The Lallantop

हिंदी साहित्य की सबसे बेशर्म जीवनी, जो गांधी के 'सत्य के प्रयोग' से दो कदम आगे है

जीवन की विपन्नता और कष्ट व्यक्ति को इतना निष्ठुर बना देते हैं कि वो 'उग्र' हो जाता है.

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फोटो - thelallantop
himanshu singhयह लेख दी लल्लनटॉप के लिये हिमांशु सिंह ने लिखा है. हिमांशु दिल्ली में रहते हैं और सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी करते हैं. हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं और प्रतिष्ठित करेंट अफेयर्स टुडे पत्रिका में वरिष्ठ संपादक रह चुके हैं. समसामयिक मुद्दों के साथ-साथ विविध विषयों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं. अभी हिमांशु ने पाण्डेय बेचन शर्मा और उनकी लिखी 'अपनी खबर' पर लिखा है. पढ़िए.
ये भौकाली आत्मकथा है पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' की, जिन्हें पैदा होते ही उनकी मां ने कुछ पैसों में बेच दिया, और तत्काल उन पैसों का गुड़ मंगवा कर खा लिया. इसी के चलते 'बेचन' नाम पड़ा. कर्मकांडी बाभन के पूत थे, पर कभी कुंडली नहीं बनवाई गयी. लड़कपन से ही ऐय्याश भाइयों को वेश्यागमन करते देखा, मां की पिटाई होते देखी, गहने बिकते देखे. ऐसी ही तमाम वज़हें थीं, जिनके चलते 'उग्र' ज़िन्दगी भर ज़हर लिखते रहे. पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' को अगर हिन्दी साहित्य का मंटो कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. 'उग्र' प्रेमचंद युग के सबसे विवादास्पद, अक्खड़, बदनाम और मनमौजी साहित्यकार थे. बेअन्दाज़ थे और सच्चे थे. हरिशंकर परसाई के शब्दों में कहें तो "अक्खड़, फक्कड़ और बदज़बान" थे. साहित्य की दुनिया के तत्कालीन अनुराग कश्यप थे, या यूं कह लीजिए कि अनुराग कश्यप आज की सिनेमा के 'उग्र' हैं. 'उग्र' ने ताउम्र अपने तख़ल्लुस का मान रखा और हमेशा विवादों में बने रहे. सन 1900 ई. चुनार, मिर्जापुर में जन्म लेने वाले 'उग्र' 23 मार्च 1967 तक जीवित रहे. अपनी मृत्यु तक जीवन से तमाम अनुभव बटोरे और अपने साहित्य की तमाम विधाओं में उन्हें हूबहू दर्ज़ किया.
किताब का ब्यौरा 'अपनी खबर' पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' की आत्मकथा है जिसमें भूमिका समेत कुल सत्रह अध्याय हैं. हालांकि महात्मा गांधी की आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' देश की सबसे ईमानदार आत्मकथा मानी जाती है, फिर भी मैं विवादों का जोखिम लेते हुए 'अपनी खबर' को देश की सबसे ईमानदार आत्मकथा कहूंगा. 'अपनी खबर' का मूल्यांकन यूं तो अभी न के बराबर ही हुआ है, पर बात जब इसकी विशेषताओं की होगी, तो पहला स्थान इसकी भाषा-शैली का होगा. भाषा में देशज और तत्सम शब्दों का मिला-जुला प्रयोग हुआ है, वहीं व्यास शैली की अधिकता है. निर्भीक, स्पष्ट और रोचक विवरण इसकी अगली विशेषता है. 'उग्र' ने जैसा जीवन जिया, वैसा कह डाला है. अनुभव के जो संस्करण मिले, साझा किया है. अनुभूतियों की पवित्रता बनाए रखने हेतु कभी शब्दों में कोताही नहीं बरती. सही भी है, शब्दों का लिहाज़ करने पर अभिव्यक्ति अक्सर बुरा मान जाती है, तो 'उग्र' ने शब्दों को कभी बुरा या अपवित्र नहीं समझा और भावों को तरज़ीह दी. सिर्फ हालात बयान नहीं किये, सच भी कह डाला. एक बानगी देखिए-
"...उसी प्रकार यदि मैं लिखूं कि दिग्गजाकार महाकवि 'निराला' पर कलकत्ते के एक मूषकाकार संपादक ने सन 1928 ई. में बड़ा बाजार की अपनी एक दुकान में काठ की तलवार से कई प्रहार किए थे, ऐसे कि 'निराला' भी हतप्रभ होकर प्रायः रोकर रह गए थे, तो सत्य की तह तक गए बगैर ही 'निराला' भक्त सनसना-झनझना उठेंगे."
'उग्र' ने 'अपनी खबर' में अनेक जगहों पर ज़ाहिर किया है कि यथार्थ कितना कठोर हो सकता है. आत्मकथाओं में सहज दर्शनीय आत्ममुग्धता 'अपनी खबर' में ढूंढे नहीं मिलती. इस पुस्तक के लेखन में 'उग्र' का बर्ताव चिंताजनक स्तर तक सच्चाई बयान करने वाला है. 'साहित्य से जुड़े व्यक्ति को सच्चरित्र और पवित्र होना चाहिए' के ढकोसले को उन्होंने इस पुस्तक पर आकर बाकायदा तिलांजलि दे दी है और 'सब कुछ' कहकर अपनी इस आत्मकथा को सफल बना दिया है.
"तब मैं आठ साल का रहा होऊंगा या नौ का. जुल्फों में तीन-तीन फूल-चिड़ी बनाता था. काफी तेल लगाने के बाद बालों में सस्ती वेसलिन लगाता था. वह वेसलिन जिसकी गंध पिला हाउस (बम्बई) या सरकटा गली (कलकत्ता) की सस्ती वेश्याओं के अंग से आती है."
'उग्र' को इस बात से कोई संकोच नहीं रहा कि आने वाले समय में ये पुस्तक उनके वेश्यागमन का प्रमाण बन सकती है. दरअसल ऐसी बेबाक बयानी की हैसियत या तो उन अज्ञानियों की होती है जो अपनी बेअंदाजी को ही अपनी पहचान बनाने पर आमादा हों, या फिर उनकी जो सच में मर्मज्ञ हों.
"जीवन में जितना भी सुख है अज्ञान ही के सबब होता है. दिखिये तो, जगत में ज्यादातर जीवधारी अज्ञानी ही होते हैं, फिर इस ज्ञान की कोई गारंटी नहीं कि कब अज्ञान न साबित हो जाए."
ज्ञान को ही सुख का पर्याय बताने वाले समाज में अज्ञान को सुख की चाभी कहे जाने की घटना सर्वप्रथम 'अपनी खबर' में ही घटी थी. ऐसे में अगर इस पुस्तक की उपयोगिता की बात की जाए, तो विचार और चेतना के जिस स्तर पर जाकर ये पुस्तक लिखी गयी है, इस पुस्तक की कोई नज़दीकी सीमाएं नहीं हैं. ये पुस्तक विद्यार्थियों के लिए भी उतनी ही उपयोगी है जितनी एक लोक सेवक और व्यापारी के लिए है. लेखन में आजीविका तलाशने वालों के लिए तो ये 'मस्ट रीड' है. 'अपनी खबर' अगर कोई व्यक्ति होती तो वो 'उग्र' होती. 'उग्र' अगर कोई किताब होते तो 'अपनी-खबर' होते. अपने जन्मस्थान चुनार का जो वर्णन 'उग्र' ने 'अपनी खबर' में किया है, उसे पढ़कर ही समझ आ जाता है कि चुनार की तमाम महानताएं साबित करने के पीछे 'उग्र' की 'मेरा ननिहाल सबके नानिहालों से ज्यादा प्यारा है' वाली बालसुलभ जिद है. 'उग्र' के जीवन और साहित्य में दुर्लभ रही यह मनोवृत्ति इसी किताब में दर्ज है. यह किताब अपने आप में न सिर्फ एक सफल जीवनी है, बल्कि एक सटीक उदाहरण और दस्तावेज़ है कि ईमानदार लेखन क्या होता है.
"हमें गरीब और ब्राह्मण जानकर लोग हमारे घर भीख पहुंचा जाते थे. यह भीख भी शानदार थी, तब तक जब तक ब्राह्मणों के घर में ब्राह्मण पैदा होते थे. लेकिन जब ब्राह्मणों के घर में ब्रह्मराक्षस पैदा होने लगे, तब तो यह जजमानी वृत्ति नितान्त कमीना धंधा-स्वयं नीचातिनीच होकर भी दूसरों से चरण पुजवाना रह गयी थी."
लेखन इतना आकर्षक और बांधे रखने वाला है कि कोई एक बार पढ़ना शुरू कर दे तो लत लग जाये. डार्क ह्यूमर की मौजूदगी इस किताब को विशिष्ट बनाती है.
"मझले भाई श्रीचरण पांडे तो क्रोधी नहीं थे, लेकिन उमाचरण और बेचन अपने-अपने समय में परम क्रोधी व्यक्ति बने."
कटु यथार्थ के साथ व्यावहारिक होना इस किताब की अन्य विशेषता है.
"समय पर न मिले तो स्वर्ग के लिए भी कौन प्रतीक्षा करे!"
इस किताब को पढ़कर समाज और जीवन की तमाम रूमानियतें खारिज़ हो जाती हैं. गरीबी आती है तो वो अपने साथ सामाजिक विपन्नता भी साथ लाती है. जीवन की विपन्नता और कष्ट व्यक्ति को इतना निष्ठुर बना देते हैं कि वो 'उग्र' हो जाता है. आधुनिक साहित्य पर इस किताब का भरपूर लेकिन गुपचुप असर है. पुस्तक में नियति को विलासी बताने वाली बात मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास 'कसप' में भी है. जोशी का ये कहना कि,"प्रेम अपने मूल स्वरूप में अतिवादी ही होता है. ये बात हम काफी समय बाद समझ पाते हैं कि विधाता को अतिवाद पसंद नहीं." मुझे 'उग्र' की बात से सुसंगत जान पड़ती है. 1997 में आयी हॉलीवुड फिल्म 'द डेविल्स एडवोकेट' में महान अभिनेता अल पचीनो ने भी नियति और ईश्वर को विलासी बताया है जो मनुष्यों को अपने मनोरंजन के लिए कठपुतली की तरह इस्तेमाल करते हैं. साठ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई ये पुस्तक मूल्यों की दृष्टि से आधुनिक है. विचार प्रक्रिया शानदार और नयेपन को बढ़ावा देने वाली है. अपूर्णता में बेहतर की संभावनाएं देखने का हुनर सिखाना भी इस किताब को अलग बनाता है. 1959 में रिलीज़ हुआ फ्रैंक सिनात्रा का गीत 'द बेस्ट इज़ येट टू कम' इस किताब की कुछ पंक्तियों से आश्चर्यजनक रूप से वैचारिक साम्यता रखता है.
"मैं अपनी अनगढ़ता को गर्व से देखता हूं, इसलिए कि जब तक अनगढ़ हूं तभी तक विश्वविराट कि मूर्तियों की संभावनाएं मुझमें सुरक्षित हैं."
इन तमाम विशेषताओं के बावजूद मैं मानता हूं कि ये किताब संक्षिप्त है. थोड़ा और विस्तार इसे विश्व साहित्य के फलक पर स्थापित करने में सक्षम था. लेकिन अन्य बात ये है कि पुस्तक की विशिष्टताएं ही दअरसल इसके विस्तार और स्वीकार्यता में बाधक हैं. मसलन आज से साठ वर्ष पूर्व प्रकाशित पुस्तक में, चाहे वो आत्मकथा ही क्यों न हो, यदि लेखक अपने वेश्यागमन के सूत्र देगा, तो उसकी ऑडिएंस निश्चित ही सीमित हो जाएगी. कुल मिलाकर ये पुस्तक एक 'कल्ट' श्रेणी की पुस्तक है और इसमें दो राय नहीं है.
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