The Lallantop

दरोगा जी की जिंदगी के डेड वायर में नया करंट दौड़ गया

निखिल सचान 'कानपुर की मनोहर कहानियों' की तीसरी किस्त ले आए इस बार 'हक़ीम उसमानी'

Advertisement
post-main-image
फोटो - thelallantop
निखिल सचान को यूं जानिए कि जिस वक़्त हम ये सोच रहे हैं कि उनके इंट्रो में क्या अच्छा सा लिख दें. वो कानपुर की नई कहानी गढ़ रहे होंगे. आईआईटी और आईआईएम में घुसे और निकल आए. फिर राइटिंग में घुस गए. कुछ रोज और मेहनत करते तो संयुक्त राष्ट्र संघ में भी घुसने वाले थे. आम धारणा है कि निखिल सचान अगर प्रधानमंत्री होते तो अब तक भारत एनएसजी में भी घुस चुका होता. पर देश की किस्मत थोड़ी खराब निकली क्योंकि निखिल के पास बड़े काम हैं. फिलहाल कानपुर की कहानियों का तीसरा किस्सा सुना रहे हैं.
Nkhil

कानपुर की मनोहर कहानियां, तीसरी किस्त

हक़ीम उसमानी- हमारी कोई अन्य शाखा नहीं है 

एक वक़्त था जब हक़ीम साहब की पूरे कानपुर में इज्ज़त थी. शोहरत थी, नाम था, हल्ला था, भौकाल था. और कानपुर ही क्या, लखनऊ, अलाहाबाद, बनारस तक हक़ीम उसमानी की ख़ुदाई के चर्चे थे. “हक़ीम नहीं है, फ़र्ज़ करो कि ख़ुदा ही हैं”, ऐसा लोग कहते थे. आंखों के नूर से लेकर, कान की सुरसुरी तक, पेट की गुत्थमगुत्था से लेकर दिमाग की हरारत तक, पित्त की पथरी से लेकर, कांख की कखरी तक, हक़ीम उसमानी लगभग हर एक मर्ज़ का जड़ से इलाज किया करते थे. एक वक़्त आज का है, जब हक़ीम साहब धंधा समेटने और तंबू उखाड़ने पर विचार कर रहे हैं. हक़ीम उसमानी के नाम का भौकाल भुनाने के लिए, हमाए कानपुर में कुकुरमुत्ते की तरह हम-नाम और हम-पेशा हक़ीम उग आए और उन्होंने हक़ीम साहब के नाम का घुइंयां बना डाला. हक़ीम उसमानी, हक़ीम रहमानी, हक़ीम लुकमानी, हक़ीम सुलेमानी, हक़ीम नूरानी और न-जाने कौन-कौन. आलम ये था कि इन चिलगोजों ने लम्बी-लम्बी फेंकने और फटाफट लपेटने की हद ही पर कर दी और पूरे कानपुर को अपने नकली नाम और नकली पोस्टरों से पाट दिया. Kanpur Manohar Kahaniyan जो हमाए कानपुर में रहे होंगे, वही समझ सकते हैं कि इन नीम हक़ीमों ने दुनिया के हर रोग को ठीक करने का वायदा कर डाला. इश्तिहार भी ऐसे-ऐसे कि चचा बतोले भी कान पकड़ लें.

“गुप्त रोगी, मरदाना ताक़त, भगंदर, जल्दी झड़ना, स्वप्नदोष, धात रोगी मिलें, मस्जिद के पीछे, नई सड़क, कलक्टरगंज - हक़ीम रहमानी”

“बवासीर, ना-मरदी से लेकर कैंसर तक, हर मर्ज़ का, एक टीके में जड़ से इलाज. नाक़ाम रोगी मिलें. चमनगंज, संगम टाकीज़ वाले एकदम असली हक़ीम उसमानी. नक्कालों से सावधान, हमारी कोई अन्य शाखा नहीं है”

“हमारे यहां एड्स का भी शर्तिया इलाज़ तसल्लीबक्श किया जाता है. चिड़िया घर, नवाबगंज वाले सबसे असली हक़ीम लुकमानी”

हमाए हक़ीम साहब दुखी होकर रह गए थे. इतना कि, उनके पास अपने ख़ुद के दुख का इलाज़ नहीं था. उनकी बेग़म ने तो हक़ीम साहब को देखना और छूना ही छोड़ दिया था. “लाहौल विला, दवाखाने में जाने क्या क्या करते होंगे", बेग़म मुंह बनाकर कहती थीं. दिन-रात कानपुर और उसके आसपास के नाक़ाम नवयुवक उनके दरवाज़े आते और पूछते कि हक़ीम साहब आप स्वप्नदोष और जल्दी झड़ने का इलाज़ कर देंगे? हक़ीम साहब चीख़ कर कहते.
“अमां मियां हम इन सब वाहियात मर्ज़ का इलाज़ नहीं करते, दफ़ा हो जाओ यहां से”
नवयुवक कहता, “अरे काहे झूठ बोल रहे हैं हक़ीम साहब. हक़ीम उसमानी आप ही हैं न. पैसे की कोई बात नहीं, ये लीजिए, कर दीजिए न.” “अमा मियां ये पैंट की चेन खोलने के लिए किसने कहा आपसे. इसको ऊपर खींचिए. हमने कहा न हम इन सब वाहियात मर्ज़ का इलाज़ नहीं करते हैं. चलो भागो यहां से”.
हक़ीम साहब समझाते रह जाते थे लेकिन लौंडे मानने से रहे. कोई यूरीन सैम्पल शीशी में भरे चला आता था तो कोई अपने पुरुषार्थ का चार बूंद सबूत लिए घुसा चला आता था. एक दिन हक़ीम साहब को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने तय कर लिया कि हम एक-एक नकलची हक़ीम के दरवाज़े जाएंगे और उनका काम पैंतिस कर के ही मानेंगे. आज या तो वो रहेंगे या हम. हाथ में क्रिकेट का बैट लेकर हक़ीम साहब चल दिए. हक़ीम साहब ने एक-एक इश्तिहार पर से सारे मर्दाना कमज़ोरी वाले हक़ीमों के नाम-पते नोट किए और रहमानी, लुकमानी, नूरानी और उसमानी से लेकर सुलेमानी तक हर नकलची के दवाखाने तक गए. अम्मी-अब्बू की गलियों का सालन लपेट-लपेट कर, दिन भर ग़दर एक प्रेम कथा बांचते रहे.
मरीजों ने नकली हक़ीम उसमानी की साइड लेते हुए कहा, “ए बुड्ढे चल निकल यहां से. हमाए हक़ीम साहब पर आरोप लगाते हुए शर्म नहीं आती तुमको. इनसे असली हक़ीम कोई हो नहीं सकता, काहे से, आज अगर ये हक़ीम साहब न होते तो हमाए घर में किलकारियां न गूंज रही होतीं. ऐसे ख़ुदा समान आदमी के बारे में ऐसी वाहियात बातें मत करो” हक़ीम साहब फायर हो गए. एकदम से पिल पड़े. दोनों को बैट से इतना धुना की दरोगा कौशल सिंह को मौके पे आके उन्हें धरना पड़ा. “काहे उपद्रव कर रहे हो बे”, दरोगा ने कड़कते हुए पूछा. “ये साला मेरा नाम ख़राब कर रहा है. ये सब साले मेरा नाम डुबो देंगे एक दिन”, हक़ीम उसमानी ने रिरियाते हुए कहा. “इतने भले हक़ीम साहब के बारे में ऐसी बकवास मत करो. मेरा ख़ुद का इलाज़ इन्हीं ने किया है ”, दरोगा चिल्लाया. “इसे घंटा इलाज़ नहीं करना आता. दवा के नाम पर सबको अफ़ीम खिलाता है”, हक़ीम उसमानी फनफना रहे थे. “अब चाहे अफ़ीम खिलाते हों या घोड़े की लीद, हमाई ज़िन्दगी के डेड वायर में जो नया करंट दौड़ा है, सब इन्हीं की बदौलत है” “क्या हुआ था आपको” ? “अरे यार! अब ऐसे कैसे बता दें, हमें एक गुप्त रोग था” “कौन सा रोग” “अरे अब बता देंगे तो रोग गुप्त कैसे रह जाएगा, गुप्त है तभी तो उसे गुप्त रोग कहते हैं” “अरे इलाज़ क्या किया था इस चोर ने” “अब जो रोग गुप्त है तो इलाज़ भी गुप्त होगा न. बकवास करते हो. हवलदार डालो साले को गाड़ी में. इसको हवालात ले चलो और इसका तसल्लीबक्श इलाज़ करो. न जाने कहां-कहां से झोलाछाप हक़ीम आ जाते हैं. आता न जाता, चुनाव चिन्ह छाता”
निखिल की कहानियों की दो किताबें आ चुकी हैं. नमक स्वादानुसार और जिंदगी आइस पाइस. इनके अमेजन लिंक नीचे दिए गए हैं. पसंद आए तो जरूर खरीदें. किताबें हैं. काटती नहीं हैं.
    1. Namak Swadanusar
    2. Zindagi Aais Pais

कानपुर में कुछ सवा सौ लड़के, पिछले छह आठ साल से उसके पीछे पड़े थे बाप से पिटा, मां से लात खाई, तुमाई चुम्मी के लिए गुटखा छोड़ दें?

Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement