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क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ जाकर जंगलों का नया कानून बन रहा?

पर्यावरण पर काम करने वालों की चिंताएं सोचने पर मजबूर कर देंगी.

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वन संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2023 के विरोध में जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं (फोटो सोर्स- X @UnicornArtClub, Facebook)

संसद का मॉनसून सत्र जारी है. मणिपुर के लिए कौन जिम्मेदार? इस सवाल पर पक्ष-विपक्ष के बीच हंगामा और शोरशराबा जारी है. और जारी है- सदन का स्थगन. लेकिन इस बीच सदन से कई बिल पारित हो रहे हैं. 26 जुलाई को वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक-2023 लोकसभा से पारित कर दिया गया. और इसके तुरंत बाद लोकसभा को दिन भर के लिए स्थगित कर दिया गया. इस बिल का लंबे वक़्त से देश के कई हिस्सों में खासा विरोध किया जा रहा है. इसके पीछे पर्यावरणविदों की गंभीर चिंताएं हैं. बिल क्या कहता है? और इसमें क्या खामियां बताई जा रही हैं, विस्तार से जानते हैं.

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जंगलों के दर्द की कहानी में थोड़ा पीछे चलते हैं-

मौजूदा वक्त में भारत के जंगलों की स्थिति और इनके संरक्षण से जुड़े कानूनों का एक एक लंबा इतिहास है. आजादी के साथ ही देश के अधिकतर इलाकों में भूमि विवाद बढ़ रहा था. जिसे दूर करने के लिए सरकार ने एक फैसला किया. सरकार साल 1980 में वन संरक्षण अधिनियम लेकर आई. फिर आया 90 का दशक. इसमें औद्योगीकरण बढ़ा. लेकिन इस विकास की कीमत जंगलों के पेड़ चुका रहे थे. भारी तादाद में इनकी कटाई हो रही थी. पर्यावरण की खराबी, मृदा अपरदन (मिट्टी का कटाव), जलवायु संकट और प्रदूषण की चिंता खड़ी हुई. इसके समाधान की जरूरत थी. साल 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी. इतना ही नहीं कोर्ट ने वन संरक्षित भूमि के दायरे को बढ़ाने का निर्देश भी जारी किया. यही सिलसिला अब तक जारी है. अब तमाम विरोध के बावजूद 1980 के वन संरक्षण अधिनियम में कुछ संशोधन किए जाने हैं. इन संशोधनों का विधेयक लोकसभा में पारित किया जा चुका है, जहां सरकार के पास निर्णायक बहुमत है.

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बिल कब पास हुआ?

ये बिल पहली बार इस साल 29 मार्च को संसद के बजट सत्र में लोकसभा में पेश किया गया. सदन में कई विपक्षी नेताओं ने इस पर आपत्ति दर्ज कराई. इसके बाद बीते मार्च महीने में बिल को संयुक्त संसदीय समिति (JPC) के पास भेजा गया. इसके अध्यक्ष थे BJP नेता राजेंद्र अग्रवाल. कमेटी में लोगों के सुझाव आमंत्रित किए. कांग्रेस, TMC और DMK के कई नेताओं ने JPC को अपनी असहमति के नोट भेजे. लेकिन 20 जुलाई को जॉइंट कमेटी इन असहमतियों को खारिज करते हुए पर्यावरण मंत्रालय के सुझाए सभी संशोधनों को मंजूरी दे दी. और अपनी रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों को भेज दी. और 26 जुलाई 2023 को विधेयक को लोकसभा में 40 मिनट के भीतर ध्वनि मत से पारित कर दिया गया. बिल पर बहस होने और इसके पारित होने के दौरान JPC के अध्यक्ष राजेंद्र अग्रवाल ही पूरी कार्यवाही की अध्यक्षता कर रहे थे. क्योंकि लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला लोकसभा में मौजूद नहीं थे.

बिल के आने से मूल क़ानून में क्या बदलाव हुए?

संशोधन के इस विधेयक में कुछ कैटेगरी की जंगल की जमीनों को कानूनी दायरे से बाहर किया गया है-
- संशोधन के तहत सेक्शन 1(A) के सबसेक्शन 1 में कहा गया है कि उन जमीनों पर इस क़ानून के प्रावधान लागू होंगे (क़ानून के दायरे में शामिल होंगीं) जो 
a) वन अधिनियम, 1927 या किसी अन्य कानून के तहत वन के रूप में अधिसूचित हैं.
b) ऊपर लिखे क्लॉज़ (a) के तहत आने वाली जमीनों के अलावा, वो जमीनें जो 1980 के बाद सरकार द्वारा वन के रूप में अधिसूचित हैं.

इसका मतलब है, कोई भी ऐसी जमीन जो 1927 के वन अधिनियम या दूसरे किसी क़ानून के तहत फ़ॉरेस्ट की कैटेगरी में नोटिफाइड (अधिसूचित) नहीं की गई हैं और जो जमीनें 1980 के पहले बतौर फ़ॉरेस्ट रिकॉर्ड में हैं लेकिन किसी सरकारी रिकॉर्ड में नोटिफाइड (अधिसूचित) नहीं की गई हैं, वो वन संरक्षण के एक्ट के दायरे से बाहर रहेंगी. ये भी कहा गया है कि उन जमीनों पर कोई प्रावधान नहीं लागू होंगे, जिन्हें 12 दिसंबर 1996 या पहले 'जंगल के उपयोग' की जमीनों से गैर (जंगल) उपयोग की जमीनों में बदला गया है.

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कुछ जमीनें नए संशोधनों के प्रावधानों से बाहर भी की गई हैं-

संशोधन के तहत सेक्शन 1(A) के सबसेक्शन 2 में
a) जंगल की वो जमीनें जो रेल लाइन, पब्लिक रोड के किनारे हैं.
b) वो जमीनें जो ऊपर बताए गए 1(A) के सबसेक्शन 1 में शामिल नहीं हैं (निजी क्षेत्र की हैं) और उन पर वृक्षारोपण किया गया है, पेड़ लगाए गए हैं.
c) और ऐसी जंगल की जमीनें,
-जो इंटरनेशनल बॉर्डर से 100 किलोमीटर की दूरी के अंदर आती हैं. क्योंकि इनका इस्तेमाल राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी स्ट्रैटेजिक प्रोजेक्ट्स के लिए किया जा सकता है.
- दस हेक्टेयर तक सुरक्षा से जुड़े निर्माण के लिए प्रस्तावित जमीनें, 
-रक्षा क्षेत्र, पैरामिलिट्री फोर्सेज के कैम्प, सार्वजानिक उपयोग के प्रोजेक्ट्स के लिए प्रस्तावित जमीनें. माओवादी उग्रवाद से प्रभावित क्षेत्रों में इसकी सीमा 5 हेक्टेयर से ज्यादा नहीं होगी. 
-इसके अलावा संशोधन के तहत अब इस क़ानून का नाम बदलकर वन संरक्षण एवं संवर्धन अधिनियम, 1980 कर दिया जाएगा.

सरकार ने क्या तर्क दिए?

विधयेक पर बहस के दौरान, केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने जलवायु संकट पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं की बात कही. भूपेंद्र यादव ने कहा कि जलवायु संकट के मद्देनजर राष्ट्रीय स्तर पर तय किए गये योगदान के लिए तीन लक्ष्य रखे गए थे. इन तीन लक्ष्यों में से दो लक्ष्य हासिल कर लिए गए हैं. लेकिन  2.5 से 3.0 बिलियन टन CO2 इक्वीवैलेंट का कार्बन सिंक बनाने का लक्ष्य अभी पूरा नहीं हुआ है. मोटा-माटी जंगलों को कार्बन सिंक माना जाता है. क्योंकि पेड़ कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करते हैं.

भूपेंद्र यादव ने कहा,

"ये उद्देश्य पूरी दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है. और इसे पूरा करने के लिए हमें एग्रोफॉरेस्ट्री (कृषि वानिकी) पर ध्यान देने और ट्री-कवर (वृक्ष आवरण) बढ़ाने की जरूरत है."

भूपेंद्र यादव के मुताबिक मौजूदा कानून में कुछ प्रतिबंधों के चलते, कुछ वामपंथी उग्रवाद (Left Wing Extremism) प्रभावित क्षेत्रों में विकास रुक गया है. और हम चाहते हैं कि सभी जरूरी सार्वजानिक सुविधाओं के प्रोजेक्ट्स इन इलाकों में पहुंचें.

वो कहते हैं,

“भारत-चीन सीमा (LAC) और भारत-पाकिस्तान सीमा (LOC) से 100 किलोमीटर तक के जंगल के इलाकों को छूट देने से जरूरी सड़कें बनाने में, हमारी नेशनल सिक्योरिटी के लिए रणनीतिक रूप से जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवेलप करने में मदद मिलेगी.”

पर्यावरण मंत्री कहते हैं कि JPC ने पहले बिल की समीक्षा की. उसके बाद ही फिर प्रस्तावित किए गए सभी संशोधनों को पारित किया गया है.

इन संशोधनों पर दिक्कत किसे है और क्यों है?

हर संशोधन के लिए सरकार का अपना तर्क है. वो हमने आपको बताया, लेकिन इसका विरोध करने वालों की अपनी चिंताएं हैं. हिंदुस्तान टाइम्स में छपी जयश्री नंदी की रिपोर्ट के मुताबिक, JPC की तरफ से संशोधनों को मंजूरी मिलने से पहले 18 जुलाई को करीब 400 लोगों ने भूपेंद्र यादव को पत्र लिखा था. इन लोगों में पर्यावरणविद, वैज्ञानिक और प्रकृति की चिंता करने वाले लोग थे. इनका आग्रह था कि इस बिल को सदन में न पेश किया जाए. क्लाइमेट चेंज और पर्यावरण की गिरावट और पूरे उत्तर-भारत में बाढ़ का हवाला दिया गया. मांग की गई कि बिल को सदन में पेश किए जाने से पहले विशेषज्ञों से बात की जाए.

इस पत्र में कहा गया,

"ये वक़्त सरकार के लिए देश की जैव-विविधता की रक्षा के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाने का है. इस बिल में संशोधन किया गया तो ये भारत के जंगलों की गिरावट (कटाई) को और तेज करने की कोशिश होगी."

इसके पीछे तर्क क्या है?

जैसा हमने आपको ऊपर बताया, बिल में सिर्फ वही जमीनें शामिल हैं जिसे साल 1927 के भारतीय वन अधिनियम या किसी भी और कानून के तहत वन के रूप में घोषित किया गया है. पूर्वोत्तर के लगभग सभी इलाके इस कैटेगरी में आते हैं.

एक्सपर्ट्स का कहना था कि कानून में संशोधन हुआ तो ये सुप्रीम कोर्ट के साल 1996 के गोदावर्मन जजमेंट को कमजोर कर सकता है. असल में गोदावर्मन जजमेंट से साल 1980 के फ़ॉरेस्ट कंजर्वेशन के क़ानून का दायरा और बढ़ गया था. इस फैसले के तहत कोई भी जमीन जिसे रिकॉर्ड में जंगल कहा गया हो वो संरक्षण के दायरे में आती है, भले ही इसका मालिक कोई भी हो. माने निजी मालिकाना हक़ की जमीन हो या सरकारी, अगर जमीन जंगल की है तो उसमें कटान नहीं हो सकता. मिसाल के लिए नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों में और गुजरात में ऐसी जंगल की जमीनें बड़े पैमाने पर हैं जिनको क्लासीफाई नहीं किया गया है और उनको स्थानीय समुदायों के लोग अपने इस्तेमाल में ले रहे हैं. लेकिन ऐसी जमीनों को क़ानून के दायरे से बाहर कर देना, जो साल 1980 से पहले वन के तौर पर अधिसूचित नहीं हैं, साल 1996 के कोर्ट के फैसले के खिलाफ जा सकता है.

बिल का विरोध (फोटो सोर्स- सोशल मीडिया)

बिल का विरोध कर रहे एक्सपर्ट्स का तर्क ये भी है कि सीमाई इलाकों से 100 किलोमीटर के दायरे में जमीनों को नए संशोधन में छूट देना पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों के लिए नुकसानदायक हो सकता है.

एक एक्सपर्ट ने जिन्होंने JPC को समस्याएं बताईं थीं, उन्होंने अख़बार से बात करते हुए कहा,

"नॉर्थ ईस्ट में अगर आप हर सीमा से 100 किलोमीटर का इलाका छोड़ रहे हैं तो क्या बचेगा? ये बहुत संवेदनशील इलाका है. वैसे भी यहां कुछ समुदायों के साथ दिक्कतें हैं. इन समुदायों के पास संविधान की छठी अनुसूची के तहत जंगलों पर पारंपरिक और उनकी प्रथाओं के चलते अधिकार हैं. मेरा मानना है कि ये अधिकार कम हैं."

बता दें, छठी अनुसूची के तहत असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम में आदिवासी क्षेत्रों के लिए स्वायत्त प्रशासन का प्रावधान है. इस पर पर्यावरण मंत्रालय का कहना है कि 100 किलोमीटर का प्रावधान रक्षा मंत्रालय के सुझाव पर तय किया गया है. और ऐसा देश के रक्षा संस्थानों और कूटनीतिक जरूरतों के लिए जरूरी है. ये भी कहा गया कि सीमाई इलाकों और वामपंथी उग्रवाद के क्षेत्रों में ये छूट, सामान्य नहीं है और इसके चलते निजी संस्थानों को जमीन उपलब्ध नहीं होगी.

एक्सपर्ट्स का ये भी कहना था कि ये बिल, फ़ॉरेस्ट राइट्स एक्ट के प्रावधानों का भी उल्लंघन करता है, क्योंकि फ़ॉरेस्ट क्लीयरेंस के लिए, गांवों की परिषदों की सहमति के बारे में इसमें स्पष्टता नहीं है.

बिल के विरोध की एक और तस्वीर (फोटो सोर्स- सोशल मीडिया)

कांग्रेस नेता प्रद्युत बोरदोलोई, JPC के सामने असहमति दर्ज करवाने वालों में से एक थे. वो भी कहते हैं कि संशोधन के कथन और इसके लक्ष्य (ऑब्जेक्टिव) में फर्क है. उनके मुताबिक, वन संरक्षण और वन अधिकारों के बीच सामंजस्य नहीं है. इस सामंजस्य की जरूरत बताते हुए वो कहते हैं,

"कानून में जो भी संशोधन किए जाने हैं, वो अनिवार्य रूप से वन अधिकारों पर भी लागू होंगे. लेकिन इस बारे में स्पष्टता नहीं है कि अभी लोगों के पास जंगल की जमीन से जुड़े जो मालिकाना, परम्परागत या आजीविका से जुड़े अधिकार हैं उन्हें कैसे देखा जाएगा."

लेकिन पर्यावरण मंत्रालय किसी भी प्रावधान के उल्लंघन की बात से इंकार करता है. जबकि विरोध करने वाले लोगों के मुताबिक, बिल में ये भी कहा गया है कि किसी भी देश के जरूरी किसी रणनीतिक महत्व का प्रोजेक्ट या इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाए जाने के लिए पहले से कोई मंजूरी लेने की जरूरत नहीं है.

इसके अलावा, बिल में चीन और पाकिस्तान से सटी सीमाओं और वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित इलाकों की सीमाओं पर कूटनीति और सुरक्षा से जुड़े प्रोजेक्ट्स में तेजी लाने की बात भी कही गई. पर्यावरण मंत्रालय ने जोर देकर कहा कि बिल में छूट की जरूरत इसलिए है क्योंकि मौजूद क़ानून का दायरा साफ नहीं है, सरकारी रिकॉर्ड में स्पष्टता नहीं है और कनेक्टिविटी बढ़ाने की जरूरत है.

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