8 नवंबर 1947. टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर छपी ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस का लाल झंडा सभी पब्लिक बिल्डिंग्स पर लहरा रहा है. शहर के बीचोबीच, मुख्य चौराहे पर..लाल चौक पर. यहां विशाल आकार का एक लाल झंडा लगा है. इसके नीचे मजदूर और आम लोग युद्ध की ताज़ा खबरें सुन रहे हैं और राजनीतिक गप्पेबाजी में मशगूल हैं. यहीं नेशनल कॉन्फ्रेंस का हेडक्वार्टर भी है.’ इस खबर का ज़िक्र 'द राइज़ एंड फॉल ऑफ न्यू कश्मीर' के लेखक एंड्रयू व्हाइटहेड अपनी किताब में करते हैं. तो जानते हैं कि कश्मीर के इस चौक की क्या कहानी है जहां अब लाल झंडा नहीं, बल्कि लहराता है तिरंगा.
लाल चौक पर आतंकियों ने दी थी तिरंगा फहराने की चुनौती, जवाब NSG कमांडोज़ ने दिया
सिर्फ़ National Conference के रेड फ्लैग की वजह से इसका नाम Lal Chowk नहीं पड़ा. इसका नाम नेशनल कॉन्फ्रेंस के लड़ाकों ने Moscow के Red Square के नाम पर रखा था, क्योंकि वो भी Russian revolution की तरह Kashmir की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे.

सबसे पहले कहानी लाल चौक के नामकरण की. एंड्रयू व्हाइटहेड लिखते हैं, सिर्फ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस के रेड फ्लैग की वजह से इसका नाम लाल चौक नहीं पड़ा. इसका नाम नेशनल कॉन्फ्रेंस के लड़ाकों ने मॉस्को के रेड स्क्वायर के नाम पर रखा था, क्योंकि वो भी रूसी क्रांति की तरह कश्मीर की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे. नेशनल कॉन्फ्रेंस के लेफ्ट की ओर झुकाव की एक वजह थी. दरअसल इस दल पर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के मेंबर बीपीएल बेदी और उनकी पत्नी फ्रीडा का बड़ा प्रभाव था. बेदी ही वो शख्स थे, जिन्होंने नेशनल कॉन्फ्रेंस का पहला घोषणा पत्र नया कश्मीर तैयार किया था. और ये घोषणा पत्र भी सोवियत यूनियन से खासा प्रभावित था. एडिशनल जानकारी ये कि एक्टर कबीर बेदी इन्हीं बीपीएल बेदी के बेटे हैं.

क़ायदे से लाल चौक एक चौराहा है, जो श्रीनगर के मध्य में है. इसके आसपास एक बड़ा मार्केट है. जिस शक्ल में आज आप लाल चौक को देखते हैं, जो क्लॉक टावर वहां खड़ा है, उसे 1980 में बजाज इलेक्ट्रॉनिक्स ने बनवाया था. ये शहर के सुंदरीकरण के प्रयास का एक हिस्सा था. लोग कहते हैं कि घंटाघर बनने के बाद से लाल चौक राजनीति का अड्डा बन गया. पर ऐसा नहीं है, उससे बहुत पहले से ही इस जगह के राजनीतिक मायने हैं. आइए बताते हैं, कैसे?
पहले राजा हरि सिंह कश्मीर को एक अलग स्टेट के तौर पर देख रहे थे. फिर पाकिस्तानी कबालियों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया. हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी. भारत का कहना था कि पहले विलय संधि पर हरि सिंह साइन करें, तब भारत मदद करेगा. हरि सिंह को मजबूरन ऐसा करना पड़ा. इस पूरी प्रक्रिया में नेशनल कॉन्फ़्रेस के लीडर शेख अब्दुल्ला ने खूब मदद की, क्योंकि वो पहले से ही डोगरा राजशाही के विरोधी थे. लिहाजा जब कश्मीर का भारत में विलय हुआ, तो शेख अब्दुल्ला को ही वहां का प्रमुख बनाया गया. इन सभी डेवलपमेंट्स के बाद इसी लाल चौक पर नेहरू ने तिरंगा फहराया. यहीं खड़े होकर उन्होंने कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का वादा किया. और शेख अब्दुल्ला ने इसी लाल चौक से कश्मीर भारत का हिस्सा है, इसके पक्ष में अमीर खुसरो की लिखी फ़ारसी कविता पढ़ी थी -
मन तू शुदम तू मन शुदी,
मन तन शुदम तू जान शुदी,
ताकस न गोयद बाद अज़ीन,
मन दिगारम तू दिगारी
यानी -
'मैं आप बन गया और आप मैं बन गए. मैं आपका शरीर बन गया और आप मेरी आत्मा बन गए. अब कोई कह नहीं सकता कि हम अलग-अलग हैं.’
जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भी नाम लाल चौक से जुड़ा है. कहते हैं कि वो लाल चौक में तिरंगा फहराना चाहते थे. लेकिन इसके साक्ष्य सीधे तौर पर नहीं मिलते. हालांकि मुखर्जी अनुच्छेद 370 के माध्यम से जम्मू-कश्मीर को दिए गए विशेष दर्जे पर नेहरू के तीखे विरोधी थे. उस समय के मौजूदा नियमों के अनुसार, जम्मू-कश्मीर का निवासी न होने वाले भारतीय नागरिक को राज्य में प्रवेश करने के लिए परमिट की ज़रूरत होती थी. मुखर्जी ने एक राजनीतिक आंदोलन शुरू किया और 1953 में घोषणा की कि वो परमिट नियम का उल्लंघन करेंगे. उन्होंने नारा दिया -
एक देश में दो विधान, दो निशान, दो प्रधान नहीं चलेंगे.
दरअसल उस समय कश्मीर का संविधान भी अलग था. वहां प्रधानमंत्री होता था और कश्मीर का झंडा भी अलग था. वो 8 मई 1953 को दिल्ली से जम्मू-कश्मीर के लिए रवाना हुए. उस समय अटल बिहारी वाजपेयी उनके सचिव थे और उन्हें मिशन पर रवाना करने के लिए रेलवे स्टेशन गए थे. 11 मई को उन्हें बॉर्डर क्रॉस करते हुए गिरफ्तार कर लिया गया. मुखर्जी कश्मीर यात्रा से कभी वापस ही नहीं लौटे. 23 जून 1953 को उनकी रहस्यमयी ढंग से मौत हो गई.

लाल चौक पर किसी बड़े विरोध प्रदर्शन की पहली घटना 1963 में सामने आती है. हालांकि कुछ जगहों पर इस विरोध प्रदर्शन के हिंसक होने का भी जिक्र मिलता है, लेकिन इसकी पुष्टि कर पाना संभव नहीं है. ये वही वक्त था, जब हज़रतबल दरगाह से पैगंबर मुहम्मद का बाल चोरी होने की घटना हुई. ऐसा बवाल कि दिल्ली तक हड़कंप मच गया. नेहरू ने अपने बड़े-बड़े सिपहसालार कश्मीर भेज दिए. लाल बहादुर शास्त्री ने कमान संभाली. इसके अलावा गृह मंत्री, गुलजारीलाल नंदा, गृह सचिव- वेंकट विश्वनाथन और IB की पूरी टीम ने कश्मीर में डेरा डाला.
कहने का मतलब, आज़ादी के बाद क़ायदे से ये पहला मौक़ा था जब लाल चौक में प्रदर्शन हुए.इसके बाद इंदिरा गांधी से समझौते के बाद शेख अब्दुल्ला ने लाल चौक से एक स्पीच दी थी, जिसमें उन्होंने कश्मीर की जनता को समझाया था कि हम भारत का ही हिस्सा हैं, भारतीय हैं.
1989 में मिलिटेंसी आ गई, कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ. और क्या-क्या हुआ, आप परिचित ही हैं. मिलिटेंसी के सालभर बाद का एक दिलचस्प क़िस्सा है. इसका जिक्र एम के मट्टू ने अपने एक लेख Lal Chowk of Srinagar is Red Square of Russia में किया है, ये लेख जम्मू-कश्मीर के अखबार अर्ली टाइम्स में 2014 में छपा था. वो बताते हैं 1990 में आतंकवादियों ने लाल चौक पर क़ब्ज़ा कर लिया था, उनकी इजाजत के बिना वहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता था.
जम्मू एंड कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने लाल चौक पर एक कलर टीवी रख दिया और ये चुनौती दी कि यहां तिरंगा फहराओ और ये टीवी सेट ले जाओ. बेसिकली ये टीवी की बात नहीं थी. JKLF का मानना था कि किसी में इतनी हिम्मत नहीं होगी, कि वो आकर लाल चौक पर तिरंगा फहरा सके. इससे घाटी में फैले खौफ़ पर मजबूती की मुहर लग जाएगी. लेकिन भारत की धरती वीरों से खाली नहीं है. ये जानकारी होते हुए कि यहां आतंकवादी हो सकते हैं, खतरा हो सकता है, इन सबके बावजूद श्रीनगर बेस्ड NSG कमांडो के एक दस्ते ने न सिर्फ़ ये चुनौती स्वीकारी, बल्कि लाल चौक पर तिरंगा फहराया, और आतंकवादियों की कलर टीवी साथ ले गए. सालों तक उस टीवीसेट को ऑफ़िसर्स मेस में ट्रॉफी की तरह शोकेस किया जाता रहा.
आतंकवादियों की लाल चौक पर तिरंगा फहराने की चुनौती को भाजपा ने भी सीरियसली लिया. दिसंबर 1991 में कन्याकुमारी से एकता यात्रा शुरू की गई. ये देश के दूसरे राज्यों से होती हुई कश्मीर पहुंची. 26 जनवरी 1992 को मुरली मनोहर जोशी ने लाल चौक पर तिरंगा फहराया. इस समय उनके साथ नरेंद्र मोदी भी मौजूद थे. वो एकता यात्रा के व्यवस्थापक भी थे.

जब एकता यात्रा कश्मीर पहुंची, तो उसमें करीब एक लाख लोग थे. अब इतनी बड़ी संख्या में लोग लालचौक जा नहीं सकते थे. ऐसे में बात उठी कि 400 से 500 लोग वहाँ जाएँगे. लेकिन इतनी संख्या के लिए भी वहाँ इंतज़ाम करना मुश्किल था. अंत में फिर ये फैसला हुआ कि अटल और आडवाणी जनसमूह का नियंत्रण करेंगे, जोशी कुछ लोगों के साथ लाल चौक जाएंगे. जोशी बताते हैं,
एक कार्गो जहाज़ किराए पर लिया गया और 17 से 18 लोग उसमें बैठ कर गए. जब हमारा जहाज़ वहां उतरा तो मैंने देखा कि सेना के लोगों में काफ़ी प्रसन्नता थी. उनका कहना था कि आप आ गए तो घाटी बच गई. इस पूरी स्थिति में हम वहां पहुंचे और 26 जनवरी की सुबह तिरंगा लाल चौक पर फहराया गया.
जोशी लाल चौक पर 15 मिनट रुके थे. उन्होंने अपना फर्स्ट हैंड एक्सपीरियंस साझा किया था. उनका कहना था कि उस दौरान रॉकेट फायर हो रहे थे. पांच से दस फीट की दूरी पर गोलियां चल रही थीं. कहीं से फायरिंग हो रही थी. पड़ोस में कहीं बम भी मारा गया था. जोशी बताते हैं,
इनके अलावा वो हमें गालियां भी दे रहे थे लेकिन हमलोगों ने उन्हें सिर्फ़ राजनीतिक उत्तर ही दिए. उस दिन यह कहा जा रहा था कि कश्मीर के बिना पाकिस्तान अधूरा है तो हम लोगों ने अटल बिहारी वाजपेयी की बात दोहराई और कहा कि फिर पाकिस्तान के बिना हिंदुस्तान अधूरा है.
जोशी का दावा था कि जब वो लाल चौक तिरंगा फहराने पहुंचे, लोगों के पास वहां तिरंगे भी नहीं थे. उन्होंने लोगों से पूछा कि तिरंगा कैसे फहराते हैं तो जोशी को बताया गया कि तिरंगा वहां मिलता ही नहीं है. जोशी के मुताबिक 15 अगस्त को भी वहां के बाज़ारों में झंडा नहीं मिलता था.
खैर 5 अगस्त 2019 को कश्मीर से धारा 370 हट गई. अब लाल चौक के घंटाघर पर हमेशा तिरंगा लहराता है. हमने शुरुआत में जिक्र किया था कि जवाहर लाल नेहरू ने 1948 में लाल चौक पर तिरंगा फहराया था. इसके 75 साल बाद लाल चौक पर राहुल गांधी ने तिरंगा फहराया. उनकी भारत छोड़ो यात्रा, जो कन्याकुमारी से शुरू हुई थी, उसे कश्मीर में ही ख़त्म किया गया था.
वीडियो: तारीख: कहानी 'लाल चौक' की जहां तिरंगा फहराना एक समय साहस का काम था