
इस मौड़ी को हिंदी से प्यार है. अम्मा से होता है जैसे. वैसा ही. बिना शर्त. बिना शोर के. इत्ती दूर रहती है. मगर खाकी लिफाफे में अब भी जो चीजें मंगाती है मुलुक से. उसमें किताबों की भरमार होती है. कविताएं खोज खोज कर पढ़ती है. और जो किसी राइटर ने उसकी पोस्ट पर कुछ लिख दिया. तो फिर दिन भर जमीं से बालिश्त भर ऊपर तिरती फिरती है. निपट अबोध. या कि असल. अब वो आपके साथ अपनी स्पेस और ख्याल शेयर करेगी. भूमिरीका नाम होगा सिलसिले का. भूमिरीका में क्या होगा. अमरीका के किस्से. वहां के लोग. उनके कहकहे. डर. आवाजें. यादें. तौर-तरीके. चुनाव, प्रोपैगेंडा, मीडिया, टीवी, सिनेमा, संगीत और वो सब जो आता है उनके हिस्से. जिसे हम हिंदुस्तानियों को जानना चाहिए. मानवीय ढंग से. अपने ढंग से. तो बस. अब अमेरिकी भूमि पर आपकी आमद का वक्त आ गया है. सौरभ की भूमिका समाप्त हुई. अब आपकी नजर भूमिका के हाथ है. देखिए, कहां कहां ले जाती है. - सौरभ द्विवेदी
मेरी फलाफल वाली बुजुर्ग दोस्त ईमान की दुकान का इक किस्सा
मेरे घर के बगल में एक राशन और छुटपुट खाने की दुकान है. इसका नाम अयाह-ह मार्केट है. अक्सर मैं वहां से रोज़मर्रा की चीज़ें खरीदती हूं. दूध, ब्रेड, अंडा वगैरह. राशन की कई दुकानों की तरह ये भी परिवार की मिली जुली मेहनत से चलती है. गल्ले पे कभी बड़ा बेटा होता है तो कभी उसकी मां. फलाफल तलते हुए कभी कभी पिता जी दिख जाते हैं. तो कभी उनकी मदद करते हुए उनकी छोटी बेटी. हफ्ते के अंत में और अक्सर शनिवार को पूरा परिवार ही गाड़ी से थोक का सामान उतारने में लगा रहता है. कुछ एक महीने पहले उनकी दुकान पर चोरी हुई. छुरी दिखाकर एक नौजवान 100 डॉलर लेकर चंपत हो गया. आने वाले कुछ दिन मोहल्ले की सारी दुकानों में एक धुंधली सी फोटो चिपकी रही. सीसीटीवी फुटेज से निकाली गई. पर लड़का पकड़ा नहीं गया. परिवार की मां हैं जो महिला, उनका नाम ईमान है. उनसे मेरी दोस्ती हो चली है. जैसे कि गप मारती हुई औरतों की अक्सर हो जाती है. बातों ही बातों में वो और मैं अब अनजान नहीं रहे. सबूत के लिए, वो अक्सर मेरी उधारी मान लेती हैं. कभी कभार मुफ्त में मेरी पसंदीदा तुर्की मिठाई बकलावा मेरे सामान में डाल देती हैं. मेरी खुशकिस्मती. जब से चोरी हुई, एक चीज बदल गई है. उनके चेहरे की खिलखिलाहट कुछ कम हो गई है. ईमान को पैसे खो जाने का इतना गम नहीं है जितना कि वो डर जो वो अक्सर महसूस करती हैं. किसी अजनबी के स्टोर में घुसते ही. खासतौर पर जब अंधेरा हो जाने के बाद वो दुकान में अकेली होती हैं. आलस से परेशान, अक्सर मैं ईमान की दुकान से फलाफल खा लिया करती हूं. आज भी उसी इरादे से खरीदने गई. बहुत सारे ग्राहक पहले से खड़े थे. तो ईमान ने मुस्कुरा कर मेरे गप मारने के इरादे को टाल दिया. अपना ऑर्डर देकर मैं दुकान में यहां वहां देखने लगी. दुकान में अक्सर फ़ारसी या अरबी में टीवी ड्रामा लगे रहते हैं. इनकी धीमी आवाज़ दुकान को भरे रहती है. जब भी मैंने उन पर नज़र डाली है, सास बहु जैसी कहानियां ही चलती लगीं. मुझे न तो फ़ारसी आती है और न ही अरबी. तो टीवी पर आते जाते लोगों की नाटकीयता से ही अंदाज़ा लगाना पड़ता है कि भला क्या होगा? पर आज जब मैंने नज़र डाली तो बाकी दिनों से फ़र्क नज़ारा दिखा. कोई पीरियड ड्रामा चल रहा था. जैसे घर पर नानी-दादी ‘देवों के देव महादेव’या फिर माँ ‘अशोक’ सरीखा कुछ देख रहीं हों. अब तक ग्राहकों की भीड़ छंट चुकी थी. ईमान जी अब मेरा ऑर्डर तैयार कर रही थीं. मैंने उनसे पूछा कि ये कोई नया सीरियल चालू हुआ है क्या? देखने में बड़ा भव्य लग रहा है? और थोड़ा राजा अमीरों टाइप की कहानी. फलाफल के ऊपर बारी बारी से प्याज़ और गाजर डालती हुई ईमान ने कहा, ये पैगंबर यूसुफ की कहानी है. वही जो याकूब के बेटे थे. ग्यारह भाइयों में से एक, जिन्हें पैगम्बर का दर्ज़ा मिला और जिन्हें जोसफ के नाम से भी जाना जाता है. बड़ा ही महंगा सीरियल है. सबसे पहले ईरान में बना था. फारसी ज़बान में. और उसके बाद अरबी में भी. ईमान ने बताया कि सफर करते करते ये सीरियल पाकिस्तान भी पहुंच चुका है. उनके मुताबिक सबसे ख़ास बात यह है कि जैसा क़ुरान में लिखा है, बिल्कुल वैसे ही बनाया गया है ये सीरियल. ईमान बोलीं, ‘बड़े सुन्दर सुन्दर अदाकार भी हैं, खाली समय में नज़र डाल लेती हूं’ और फिर मुस्कुराते हुए मेरा खाना थमा दिया.
मुझे बड़ी जिज्ञासा हुई इस कहानी और सीरियल के बारे में. और मेरी पीढ़ी की जिज्ञासा जैसे गूगल के साथ शुरू और खत्म होती है, पैगम्बर युसूफ भी उससे न बच पाए. पता चला कि काफी हिट रहा है ये सीरियल. इसका नाम है, युसूफ-ए-पैगम्बर और इसकी शुरुआत 2008 से हुई. इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान ब्रॉडकास्टिंग (IRIB) के द्वारा. जैसा कि हिट चीज़ों के साथ होता है, अपने हिस्से की कॉन्ट्रोवर्सी भी इस सीरियल को प्राप्त हुई. ईजिप्ट में अल-अज़हर ने इसे बैन करने की भी मांग भी की. आजकल जहां जंग का आलम है उस अज़रबैजान की भाषा अज़ेरी में भी इसका अनुवाद हो चुका है. गूगल देव के मुताबिक करीब दो मिलियन डॉलर की लागत से बना था ये ड्रामा. बहुत ध्यान से पूरी डिटेलिंग में पुराने वक्त के ईजिप्ट यानी मिस्र को पर्दे पर दिखाया गया. सबसे रोचक जानकारी यह मिली कि इस सीरियल को जून 2016 से इंडिया में दिखाया जाएगा. इसका हिंदी और उर्दू में भी अनुवाद हो चुका है. क्या पता गर्मियों की छुट्टी में जब मैं घर जाऊं तो नानी, दादी और मां पैगम्बर युसूफ की कहानी टीवी पर देख रही हों? और तब मैं उन्हें ईमान की एक शिकायत बताऊं. बकौल ईमान, ड्रामा अच्छा है. मगर पैगंबर यूसुफ की जवानी वाला किरदार उतना सुंदर नहीं, जितने की उन्होंने उम्मीद की थी.

यूं नजर आ रहा है अमेरिका इन दिनों