The Lallantop

जब भी ऑस्कर अवॉर्ड्स की बात होगी, सत्यजित राय का नाम लिया जाएगा

वो भारतीय फ़िल्मकार जिसे अस्पताल के बेड पर ऑस्कर दिया गया

Advertisement
post-main-image
ऑस्कर अवार्ड जीतने वाले भारतीय फिल्मकार सत्यजित राय ने हिंदी फिल्मों में काम क्यों नहीं किया? (फोटो सोर्स- getty और आज तक)
बीते रविवार 27 जनवरी, 2022 को 94th अकैडमी अवार्ड्स यानी ऑस्कर अवार्ड्स (Oscar Awards) का ऐलान हो चुका है. किस कैटेगरी में किसे ऑस्कर मिला, अवार्ड फंक्शन में रोचक क्या रहा, इसके लिए आप लल्लनटॉप सिनेमा को फॉलो कर सकते हैं. लेकिन भारत के इतिहास के पन्नों में ऑस्कर से जुड़ी कुछ कहानियां दर्ज हैं. और आज मौक़ा ठीक है तो इन्हीं में से एक कहानी का जिक्र करेंगे. जो भारतीय सिनेमा के लिए सम्मानजनक क्षणों की गवाह है. आज 30 मार्च है और आज की तारीख़ का संबंध है बंगाली सिनेमा की उस अज़ीम शख्सियत और भारत के महान फ़िल्मकार से जिसे न सिर्फ ऑस्कर मिला, बल्कि अपने 40 साल के करियर में उसने जो लकीर खींची, भारतीय सिनेमा आज भी फ़कत उसके पार जाने की कोशिश में है. सिनेमा के शौक़ीन सोचते हैं कि वर्ल्ड सिनेमा कहां से देखना शुरू करें, उन्हें भारत के महान फिल्मकार सत्यजित राय की फिल्मों से शुरुआत करनी चाहिए. सीरियस सिनेमा, वर्ल्ड सिनेमा, आर्ट्स फिल्म, इटालियन-फ्रेंच सिनेमा, रीजनल मूवीज जैसे शब्द सुनकर घबराने से बचना है तो पहले राय की फिल्में देखिए. उनकी फिल्में न कभी पुरानी पड़ती हैं और न सिनेमाई तकनीक में तरक्की होने से उनका ओहदा घटता है. मिसाल के तौर पर 2007 में आई वेस एंडरसन की फिल्म ‘द दार्जिलिंग लिमिटेड' की धुन आपको पुरानी नहीं लगेगी. इस मूवी में वेस एंडरसन ने सत्यजीत राय की फिल्मों से म्यूजिक लिया है. ब्लैक एंड वाइट फिल्में देखने से घबराते हैं तो राय की ‘अपू ट्राइलॉजी' देखिए, आपका ये डर गायब हो जाएगा. जिन्हें ब्रिटिश सीरीज शेरलॉक बेहद शानदार लगी थी उन्हें राय की 'जॉय बाबा फेलुनाथ' देखनी चाहिए. जिन्हें इतिहास की डरावनी घटनाओं पर बनी रूह कंपा देने वाली भारतीय फिल्मों की कमी लगती है उन्हें राय की 'अशनि संकेत' देखनी चाहिए. बंगाल में साल 1943 का अकाल और भुखमरी महसूस कर सकेंगे. द गॉडफादर सीरीज़ और एपोकैलिप्स नाउ जैसे बड़ी फिल्मों के डायरेक्टर फ्रांसिस फोर्ड कोपोला, सत्यजित राय के बड़े प्रशंसक थे. उन्होंने कहा था,
‘हम भारतीय सिनेमा को राय की फिल्मों से ही जानते हैं. उनकी बेस्ट फिल्म ‘देवी’ सिनेमा की दुनिया में एक मील का पत्थर थी.’
लेकिन एक वक़्त ऐसा भी था जब बंगाली सिनेमा में सत्यजित राय और कलकत्ता फिल्म सोसाइटी के उनके साथियों के बारे में कहा जाता कि ये एक विनाशकारी यंगस्टर्स का एक ग्रुप है. जो अपनी बैठकों में बंगाली फिल्मों की बुराई करता है. एक बार एक साथी के कमरे में सत्यजित बैठे थे और कुछ चर्चा चल रही थी. तभी मकान मालिक आया और उसने सबको बाहर निकाल दिया. ये कहते हुए कि ये सब फ़िल्मी लोग हैं और उसके घर की पवित्रता को दूषित कर रहे हैं. लेकिन आगे चलकर यही सत्यजित राय, फ़िल्मी दुनिया में बंगाल की और भारत की पहचान बने. सत्यजित राय ने कहीं से फिल्में बनाने की ट्रेनिंग नहीं ली. वो कहते थे कि उन्होंने अमेरिकी फिल्में देखकर ये कला सीखी थी. सत्यजित हॉलीवुड फिल्म देखकर बता देते थे कि उसे किस स्टूडियो ने बनाया है. कौन सी फिल्म MGM स्टूडियो की है, कौन सी पैरामाउंट की है और कौन सी वार्नर ब्रदर्स की. ये बताने के लिए सत्यजित फिल्म के कुछ सीन देख लें ये काफ़ी होता था. किस अमेरिकी डायरेक्टर की क्या खूबी है ये सत्यजित राय को पता होता था. कौन सा स्टूडियो अपनी फिल्म में किस ख़ास फीचर के लिए जाना जाता है ये सत्यजित राय ने डिकोड किया था. फिल्म को सबसे ख़ास पहचान उसका डायरेक्टर देता है, ये बात सत्यजित जानते थे, इसीलिए वो डायरेक्टर बने. सत्यजित अप्रैल 1950 में लंदन जाने से पहले तक एक ऐड कंपनी में काम करते थे. कंपनी ने ही उन्हें 6 महीने के लिए अपने लंदन के हेडऑफिस भेजा था. लन्दन रहने के दौरान उन्होंने करीब सौ अंग्रेजी फिल्में देखीं. वापस लौटे तो अपनी फिल्म पाथेर पांचाली का पहला ट्रीटमेंट लिख चुके थे. लंदन की इस यात्रा ने सत्यजित राय और उनके जीवन को पूरी तरह बदल दिया था. चैपलिन की तरह सत्यजीत राय अपनी फिल्म का पूरा कंट्रोल अपने हाथों में रखते थे. 'गांधी' जैसी बड़ी और ऑस्कर विनिंग फिल्म बनाने वाले सर रिचर्ड एटेनबरो ने सत्यजित रे की प्रसिद्ध फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' में काम किया था. सर रिचर्ड भी बाकी लोगों की तरह सत्यजित राय को मानिक दा कहते थे. रिचर्ड ने भारत से वापस लौटने के बाद कहा था,
‘मानिक दा के बारे में अद्वितीय बात ये है कि वो फिल्ममेकिंग के सारे काम खुद करते हैं. वो खुद फिल्म को डायरेक्ट करते हैं, स्क्रीनप्ले लिखते हैं, म्यूजिक कम्पोज़ करते हैं, कैमरा ऑपरेट करने से लेकर सेट में लाइटिंग कैसी होगी, इसमें भी करीब आधी भूमिका उनकी होती है.’
सत्यजित राय को नाना पाटेकर और नसरुद्दीन शाह पसंद थे लेकिन अमिताभ बच्चन के साथ काम करने के सवाल पर सत्यजित राय ने कहा था, ‘मैं उन्हें बहुत पसंद करता हूं, लेकिन मैं बंगाली फिल्में ही बनाता हूं.’ राय कहते थे,
मेरी जड़ें यहां बहुत गहराई में हैं, मुझे नहीं लगता कि मैं बाहर काम करके बहुत खुश रह पाऊंगा. भारत के दूसरे हिस्सों में शायद ऐसा कर पाऊं. भाषा की बात करूं तो मैंने हिंदी में फिल्में बनाई हैं, लेकिन जब मैं बंगाली फिल्में बना रहा होता हूं तो बहुत आत्मविश्वास महसूस करता हूं.’
मुंबई में रहने के बारे में पूछा गया तो राय ने कहा, मैं कलकत्ता के अलावा कहीं और रहने के बारे में सोच भी नहीं सकता. बॉम्बे में मैं अपनी तमाम रचनात्मक ऊर्जा खो दूंगा, एकदम निरर्थक इंसान बन जाऊंगा. सत्यजित राय को पैसे का लालच नहीं था. कई सुपरहिट फिल्में देने के बाद भी काफ़ी वक़्त तक वो किराए के मकान में रहते थे. राय की जीवनी लिखने वाले ब्रिटिश लेखक एंड्रू रॉबिन्सन ने जब उनसे पूछा कि क्या आपने चाहा था कि कभी अमीर हो जाएं. इस पर राय ने जवाब दिया,
'मुझे लगता है कि मैं अमीर हूं, अपनी राइटिंग की बदौलत मुझे पैसे की चिंता नहीं है. मैं मुंबई के एक्टर्स जितना अमीर नहीं हूं, लेकिन मैं आराम से जी सकता हूं. मुझे बस इतना ही चाहिए. मैं वो किताबें और रेकॉर्ड्स खरीद सकता हूं जो चाहता हूं.
अस्पताल के बेड पर ऑस्कर साल 1992 में सत्यजीत राय बीमार थे, कलकत्ता के एक अस्पताल में भर्ती थे. उन्हें बताया गया कि उन्हें 'लाइफ़ टाइम ऑस्कर' पुरस्कार दिया जाना है. ये 64वें ऑस्कर अवार्ड दिए जाने का दिन था. राय बोले उनकी इच्छा है कि उन्हें ऑड्री हेपबर्न के हाथों ऑस्कर दिया जाए. ऑड्री हेपबर्न उस दौर की मशहूर हॉलीवुड एक्ट्रेस थीं. उनकी इच्छा का सम्मान रखा गया. और 30 मार्च 1992 को आज ही के दिन ऑड्री हेपबर्न ने उन्हें ऑस्कर दिया. कलकत्ता के अस्पताल में ऑस्कर की ट्रॉफी उन्हें उनकी पत्नी बिजोया ने सौंपी. बिजोया ने बाद में कहा,
‘जब मैं मानिक को ट्रॉफी दे रही थी तो मैंने महसूस किया वो बहुत भारी थी. डॉक्टर ने अगर ट्रॉफी के निचले हिस्से को नहीं पकड़ा होता तो वो मानिक के हाथ से फिसल जाती.’
ऑस्कर मिलने के दो दिन बाद सरकार ने सत्यजित राय को भारत रत्न से सम्मानित किया. इसके बाद एक महीने के अन्दर ही, 23 अप्रैल 1992 को सत्यजित राय उर्फ़ मानिक दा चल बसे. और कुछ ही महीनों बाद जनवरी 1993 में ऑड्री हेपबर्न भी दुनिया छोड़ गईं. जिस वक़्त सत्यजित राय ने अस्पताल में ऑस्कर अपने हाथों में लिया, पूरी दुनिया वीडियो लिंक के माध्यम से उन्हें सुन रही थी. राय ने कहा,
'ये शानदार पुरस्कार लेने के लिए आज रात यहां आना मेरे लिए एक असाधारण अनुभव है. ये निश्चित रूप से मेरे फिल्म निर्माण करियर की सबसे बड़ी उपलब्धि है. मैंने सिनेमा के क्राफ्ट के बारे में सब कुछ अमेरिकी फिल्मों की मेकिंग से सीखा है. मैं सालों से अमेरिकी फिल्मों को बहुत ध्यान से देखता रहा हूं. अमेरिकी फिल्मों ने जिस तरह एंटरटेन किया है और जो कुछ सिखाया है, मैं उसके लिए उनसे प्यार करता हूं. मैं अमेरिकी और मोशन पिक्चर एसोसिएशन के प्रति आभार व्यक्त करता हूं जिन्होंने मुझे ये अवार्ड देकर गौरवान्वित महसूस कराया है.'
आज हम तकनीक में शायद अमेरिकी सिनेमा से पीछे हों, लेकिन कहने को इतना कुछ है, दिखाने को इतने रंग हैं कि सही कोशिशें सत्यजित राय के सिनेमेटिक माइलस्टोन को छू सकती हैं. बशर्ते विवादों से ऊपर उठकर सोचना होगा. भारतीय सिनेमा को जकड़ कर रखने वाली जाति और राजनीति की बेड़ियों को काटना होगा.

Add Lallantop as a Trusted Sourcegoogle-icon
Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement