सकता है.

'दासदेव' के शूट की एक फोटो
- विकीपीडिया बता रहा था कि आप अमिताभ बच्चन के साथ फिल्म प्लान कर रहे थे. - हां वो 'मेहरुन्निसा' थी. अमिताभ-ऋषि और चित्रांगदा का सोचा था. फिर 'पहले आप जनाब' नाम हो गया. पर कुछ चीज़ें नहीं बनतीं. बन जाएंगी. कौन बनाएगा पता नहीं.
- एक आखिरी सवाल. फिल्ममेकर की पॉलिटिक्स. ये जो सब हो रहा है. देश में. इंडस्ट्री में. बोला जा रहा है. लिखा जा रहा है. - फिल्ममेकर का कमेंट फिल्म में होना चाहिए, ट्विटर पर नहीं. आप फिल्ममेकर हैं. आपके वक्त के सच आपकी फिल्म में दिखें. ये और सिर्फ यही आपकी ज़िम्मेदारी है.

सुधीर भाई
इंटरव्यू यहां खत्म होता है. जैसा कि ऊपर इरादा किया था. सुधीर मिश्रा सुधीर भाई कैसे हो गए, ये बताऊंगा. वह जैसे इंडस्ट्री वालों के साथ हैं, वैसे ही हम जैसे बाहरी लोगों के साथ भी. वह सिर्फ फिल्मों तक महदूद नहीं. साहित्य पर, सियासत पर जमकर बात करते हैं. ऐसी ही बतकही की कुछ महफिलें सजीं. और हम सहज हो गए. फिर मेरा दोस्त है गौरव, जो उनके साथ काम करता है. तो वह भी बताता रहा. मिले, बैठे, बात की. तो एक तादात्म्य स्थापित हो गया. मेरी राजनीति में दिलचस्पी जान वह डीपी मिश्रा की खूब बातें करते. उनकी ऑटोबायोग्राफी भी भेज दी, जिसे मुझे पढ़ना है और फिर एडिट कर नए सिरे से सामने भी लाना है. तो बस इसी क्रम में वह सुधीर भाई हो गए. कभी मुंबई में बस एक बुलावे पर हमारे लल्लनटॉप अड्डे पर आए, तो कभी फोन पर ही हम लोगों को फरियाए. अगर प्रेमचंद उनसे मिलते, तो 'बड़े भाई साहब' कहानी का नया और उलट अवतार लिखते. सुधीर भाई साहब.
चलते-चलते जयदीप साहनी का ये कथन पढ़िए. सुधीर मिश्रा आज भी वो कर पा रहे हैं, जो वह करना चाहते हैं. और इस क्रम में उन्होंने खूब अडॉप्ट किया. इस ज़माने में भी हम सबके लिए रेलेवेंट है. ये कमाल की बात है उनमें.
देखिए 'दासदेव' का ट्रेलर: