The Lallantop

'शहर की जिंदगी ज़्यादा नीरस होती, जो जाड़ों में मूंगफली के खोमचे न होते'

अनिल यादव की नई किताब 'सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है' के अंश.

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फोटो - thelallantop
भंते. अनिल यादव फक्कड़ आदमी है. पत्रकार था. किसी मंतरी और संतरी को मुंह नहीं लगाया. पॉलिटिक्स कवर करता था. अपनी ईमानदारी भी कवर किए रहा. न्यूजरूम में सब कहते. भंगेड़ी है ससुरा. दुनियादारी की डैश समझ नहीं. पर उन्हें समझाए कौन. कि पिनक में तो सब हैं. बस इसकी तुमसे मैच नही करती. खैर. एक दिन ऐसे ही सनक सुट्ट में लौंडे ने उठाया झोला. दसियों साल पहले. और चला गया नॉर्थ ईस्ट. बोला, असम में बिहारी मजदूर मारे जा रहे हैं. उन पर रिपोर्टिंग करूंगा. जैसे दिल्ली की टीवी और अखबारों को सारा ऐड वहीं से मिलता हो. पर बाजार उसके लिए तीन टाइम का खाना, गाना भर देता था. बाकी वो अपने भीतर ही उगा लेता था. सो निकल पड़ा. घूमा. लौटा होगा कभी. राम जाने. ऐसों का कोई भरोसा भी तो नहीं. नहीं, नहीं. फिर उसने एक दिन पोथी लिख दी. नाम धरा, ‘वह भी कोई देस है महराज’. और मैं छाती ठोंककर कहता हूं. हिंदी में इस तरह की दूसरी कोई किताब नहीं लिखी गई. न जबान के मामले में, न जान के मामले में. अगर आपने ये किताब नहीं पढ़ी है तो फौरन इंटी-गुलंटी बांध लो. और तभी खोलना, जब खोजकर, खरीदकर पढ़ लो. यादव जी चंपे हुए हैं. उन्होंने एक और तेजाबी किताब लिख मारी. कहानियों की. उसका नाम है ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’. आप इसको पढेंगे न. तो मन ऐसा हो जाएगा कि जैसे मसट्ट मारके बिना हल्ला किए कोई भारी गम आ जाए और आदमी रोना भूल जाए. जो आवाज निकले, वो निरी अजानी और बेसुरी हो. इस किताब की कहानियों का सच ऐसा ही है. अब आ रही है इनकी नई किताब. नाम है 'सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है'. बताओ ये भी कोई नाम हुआ? फेसबुक-ट्विटर के पर चल रहे मजाक को किताब में लिख डाला! यही हैं अनिल यादव. अनिल, आपकी नई किताब आपको खूब मुबारक. स्वस्थ रहो गुरु. ताकि भोलेशंकर के परसाद में लौ लगी रहे. परिवार पर नेह बरसता रहे. और कलम थरथराए नहीं. स्याही सूखे नहीं. - सौरभ 
  अब पढ़िए अनिल की इस नई किताब के कुछ अंश. मजा न आए तो पैसे वापस.
 

1. मच्छर—संगीत की स्वरलिपि

एक आदमी के मन में कितनी इच्छाएँ होती हैं, शायद इसे कभी जान लिया जाएगा लेकिन इस रहस्य से कभी पर्दा नहीं उठ सकेगा कि राजधानी लखनऊ समेत यूपी में डेंगू से अब तक कितने मनुष्य मर चुके हैं. सरकारी, गैरसरकारी विशेषज्ञों से अब तक इतना पता चल पाया है कि डेंगू एक खास तरह के मच्छर के काटने से होने वाली बीमारी है जिससे बच कर रहना चाहिए. हम सब अपने अनुभव से जानते हैं कि मच्छर काटने से पहले गाना गाते हैं. इस गाने की महीन धुन में एक महान चुनौती है, एक हुंकार है. वे पूछते हैं कि आपने कई परमाणु परीक्षण कर दुनिया को बता दिया कि एटम बम बना सकते हैं, आपके डॉक्टरों की दुनिया भर में साख है और अब दुनिया के नक्शे पर आर्थिक सुपर पॉवर बनने जा रहे हैं लेकिन आप हमारा बाल-बांका क्यों नहीं कर पाए? यह गाना और गंभीर इसलिए हो जाता है क्योंकि इसे ऐसा कीट गा रहा है जिसने दुनिया में किसी भी जानवर की तुलना में सबसे ज़्यादा मनुष्यों को मौत की नींद सुलाया है. मच्छरों पर दुनिया भर में घूम कर शोध करने में जि़ंदगी लगा देने वाले हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एन्ड्रयू स्पीलमैन और पुलित्जर विजेता पत्रकार माइकेल डी. एन्तोनियो ने एक अद्भुत किताब लिखी है. इस किताब, ‘मस्कीटो : ए नेचुरल हिस्ट्री आफ अवर मोस्ट परसिस्टेन्ट एंड डेडली फो’ में स्पीलमैन तथ्यात्मक ढंग से बताते हैं कि ये मच्छर ही थे जिन्होंने सिकन्दर और चंगेज खां की सेनाओं को हरा दिया था और उनके विश्वविजेता बनने के ख्वाब धरे रह गए. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय डीडीटी (डाइक्लोरो डाइफिनाइल ट्राइक्लोरो ईथेन) आने के बाद वैज्ञानिकों ने मान लिया था कि मच्छर खत्म हो गए लेकिन यह भ्रम था. वे ज़्यादा ढीठ होकर नए क्षेत्रों में फैलते गए और आज भी सारी दुनिया में नरसंहार का गाना गाते मंडरा रहे हैं. लेकिन ये वैज्ञानिक हमारी हिंदी पट्टी के मच्छरों को नहीं जानते. पौन इंच से भी छोटे आकार के इन मच्छरों ने सरकारों, दवाओं और आदमियों का स्वभाव बदल डाला और उनसे अभयदान पा लिया है. ढाई-तीन दशक पहले जब न तकनीक थी न इतने संसाधन, गांवों की दीवारों पर स्वास्थ्य विभाग के कारिन्दे सफाई रखने और कुनैन की गोली खाने की सलाहें लिख रहे थे, बच्चों की जाँच के लिए स्कूलों में खून की स्लाइडें बन रही थीं और छोटे कस्बों में दवाओं का छिडक़ाव हो रहा था. आम लोगों को लगता था कि सरकार को उनकी जान की फिक्र है और मलेरिया बस थोड़े दिनों का मेहमान है. जब से शेयर बाज़ार के रास्ते देश को सुपर पावर बनाने का रायता फैलना शुरू हुआ, सबकुछ बदल गया. मच्छर तो वही रहे लेकिन वह आदमी बदल गया जो मलेरिया, डेंगू और कालाजार से लडऩे चला था. वह खुद मच्छर हो गया और सरकारी परियोजनाओं से रकम चूसने लगा. उम्मीद की जगह हताशा ने ली और आम आदमी ने खुद को रामभरोसे छोड़ दिया. मच्छरों ने यह कारनामा कैसे किया, इसका रहस्य संगीत की उस स्वरलिपि में है जिसमें उनके गाने की ताल, मात्राएँ और राग दर्ज हैं. वह भ्रष्टाचार के संगीत की स्वरलिपि है जिसे हम सब अच्छी तरह जानते हैं. मच्छर गा रहे हैं और उनके विनाश की परियोजनाएँ चलाने वाले नेताओं, प्रशासकों, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका उस महीन धुन पर थिरक रहा है. विचित्र संगीत समारोह जारी है.

2. सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है

पहली बार किसी ने दस रुपए के नोट पर लिखा होगा, सोनम गुप्ता बेवफा है, तब क्या घटित हुआ होगा? क्या नियति से आशिक, मिजाज से आविष्कारक कोई लड़का ठुकराया गया होगा, उसने डंक से तिलमिलाते हुए सोनम को बदनाम करने की गरज से उसे सरेबाज़ार ला दिया होगा. या वह सिर्फ फरियाद करना चाहता था, किसी और से कर लेना लेकिन इस सोनम से दिल न लगाना. क्या पता सोनम को कुछ खबर ही न हो, वह सडक़ की पटरी पर मुँह फाड़ कर गोलगप्पे खा रही हो, जि़ंदगी में तीसरी बार लिपिस्टिक लगाकर होठों को किसी गाने में सुने होंठों जैसा महसूस रही हो, अपनी भाभी के सैंडिलों में खुद को आजमा रही हो और तभी वह लडक़े को ऐसी स्वप्न सुंदरी लगी हो जिसे कभी पाया नहीं जा सकता. लडक़े ने चाहा हो कि उसे अभी के अभी दिल टूटने का दर्द हो, वह एक क्षण में वो जी ले जिसे जीने में प्रेमियों को पूरी जि़ंदगी लगती है, उसने किसी को तड़प कर बेवफा कहना चाहा हो और नतीजे में ऐसा हो गया हो. यह भी तो हो सकता है कि किसी चिबिल्ली लडक़ी ने ही अपनी सहेली सोनम से कट्टी करने के बाद उसे नोट पर उतार कर राहत पाई हो. जो भी हुआ हो लेकिन वह वैसा ही आविष्कारक था या थी जैसा समुद्र से आती हवा को अपने सीने पर आँख बंद करके महसूस करने वाला वो मछुआरा या मुसाफिर रहा होगा जिसे पहली बार नाव में पाल लगाने का इल्हाम हुआ होगा. या वह आदमी जिसने इस खतरनाक और असुरक्षित दुनिया में बिल्कुल पहली बार अभय मुद्रा में कहा होगा, ईश्वर सर्वशक्तिमान है. उसने नोट के हज़ारों आँखों से होते हुए अनजान ठिकानों पर जाने में छिपी परिस्थितिजन्य ताकत को शायद महसूस किया होगा, वो भी ऐसे वक्त में जब हर नोट को बड़े गौर से देखा जा रहा है, उसके बारे में आपका नज़रिया आपको देशभक्त, कालाधनप्रेमी या स्यूडोसेकुलर कुछ भी बना सकता है. नोटबंदी के चौकन्ने समय में सोनम गुप्ता सारी दुनिया में पहुँच गई, उसके साथ वही हुआ जो सूक्तियों के साथ हुआ करता है. वे पढऩे-सुनने वाले की स्मृति, पूर्वाग्रहों, वंचनाओं और कुंठाओं के साथ घुलमिल कर बिल्कुल अलग कल्पनातीत अर्थ पा जाती हैं. यह रहस्यमय प्रक्रिया है जिसके अंत में किसी स्कूल या रेलवे स्टेशन की दीवार पर लिखा ‘अच्छे नागरिक बनिए’ जातिवाद के जहर के असर में झूमते समाज में ज़रा सा स्वाराघात बदल जाने से प्रेरित करने के बजाय कहीं और निशाना लगाने लगता है. सबसे लद्धड़ प्रतिक्रियाएँ सरसों के नकली तेल के झार की तासीर वाली नारीवादियों की तरफ से आईं जिन्होंने कहा, सोनू सिंह या संदीप रस्तोगी क्यों नहीं? उन्हें सोनम गुप्ता नाम की लड़कियों की हिफाजत की चिंता सताने लगी जिन्हें सिर्फ इसी एक कारण से छेड़ा जाने वाला था और यह भी कि हमेशा औरत ही बेवफा क्यों कही जाए. हमेशा घायल होने को आतुर इस ब्रांड के नारीवाद को अंजाम चाहे जो हो, ‘सपोज दैट’ में भी मर्द से बराबरी चाहिए. जूते के हिसाब से पैर काटने की जि़द के कारण वे अपनी सोनम को ज़रा भी नहीं पहचान पाईं. इन दिनों देश में पाले बहुत साफ खिंच चुके हैं और एक बड़े गृहयुद्ध से पहले की छोटी झड़पों से आवेशित गर्जना और हुंकारें सुनाई दे रही हैं. एक तरफ आरएसएस की उग्र मुसलमान विरोधी विचारधारा और प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिपूजा की केमिस्ट्री से पैदा हुए भक्त हैं जो बैंकों के सामने लगी बदहवास कतारों में से छिटक कर गिरने वालों की बेजान देह समेत हर चीज़ को देशभक्ति और देशद्रोह के पलड़ों में तौल रहे हैं. दूसरी तरफ मामूली लोग हैं जिनके पास कुछ ऐसा भुरभुरा और मार्मिक है जिसे बचाने के लिए वे उलझना कल पर टाल देते हैं. भक्त सरकार के कामकाज को आंकने, फैसला लेने का अधिकार छीनकर अपना चश्मा पहना देना चाहते हैं और जो इनकार करे गद्दार हो जाता है. हर नुक्कड़ पर दिखाई दे रहा है, अक्सर दोनों पक्षों के बीच एक तनावग्रस्त, असहनीय चुप्पी छा जाती है. तभी सोनम गुप्ता प्रकट होती है जो लगभग मर चुकी बातचीत को एक साझा हँसी से जिला देती है. सोनम गुप्ता उस युद्ध को टाल रही है. उसकी बेवफाई से अनायास भडक़ने वाली जो हँसी है उसमें कोई रजामंदी और खुशी तो कतई नहीं है. सब अपने अपने कारणों से हँसते हैं.
 

Sonam Gupta Bewafa Nahi hai-Anil Yadav

3. कम्पनी बाग के देसी फूल

उन्हें यहाँ देखकर अनायास पीटर्सबर्ग में पढऩे वाले दोस्तोवस्की की आत्मपीड़ा में डूबे छात्र याद आते हैं. प्रयाग में खड़े होकर पीटर्सबर्ग को याद करने की वजह कोई बौद्धिक चोंचलापन नहीं है. सीधी सी बात यह है कि सडक़ों पर और गलियों में सबसे अधिक वही दीखते हैं, फिर भी अपने साहित्य में कहीं नज़र नहीं आते यह हिंदी के बाबू टाइप के लेखकों का मोतियाबिन्द है, उसकी वजह से दोस्तोवस्की और चेखव से उधार माँग कर काम चलाना पड़ता है. साहित्य ही क्यों वे नाटकों, फिल्मों, अखबारों में भी नज़र नहीं आते. हिंदी में छात्रों के नाम पर अक्सर गुनाहों का देवता मार्का ‘चंदर’ ही नज़र आते हैं जो भूरे रंग की सैंडिल पहनते हैं, जिनके माथे पर बालों की एक लट लापरवाही से झूलती रहती हैं और जिनकी मोहनी मुस्कान पर लड़कियाँ निसार हुई रहती हैं. जि़ंदगी भर दलिद्दर भोगने के बावजूद हिंदी का लेखक पता नहीं क्यों यथार्थ से मुँह चुराते हुए हाय चंदर हाय चंदर करता रहता है. सोने से दिल और लोहे के हाथों वाले ये लडक़े कभी कभार फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों में जुगनू की तरह चमक उठते हैं फिर अंधियारे में खो जाते हैं. बहुत ढूंढने पर एक काशीनाथ सिंह मिले, जिन्होनें ‘अपना मोर्चा’ में ‘ज्वान’ के ज़रिए विश्वविद्यालय को लेकर एक फंतासी बयान की है. ‘अपना मोर्चा’ शायद हिंदी का अकेला दुबला-पतला उपन्यास है जिसमें ऐसे छात्रों की कहानी कही गई है, जो जब एडमिशन लेने आते थे तो उनके बालों में भूसे के तिनके फँसे होते थे और घुटनों पर बैलों की दुलत्ती के निशान पाये जाते थे. जो सडक़ पर गुज़रते बैलों को ‘सोकना’ और ‘धौरा’ कहकर पहचानते थे, जो घर से सतुआ, पिसान और गुड़ लाते थे और जिनकी जाँघें लंगोट की काछ से बरसात के दिनों में कट जाया करती थीं. उपन्यासों और कहानियों से बेदखल हो कर वे कहीं गए नहीं, वे यहीं हैं, हमारे अगल-बगल और पड़ोस में, वे इन दिनों भी डिग्री वाले विश्वविद्यालय से लेकर जीवन के टेढ़े-मेढ़े गलियारों तक अपने अस्तित्व की पीड़ा भरी खामोश लड़ाई लड़ रहे हैं. हो यह रहा है कि बाज़ार, कंपनियाँ, विश्वविद्यालय, सरकार और मीडिया इन दिनों छात्रों की जो चिकनी-चिकनी प्यारी-प्यारी छवियाँ बेच रहें हैं, उनकी चकाचौंध में धूप से पक कर कांसा हुए चेहरों वाले ये लडक़े कहीं किनारे भकुआए खड़े रह जाते हैं, उन पर किसी की नज़र नहीं जाती. उनसे मिलना है तो आजकल किसी दिन दुपहरिया में इलाहाबाद के कंपनी बाग में आइए, विक्टोरिया टावर के पास किसी झुरमुट में तीन छल्ले की झूलन सीट और चौड़े कैरियर वाली इक्का दुक्का साइकिलें दिखेंगी, गियर वाली डिजाइनर छरहरी साइकिलों के बीच वे चौड़ी हड्डियों वाले मजबूत देहाती की तरह लगती हैं. इन्हें वे गाँव से अपने साथ लाए हैं. किसान परिवार में और एक जोड़ा मेहनती हाथ जोडऩे की ज़रूरत के चलते वे बहुत कम उम्र में ब्याह दिये जाते हैं. इन दिनों सरकार यह कह रही है कि धनी परिवारों के छात्र ही विश्वविद्यालय में पढऩे आते हैं इसलिए उच्च शिक्षा के सस्ते होने का कोई औचित्य नहीं है. यह महान सूत्र खोजने वाले जड़ ज़मीन से कटे नेताओं और बाबूओं को जान लेना चाहिए कि जिन्हें अब भी दहेज में यह साइकिल, चपटे मॉडल वाली एचएमटी सोना घड़ी और बाजा मिलता है, वे इन्हीं विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं और उनकी तादात बहुत ज़्यादा है. उनका किसी बैंक में कोई खाता नहीं है, जिसमें उनके माँ बाप के भेजे चेक जमा होते हों. वे हर महीने गाँव जाते हैं और अनाज बेचकर पढ़ाई का खर्चा लाते हैं. वे औने-पौने अनाज बेचने की तकलीफ जानते हैं इसीलिए घरों से शहर वापस लौटते हुए जेब भरी होने के बावजूद गुमसुम रहते हैं. वे हमारे गाँवों के सबसे होनहार लोग हैं जो बहुत ही क्रूर और सघन सामाजिक चयन से गुज़रकर यहाँ पहुँचते हैं. वे अपने घर और ससुराल के आशाओं के केन्द्र हैं. वे खिड़कियाँ हैं जो सपनों की आधुनिक दुनिया में खुलती हैं. इन्हीं सपनों में झूलते ढेर सारे गाँव जीते हैं. वे यहाँ कंपनी बाग की मुलायम अभिजन दूब पर बैठकर ऊँचे रुतबे की नौकरियों के लिए हर साल होने वाली प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी करते हैं. कलेक्टर, कप्तान या मुंसिफ होना उनके लिए बहुत दूर का सपना है. इस सपने की बात छोडिय़े, उनका पीछा करने में ही बड़ा थ्रिल है. वे इसी रोमांच में जीते हैं. कंपनी बाग के रुमानी झुरमुटों में किताबों के साथ होना भी उनके लिए बड़ी बात है क्योंकि वे सस्ते किराए की जिन कोठरियों में रहते हैं, पकाते हैं, वहाँ हवा और रोशनी आने की मनाही है. वहाँ काइयाँ और लोलुप मकान मालिकों की पाबंदियाँ और नखरे हैं. चालीस वॉट से ज़्यादा पॉवर का बल्ब जलाने पर कोई बल्ब फोड़ देता है तो कोई रात में पाखाने में ताला लगाकर सोता है. ये लडक़े किरोसिन तेल की तलाश में जेब में परिचय पत्र और हाथ में कनस्तर लिए लाइनों में लगते हैं, खर्च चलाने के लिए ट्यूशन पढ़ाते हैं. सेकेंड हैंड किताबें और किलो के भाव बिकने वाली कापियाँ तलाशते हैं. शहर की इन अंधेरी कोठरियों और क्लास में टिके रहने की जद्दोजहद ही इनमें से कइयों को इतना थका डालती है कि उनकी कमीजें पेड़ों की टहनियों पर लटकती मिलती हैं. किताबों के इर्दगिर्द उन्हें देखकर यह नतीजा निकालना कत्तई गलत होगा कि ये लडक़े बहुत मेधावी हैं और उन सबमें ज्ञान की अदम्य पिपासा है. इनमें से ज़्यादातर के लिए शिक्षा हंसिए जैसा कोई औजार है जिससे वे अपने भविष्य के रास्ते पर उगे झाड़-झंखाड़ की निराई करते हैं. अगर उनकी मेधा जाननी है तो उन्हें लार्ड मैकाले के नहीं किसी और पैमाने पर जाँचिए. आप इनमें किसी को अंग्रेज़ी में सोशियोलॉजी लिखने को कहें और वह सुशीला जी लिख दे तो हंसिए मत, वे आपको आधुनिक वर्णाश्रम और जातिवाद की सामाजिक इंजीनियरी कई दिनों तक लगातार पढ़ा सकते हैं क्योंकि इसे उन्होंने पढ़ा और सुना नहीं, भोगा और जिया है. अभी-अभी ग्राम पंचायतों के चुनाव बीते हैं, उसमें वे गले-गले तक डूबे थे. जातिवादी राजनीति का एक-एक पेंच वे जानते हैं. आने वाले दिनों में इस चुनाव से उपजे नए दोस्ती और दुश्मनी के समीकरणों का दंश भी वे झेलेंगे. इनमें से कितने ऐसे हैं जो जर-ज़मीन के झगड़ों की तारीखों पर हर तीसरे महीने मुफस्सिल की कचहरियों में जाते हैं. उन्हें भारतीय यथार्थ की गहरी समझ है लेकिन उनके पास प्रोफेसरों के बौद्धिक लटके-झटके और अदाएँ नहीं हैं कि वे उसे वातानुकूलित सभागारों में बयान कर सकें. कभी-कभी इलीट और कॉमनर के बीच की चौड़ी सांस्कृतिक खाई और कभी-कभी तो हमारी शिक्षा पद्धति ही चीन की दीवार बन जाती है. यथार्थ की इस समझदारी और समाज से उनके गहरे सरोकारों की वजह से ही वे हमेशा संघर्षों के बीच फँसे नज़र आते हैं. याद कीजिए आपने आखिरी बार जो छात्रों का जूलूस देखा था उसके सबसे अधिक चेहरे कैसे थे? यही हैं वे जो लाठी चार्ज के बाद अस्पताल में और गिरफ्तारी के बाद जेलों में सबसे अधिक पाए जाते हैं. वे चुपचाप लड़ते हैं और इस संघर्ष का कभी प्रतिदान नहीं माँगते और न ही शहरी बाबुओं की तरह ‘आई हेट पालिटिक्स’ जैसे जुमले बोलकर नकली हँसी हँसते हैं. उनके बारे में इतनी बातचीत का सबब, एक अध्यापक का वो बयान है जिसमें उन्होंने कहा है कि उच्चशिक्षा सरकार का संवैधानिक दायित्व नहीं है. यह अध्यापक संयोग से भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री भी है. इधर देश की सरकार दुकानदार जैसा सलूक कर रही है जो शिक्षा को उन्हीं लोगों के हाथों बेंचना चाहता है, जो उसकी ज़्यादा कीमत दे सकें. यही वजह है कि फीसें धुआँधार बढ़ी हैं. और विश्वविद्यालय में सीटें कम हो रही हैं. ऐसे पाठ्यक्रमों को प्रात्साहित किया जा रहा है जिन्हें पढक़र अधकचरी जानकारी वाले आपरेटर, सेल्समैन और मैनेजर पैदा होते हैं. इनका अपने धंधे और पैसे के अलावा किसी और चीज़ से सरोकार नहीं होता. इस कठिन समय में गाँवों के ये लडक़े कहाँ जाएँगे? क्योंकि उनके पास पैसा ही नहीं है, बाकी सब कुछ है. कोई ताज्जुब नहीं कि आने वाले दिनों में आपको विश्वविद्यालय परिसरों में से लडक़े न दिखाई पड़े. वे कंपनी बाग में खिले देशी फूल हैं. उन्हें जी भरकर देख लीजिए. क्या पता कल रहें न रहें.
 

4. शरद में मूंगफली के खोमचे

जाड़ा आते ही मूंगफली के खोमचे अवतरित होते हैं जो शहर की सरपट भागती जि़ंदगी को आमूल चूल बदल डालते हैं. इन ठेलों के आसपास ट्रैफिक ज़रा घूम कर, सहमते हुए गुज़रता है क्योंकि उसका एक हिस्सा सोंधी महक और गुमनाम से स्वाद के आकर्षण में ठिठक चुका होता है. जिस स्पेस में लोग ठिठक कर मूंगफलियाँ फोड़ रहे होते हैं उसमें बहुत सारा अवकाश, स्मृतियाँ और किस्से होते हैं. यकीन मानिए कि अगर जाड़ों में मूंगफली के खोमचे न होते तो शहर की जि़ंदगी कुछ और ज़्यादा नीरस और तनाव भरी होती. यह परिवर्तन योजनाबद्ध तरीके से घटित करना अपनी चिंताओं में मुब्तिला आदमियों के बस की बात नहीं थी इसलिए मूंगफलियों को भूमिका निभानी पड़ी. ये मूंगफलियाँ जब घरों में जाती हैं तो एक नया आत्मीय परिदृश्य रचती हैं जिसमें परिवार के सदस्य रजाई में घुसे मूंगफलियाँ तोड़ते और बाद में छिलकों के ढेर में एक अदद साबुत मूंगफली की तलाश करते दिखाई देते हैं. कुछ खोमचे ऐसे होते हैं जिनपर खासी भीड़ जुटती है. ऐसा चटनी के कारण संभव होता है. किसी-किसी की चटनी में पुरातन, घरेलू लेकिन इंद्रियों के पार ले जाती एक लपक होती है जिसका पीछा करते लोग दूर-दूर से वहाँ पहुँचते हैं. चटनी उस खोमचे वाले का यूनिक सेलिंग प्रपोर्शन (यूएसपी) बन जाती है जिससे उसका लंबा-चौड़ा परिवार जिसका सबसे नया सिरा शहर में रहता है और पुराना वाला गाँव में, बड़े मज़े में चलता है. खोमचे वाले की मोटी, अनगढ़ उंगलियों के चुन्नट से बंधती चटनी की वह पुडिय़ा एक वरदान, एक जादू की पुडिय़ा लगती है जो एक बड़े परिवार का भरण पोषण कर सकती है. पुरानी कहानियों के मंत्रसिद्ध शंख, फूल या पात्र की तरह जिनसे कुछ भी पाया जा सकता था. अचानक एक खोमचे वाले की पुडिय़ा का रहस्य मुझे पता चल गया. वह खोमचा समेट कर घर जाने की तैयारी में था और मैं आखिरी ग्राहक आन पहुँचा. ज़्यादा चटनी देने के आग्रह पर उसने दरियादिली से कहा, जितनी चटनी है सब ले जाएँ क्योंकि हर दिन सिलबट्टे पर ताजी चटनी पीसनी पड़ती है. देने का भाव आया तो स्वाभाविक ही वह ज़रा सा वाचाल हो गया. उसने स्वगत कहा, अगर मिक्सी में पीसो तो मशीन की गरमी से धनिया जल जाती है और लोग कहते हैं कि चटनी में धनिया की जगह मूली के पत्ते डाले हैं. धनिये और अदरक का स्वाद तो सिलबट्टे से ही आ पाता है. वाकई यह एक रहस्य था. जो अचक्के खुल गया. कैसे छोटे-छोटे रहस्य कई जि़ंदगियों को टिकाए, बनाए और आगे विकसित करते रहते हैं. वैसे यह कोई छोटा रहस्य भी नहीं है. इसका पता कई पीढिय़ों ने पत्थर, घर्षण, तापमान और धनिए की तासीर के संबंध को परखने के बाद पाया होगा. हम किसी का ई-मेल नहीं जानते, फोन नंबर नहीं जानते, कोई खास आदत नहीं जानते ये सब रहस्य हैं. अगर जानते तो जि़ंदगी जो आज है शायद उससे अधिक संतोषजनक होती. अगर सब जान ही जाते तो अनजाने के प्रति जो खिंचाव यानी जि़ंदगी का एक्सीलेरेटर है वह नहीं होता. रहस्य ज़रूरी है. उसके बिना जीवन खत्म हो जाता है. हम मरने लगते हैं. चटनियों के वैविध्य भरे संसार से गुज़रते हुए अचानक खयाल आता है कि तेज़ी से पैर पसारता फास्टफूड कल्चर कितना अकिंचन और गरीब है. उसमें वह वैविध्य, ताजगी और आदमियों की वह वैयक्तिक छाप नहीं है जो खालिस देसी खाने में है. इस नए कल्चर में एक खास स्टैंडर्ड है जो सब कुछ एक जैसा होने की माँग करता है. यह सिलसिला आगे बढ़ता हुआ लोगों से एक जैसे कपड़े पहनने, एक सी अंग्रेज़ी बोलने और एक से व्यवहार के रूप में फलित होता दिखाई दे रहा है. संक्षेप में कहें तो लोगों के भीतर अर्धविकसित अमरीका दिखाई देने लगा है. मूंगफली के खोमचों की किसिम किसिम की चटनियाँ आग्रह करती हैं कि क्या भारत को भारत ही रहने नहीं दिया जा सकता?
 

5. डिजिटल इंडिया में टाइपराइटर

इस बार मैं अभी गुज़रे कवि वीरेन डंगवाल की स्मृति में एक कविता कहना चाहता हूँ. हफ्ता न मिलने से सांड़ सा बौराया लखनऊ का पुलिसवाला है जो बूट की ठोकरों से राजभवन को जाती सदर सडक़ के फुटपाथ पर एक टाइपराइटर तोड़ रहा है, वहीं तमाशा देखने वालों से घिरा, विलाप करता बूढ़ा टाइपिस्ट कृष्ण कुमार तब से बैठा है जब एक अर्जी टाइप करने की मजूरी चवन्नी हुआ करती थी, इतना वक्त बीता कि बीस रुपए हो चुकी है। पीछे परदे की तरह पेशाब की महक वाली विधानसभा से सटी बड़े डाकखाने की दीवार है जिस पर किसी ऐसे ने जो इन दिनों हर कहीं मौजूद खुफिया कैमरों की नाकामी से नाखुश है, एक चिप्पी लगा दी है. लिखा है—सावधान आप ईश्वर की नज़र में हैं. यह फेसबुक पहुँची फोटो एक गरीब के साथ हो रही लपड़-झपड़ को वायरल कर देती है, चारो ओर थू-थू होती है, दुनिया भर से टाइपराइटर और रुपए की मदद की इच्छाएँ आ रही हैं, वह फोन पर एक ही अत्याचार बताते-बताते चिड़चिड़ाने लगा है, राज्य के युवा मुख्यमंत्री को शर्म आती है, वे बूढ़े टाइपिस्ट को नया टाइपराइटर, कुछ मुआवजा और सुरक्षा का हुक्म देते हैं. यूरेका! एंड्रॉयड फोनों की स्क्रीन से दीप्त युवा चेहरों पर आओ विज्ञान करके सीखें छपा है. जिस काम में धरना, प्रदर्शन नाकाम हो चले थे वह अब फेसबुक करने लगा है. धरना हास्यास्पद निरीहता से एक कोने में सिमटा रहता था जिसे सरकार उपेक्षा या लाठी से निपटा देती थी, फेसबुक तक लाठी नहीं पहुँच पाती और रायता दूर तक फैलता है. जनमत बनाने में वे भी शामिल हो गए हैं जो सडक़ जाम करने वालों को गुंडे और धरना को नौटंकी कहा करते थे लेकिन उनकी दया भी भीड़ देखकर ही सक्रिय क्यों होती है वह चुपचाप अपना काम क्यों नहीं करती? तभी अमेरिका में फेसबुक के मुख्यालय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, घरों में बरतन माँजकर बच्चे पालने वाली अपनी माँ की स्मृति के संताप को आँसुओं में प्रवाहित कर निर्मल होने के बाद, युग की करवट से धरती पर बनी नई सलवटों का भाष्य करते सुनाई देते हैं—भविष्य के शहर नदियों के किनारे नहीं आप्टिकल फाइबर नेटवर्क के इर्दगिर्द बसेंगे और अब सोशल मीडिया के कारण सरकारों को पहले की तरह पाँच साल में नहीं सिर्फ पाँच मिनट में सुधरना पड़ता है. प्रधानमंत्री ने मेनलो पार्क में जो कहा और लखनऊ में फुटपाथ पर बैठे बूढ़े टाइपिस्ट ने सदमे से उबरने से भी पहले जो करिश्मा महसूस किया, दोनों मिलकर डिजिटल इंडिया का ऐसा खाका खींचते हैं जिसमें हताशा से भी पुरानी सारी समस्याएँ उंगली की एक हरकत से छू मंतर होती दिखाई देती हैं. कमाल है! अचानक फुटपाथ पर एक खटारा स्कूटर आकर रुकता है जिसकी पिछली सीट पर गंदे कपड़ों का गट्ठर लादे बीस साल का धोबी बूढ़े टाइपिस्ट से अपना मकान हड़प लेने वाले सरहंग के खिलाफ एक अर्जी टाइप कराना चाहता है लेकिन उसे साहब का पदनाम का नहीं मालूम हालाँकि वह उन्हीं के कपड़े धोता है और उन्हीं की बीवी के कहने पर शिकायत की हिम्मत कर पाया है. बूढ़ा टाइपिस्ट झुंझलाते हुए एक ओर बैठ कर अपनी बारी का इंतज़ार करने को कहता है क्योंकि पहले से कई लिख लोढ़ा-पढ़ पत्थर बैठे हैं, जिनकी न सिर्फ अर्जियाँ टाइप होनी हैं बल्कि उस दफ्तर का नाम और रास्ता भी समझाना है जहाँ के कूड़ेदानों में उन्हें जाना है. टाइपराइटर बनने बंद हो चुके हैं फिर भी उसकी रोज़ी ऐसे लोगों के ही कारण चल रही है जो खुद अर्जियाँ लिखकर कंप्यूटर टाइपिंग करने वाले छोकरों के पास नहीं जा सकते. तकनीक चाहे जितनी तेज़ी दिखा ले लेकिन अनपढ़ और कुपढ़ लोगों की समस्याएँ धीरज से नहीं सुन सकती, उनको दिलासा नहीं दे सकती, उनकी कराहों, लंबी साँसों और आँखों की नमीं को लिख नहीं सकती और यह बूढ़े टाइपिस्ट का चुनाव नहीं मजबूरी है. खुदा न खास्ता कल को किसी साफ्टवेयर से ऐसा होने भी लगे तो उसकी कीमत होगी जो ये गरीब नहीं दे पाएँगे. ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज़्यादा है जो भारत में रहते हैं, अभी इंडिया में ही जाने के सपने देख रहे हैं तो डिजिटल इंडिया में कैसे दाखिल हो पाएँगे. वह अभी गरीब निरक्षर लोगों की भीड़ में एक छोटा सा धब्बा भर है. खुद मोदी की माँ क्या डिजिटल इंडिया में दाखिल हो पाएँगी?...ऐसी करोड़ों माँए, उनके गैरप्रधानमंत्री बेटे और उनकी संतानें? असली भारत के लिए इंटरनेट का महात्म्य पोर्न वीडियो देखने और गाने सुनने से आगे नहीं फैल पाया है. यह एकालाप या कविता जो भी है, वीरेन डंगवाल की स्मृति में इसलिए है कि उसी कवि को मैंने पहली बार यह कहते सुना था— दुनिया एक गाँव तो बने लेकिन सारे गाँव बाहर हों उस दुनिया के यह कंप्यूटर करामात हो. ***