सुंदरता, नैतिकता की कसौटी है. गोया सही-गलत का पैमाना खूबसूरती हो. विचारक फ्रैड्रिक नीच़ा भी इस बात पर जोर देते हैं. कॉकरोच को मारो तो हीरो, और तितली को मारो तो विलेन. पर इस सुंदरता के लिए महिलाओं ने खासी कुर्बानियां दी हैं. कुछ मामलों में जान जोखिम में डालकर. आज यकीन करना भी मुश्किल है कि एक वक्त पर ऐसा पहनावा भी था जिसे महिलाएं इतना कसकर पहनती थीं कि उनकी पसलियां संकरी हो जातीं. अंगों की जगह बदल जाती.
कालिदास से लेकर किम कार्दशियन तक, ब्रेस्ट को ढकने वाले 'ब्रा' की कहानी बड़ी दिलचस्प है
एक वक्त पर ऐसा पहनावा भी था जिसे महिलाएं इतना कसकर पहनती थीं कि उनकी पसलियां संकरी हो जातीं और अंगों की जगह बदल जाती.

सुंदर लगने के लिए वो अपनी कमर को 19 इंच कर लेती थीं. इस पहनावे को आज की ब्रा का पूर्वज कहा जा सकता है. पर ब्रा की कहानी इनसे भी पहले की है. कालिदास की अभिज्ञान शाकुंतलम से लेकर, प्राचीन रोम तक स्तन ढकने के कपड़ों का जिक्र मिलता है. वहीं एक वक्त पर स्तन ढकने पर कर मान लगाए जाने की बात भी कही जाती है. जिसे लेकर नांगेली की कहानी चलती है. दूसरी तरफ ‘फ्री द निपल मूवमेंट’ भी है जो फिल्ममेकर Lina Esco से होकर, कार्दशियंस तक पहुंचा. महिलाओं ने सोशल मीडिया पर समान अधिकार की बात की. बात निकली कि गर पुरुष बिना ऊपर के कपड़ों के फोटो डाल सकते हैं तो महिलाएं क्यों नहीं?

ये कहानी है ब्रेस्ट्स को ढकने के इसी कपड़े ब्रा की. खिस-निपोरी और दांत चियारने से पहले समाज में इसकी जड़ों को टटोलते हैं. समझते हैैं कि कैसे विश्वयुद्ध के बाद आज की ब्रा ने शक्ल लेना शुरू किया? युद्ध के हथियारों से इसका क्या नाता रहा?
इटली के सिसली में एक रोमन मोजैक देखने मिलता है. ये वही सिसली है जहां द गॉडफादर फिल्म में माइकल कॉर्लियोन (एल पचीनो) छिपने के लिए जाता है. बहरहाल यहीं चौथी सदी के मोजैक में महिलाएं ब्रेस्ट्स पर एक कपड़ा पहने नजर आती हैं. कपड़ा आज की ब्राज़िअर, शॉर्ट में कहें तो ब्रा जैसा नजर आता है . इसे नाम दिया जाता था, एपोडेस्मस या स्टरापियॉन. इससे इतर, कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् में भी ऐसा ही कुछ जिक्र मिलता है जो इसी कालखंड का हिस्सा था.

प्राचीन लेखों में जिक्र मिलता है उत्तरीय या शॉल जैसे बदन ढकने वाले कपड़े और स्तनपट्ट, या स्तनों को ढकने वाले कपड़े का. कहें तो ब्रा का कांसेप्ट कब और कैसे आया, इसपर किसी एक जगह या समय पर उंगली नहीं रखी जा सकती है. फिर भी फैशन के क्रम में इसका विकास जरूर हुआ. समय-समय पर कई बदलाव भी हुए.
साल 2008 में ऑस्ट्रेलिया के एक मध्ययुग के किले में खुदाई हुई. पुरातत्वविदों को यहां लिनन के 4 ब्राज़िअर जैसे कपड़े मिले. जिनमें शोल्डर स्ट्रैप थे. कप्स थे. और लेसेज़ भी थे. रेडियोकार्बन डेटिंग से इनकी उम्र पता की गई. पता चला कि ये 14वीं-15वीं सदी के बीच के हैं. यहीं से अपनी कहानी शुरू होती है.
14वीं सदी के बाद यूरोप में पुर्नजागरण या रेनेसां (renaissance) दस्तक देता है. समाज मिडल एज से मार्डन वक्त में प्रवेश कर रहा होता है. इसी युग में कोर्सेट्स महिलाओं की पसंद बनते हैं. पर यह आराम से इतर, तथाकथित सुंदरता के मानकों पर ज्यादा फिट होते थे. इनमें व्हेल की हड्डी या स्टील का ढांचा होता था जो महिलाओं के शरीर को रेत घड़ी जैसे खास आकार में दिखाने के लिए बनाया जाता था. इसमें कुछ फीते भी होते थे ताकि इन्हें बेहद टाइट किया जा सके. इसका महिलाओं के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ा. ये इतने कसकर बांधे जाते थे कि महिलाओं की पसलियों का आकार बदल जाता. उनके पेट के अंग यहां से वहां हो जाते.

J.L. Comstock अपनी किताब Outlines of Physiology, में इस बारे में विस्तार से बताते हैं. वो लिखते हैं,
“उस दौर में महिलाओं पर दबाव रहा कि वह पुरुषों के लिए सुंदर दिखें. इसकी वजह से उनमें शारीरिक बदलाव भी होते थे. कई बार मौत भी. मुझे इस बात पर कोई शक नहीं है कि महिलाएं भी मेरी ये बात मानेंगी. हर साल हजारों महिलाएं अपने इस फैशन के चलते खुद की जान ले लेती हैं. अगर खुदकुशी जुर्म है तो…”
बहरहाल, उस दौर में पुरुषों के लिए भी कोर्सेट बनाए जाते थे. वो भी अपना सीना चौड़ा और कमर पतली दिखाने के लिए इनका इस्तेमाल करते थे. इसका महिलाओं जितना इस्तेमाल पुरुष नहीं करते थे.
साल 1827 में कोर्सेट के इतिहास में एक बड़ा रुख आया. स्टील की पतली छड़ें इनमें जोड़ी जाने लगीं जिसकी वजह से ये काफी समय तक टाइट रह सकते थे. वो भी बिना कपड़े को नुकसान पहुंचाए. ड्रेस हिस्टोरियन डेविड कुंजल के मुताबिक, 1880 के दशक में कोर्सेट के साथ औसत कमर का साइज 21 इंच रहता था, इसके बिना 27 इंच. वहीं 19 इंच को स्टैंडर्ड समझा जाता था.
इसी से जुड़ा एक किस्सा द वेस्ट ऑस्ट्रेलियन अखबार में छपा. बताया गया कि 1860 के दशक में, एक लड़की अपनी डायरी में एक वाकये का जिक्र करती है. उसके बोर्डिंग स्कूल में मैडम्स लड़कियों को 14 से 19 इंच की कमर करने के लिए ट्रेनिंग देती थीं. ये किसी क्रूर परंपरा से कम नहीं था जिसमें सुंदरता के मानकों को स्वास्थ्य से ऊपर रखा जाता था. लेकिन फिर एक युद्ध ने ब्रा के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा.
युद्ध का असरदशकों से दम घोंटने वाले कोर्सेट्स से दुनिया भर की औरतें छुटकारा चाहती थीं. ऐसी ही एक महिला न्यूयॉर्क की मैरी फेल्पस जैकब भी थीं. उन्होंने दुनिया का पहला मॉर्डर्न ब्राज़िअर बनाया. दरअसल एक खास शाम के लिए मैरी ने एक गाउन खरीदा था. लेकिन फंक्शन की रात जब गाउन पहने से पहले उन्होंने कोर्सेट पहना. तो व्हेल की हड्डियों से बना कोर्सेट ड्रेस से बाहर नजर आने लगा. ड्रेस का कपड़ा भी झीना था जिसकी वजह से भी हड्डियां और स्टील की रॉड नजर आ रही थीं. मैरी को ये जमा नहीं तो उन्होंने एक तरकीब निकाली. दो रुमाल एक साथ लिए, कुछ रिबन्स उनमें जोड़े. और अपनी नौकरानी की मदद से पहली ब्रा बना डाली. बात जब उनके परिवार और दोस्तों को पता चली, तो उन्होंने फौरन मैरी से ऐसे और ब्राज़िअर बनाने के लिए कहे.

फिर इक रोज मेरी को एक डॉलर के लिए, ऐसी और ब्रा बनाने का ऑर्डर मिला. उनको आइडिया चमका कि ये अच्छा बिजनेस हो सकता है. 3 नवंबर,1914 को उन्हें ‘बैकलेस ब्राज़िअर’ का पेटेंट दे दिया गया. ब्राज़िअर नाम पुराने फ्रेंच के शब्द से आया था. इसका मतलब था ऊपरी हाथ. बहरहाल फिर उन्होंने अपना बिजनेस सेट किया. लेकिन कुछ वक्त के बाद, वार्नर ब्रदर्स कोर्सेट कंपनी को 1500 डॉलर की कीमत में इसका पेटेंट बेंच दिया. आगे के 30 सालों में वार्नर ब्रदर्स कंपनी ने इससे 1 करोड़ 50 लाख डॉलर बनाए. कितने गुना मुनाफा आप जोड़-घटा लीजिए.
यहां समझने वाली बात है, मैरी ने पहली ब्रा ईजाद नहीं की. बस उनका नया-नवेला डिजाइन लोगों को खासा पसंद आया. हालांकि उनके डिजाइन में आज की तरह कप्स नहीं थे. आगे के सालों में इस डिजाइन में कई इजाफे हुए, कप्स जोड़े गए. उनके साइज का मानकीकरण किया गया. पर विश्व युद्ध ने इनको और पॉपुलर बनाया. पहले विश्व युद्ध में ज्यादातर मर्द युद्ध के मैदानों में थे. तब पूंजीवादी और रूढ़िवादी समाज में एक दरार पड़ी. उस दरार से होकर महिलाएं फैक्ट्रियों तक पहुंची. कुछ पहली बार जैसा कि विचारक कार्ल मार्क्स ने कहा था,
“वास्तविक दुनिया में कोई भी ऐसी अमूर्त महिलाएं नहीं होतीं जिनके जीवन का स्वरूप केवल उनके लिंग से निर्धारित होता हो; वे पूंजीवादी सामाजिक संरचनाओं के भीतर - वर्ग, सामाजिक-आर्थिक, नस्लीय और जातीय संरचनाओं में एक स्थान रखती हैं.”
कहें तो समाज ने जिन महिलाओं को सुंदरता के पैमानों में फिट होने के लिए, दमघोंटू कोर्सेट पहनने पर मजबूर किया. उसी समाज ने उन्हें फैक्टिर्यों में जाने दिया. लाजमी है फैक्ट्रियों में कोर्सेट नहीं पहने जा सकते थे. वहीं दूसरी तरफ, 1917 में अमेरिकी वार इंडस्ट्रीज बोर्ड ने एक मांग की. कहा कि महिलाएं कोर्सेट ना खरीदें ताकि युद्ध के हथियारों के लिए धातु बचाई जा सके. जो धातु महिलाओं की पसलियों को संकरा कर रही थी. वो युद्ध में सैनिकों के सीने में उतारी जा सके. महिलाओं ने कोर्सेट खरीदना बंद भी किया. जिससे 28,000 टन धातु बची जो दो युद्धपोत बनाने के लिए काफी थी.

बहरहाल साल 1970 में मैरी की मौत हो गई. लेकिन इससे पहले उन्होंने एक संगठन बनाया. विमेन अगेंस्ट वॉर. खैर कोर्सेट से मुक्ति देने वाला ये कपड़ा एक वक्त में जलाया जाने लगा. या कहें इसे जलाए जाने का मिथक बना.
TO KILL A COCKROACHपाब्लो एस्कोबार पर बने शो, नार्कोस में किरदार स्टीव मर्फी कहता है,
"कहते हैं कि जब परमाणु हमले में दुनिया तबाह हो जाएगी, तक केवल कॉकरोच बचेंगे. जोर इस बात पर है कि कॉकरोच को मारा नहीं जा सकता, कम से कम प्रजाति को. इन्हें जीवन के निचले तबके का माना जाता है. शायद क्योंकि ये तितलियों की तरह सुंदर नहीं हैं."
तभी शायद विचारक फ्रेड्रिक नीच़ा ने कहा था,
“अगर तुम एक कॉकरोच को मारो तो तुम एक हीरो हो. अगर एक तितली को मारो तो विलेन. नैतिकता, सुंदरता की कसौटी पर कसी जाती है.”
इसी सुंदरता की कसौटी पर महिलाओं को भी कसा जाता था, कसा जाता है. ऐसी ही एक कसौटी थी मिस अमेरिका; सुंदरता की प्रतियोगिता. 1960 के दौर पर सुंदरता की ये प्रतियोगिता महिलाओं के लिए खूबसूरती के पैमाने बना रही थी. ये बात कई महिलाओं को नहीं जंची. फेमिनिस्ट्स ने इसके खिलाफ आवाज उठाई, प्रोटेस्ट किए. महिलाओं ने इकट्ठा होकर, ब्रा, गर्डल्स, कर्लर्स, और दूसरी चीजों को 'फ्रीडम ट्रैश कैन’ में फेंक दिया, कहें तो कचरे में. प्रेस ने इस मूमेंट में ब्रा को केंद्र बनाया और इसके साथ नाम जुड़ा बर्निंग ब्रा.
बाद के सालों में इसे मिथक बताया गया. ब्रा जलाना, कभी इस प्रोटेस्ट के केंद्र में नहीं रहा. पर मीडिया ने हेडलाइंस में इसे, शायद नाटकीय बनाने के लिए जगह दी. प्रोटेस्ट में बर्निंग ब्रा एक मिथक बना. ये मूवमेंट सुंदरता के पैमानों के खिलाफ था. बाद के सालों में भी इसकी अहमियत रही.

बहरहाल, ब्रा के इतिहास में एक कड़ी पॉप स्टार मैडोना ने भी जोड़ी. जब 90 के दशक में उन्होंने ब्रा को एक पहनावे से फैशन में बदलने में मदद की. अपने बॉन्ड एंबीशन टूर के दौरान उन्होंने एक खास ब्रा पहनी. डिजाइनर Jean-Paul Gaultier' की कोन ब्रा. मडौना का ये बोल्ड मूव फैशन स्टेटमेंट बना. ब्रा महज अंडरगारमेंट से एक पायदान ऊपर देखी जाने लगी. चड्डियों के लिए जो काम सुपरमैन ने किया था. शायद वो काम मैडोना ने ब्रा के लिए कर दिया.
करोड़ों की ब्रादो रुमालों से लेकर ब्रा ने रूबी और हीरों तक का सफर देखा. आगे के सालों में कई डिजाइनर और फैंसी ब्रा भी बनाए गए. अब मामला यूटिलिटी से लग्जरी पर निकल गया था. यानी जरूरत से ज्यादा दिखावा. युटिलिटेरियन जेरेमी बेंथम जिंदा होते तो कुंठित होते.
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