जड़ में तक़रीबन तीस से चालीस छोटे-छोटे बीज होते हैं. ये बीज काफी सख्त होते हैं. लोग इन पौधों को पानी से जड़ समेत निकालते हैं. और उन पौधों की जड़ से बीजों को अलग किया जाता है. अब इन बीजों को 'कोई मिल गया' के जादू की तरह धूप चाहिए होती है. धूप मिलने के बाद ऐसे चार्ज होते हैं कि बीज कड़े होते हो जाते हैं. इसके बाद तेज़ आंच पर बीजों को लोहे की बड़ी-बड़ी कढ़ाही में फ्राई किया जाता है. और फिर 45-72 घंटों के लिए थालों में भरकर रख दिया जाता है. इसके बाद ये कड़े बीज सॉफ्ट हो जाते हैं.
बीजों को मखाने में बदलना भी एक कलाकारी है. जोकि एक पेशेवर मलाह ही कर सकता है. कढ़ाही में फ्राईहो रहे बीजों को हाथ से उठाकर पक्की जगह पर रखकर लकड़ी से पीटा जाता है. इस तरह गर्म बीजों का कड़क खोल तेजी से फटता है. और उसमें से पोपकॉर्न जैसा मखाना बाहर निकल आता है.मखाने की कई तरह की रेसेपी तैयार जो होने लगी हैं उस वजह से इसकी डिमांड भी बढ़ गई है. अब ये मत सोचना मखाना सिर्फ तू ही खाते हो. दुनियाभर में आइटम तैयार होते हैं इससे. खीर, दलिया, सेवई, मिठाई, नमकीन की तो बात ही क्या करना, इसका इस्तेमाल तो चिकन से लेकर बिरयानी तक में होता है. इसे मसाले के साथ घी में फ्राई कर लो मजा आ जाता है. यह इतना टेस्टी होता है कि मखाने का लोग स्कूली बच्चों के लिए पास्ता भी बनाते हैं. इससे अरारोट भी बनता है. अगर खीर बन जाए तो मियां बात ही क्या है. वाह! क्या लज़ीज़ जायका होता है. उम्म नम्म नम्म.. दरभंगा में नेशनल रिसर्च इंस्टिट्यूट के हिसाब से देश का 80 पर्सेंट मखाना बिहार के मिथिलांचल से आता है.
ये स्टोरी द लल्लनटॉप से जुड़े आदित्य प्रकाश ने की है













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