में किया था. संयोगवश राजनीति में माधव सिंह सोलंकी चार बार सूबे के मुख्यमंत्री बने. उनकी इस सफलता के पीछे थी जातिगत समीकरणों को अपने पक्ष में साधने की अद्भुत क्षमता. उस दौर में उनका 'खाम' समीकरण देश भर में चर्चा का विषय बना हुआ था.
ऐसे मिला 'खाम' समीकरण
खाम यानी क्षत्रिय (ओबीसी), हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम. गुजरात की राजनीति में जीत का यह समीकरण माधव सिंह सोलंकी की देन हैं. यह बात अलग है कि उन्होंने अपने मुंह से कभी 'खाम' शब्द का उपयोग नहीं किया. इसी समीकरण के दम पर कांग्रेस ने 1985 के विधानसभा चुनाव में रिकॉर्ड 149 सीट जीती थीं. माधव सिंह सोलंकी के दिमाग में इस इतने मजबूत सियासी समीकरण को बनाने का आइडिया कहां से आया? सोलंकी एक टीवी इंटरव्यू में इस बाबत एक मजेदार किस्सा सुनाते हैं-
"1980 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी चुनाव प्रचार के लिए आई हुई थीं. मैं उनके पास लोकसभा चुनाव के उम्मीदवारों के नाम पर मंजूरी लेने के लिए पहुंचा. उन्होंने मेरे सुझाए सभी 26 नामों पर सहमति जताई. इसके बाद मैंने उनसे शिष्टाचारवश पूछ लिया, "मैडम और कोई आदेश." उन्होंने मुझसे कहा, देखो हरिजन, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक और महिलाएं कांग्रेस का सबसे बड़ा जनाधार हैं. इसको अच्छी तरह से मोबलाइज़ करना."माधव सिंह सोलंकी कहते हैं कि उन्होंने कभी खाम शब्द का इस्तेमाल नहीं किया लेकिन इस समीकरण का खूब इस्तेमाल किया. दरअसल यह सिर्फ माधव सिंह सोलंकी की उपज नहीं था. 1969 में केंद्र की तर्ज पर सूबे में भी कांग्रेस दो फाड़ हो गई. उस समय सूबे में कांग्रेस की सरकार थी. मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गुजरात कांग्रेस का बड़ा धड़ा कांग्रेस (ओ) में बना रहा. सूबे में इसका नेतृत्व हितेंद्रभाई देसाई कर रहे थे. उस समय कांतिलाल घिया के नेतृत्व में पांच विधायकों ने कांग्रेस (ओ) से बगावत कर इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस (आर) ज्वॉइन कर ली थी.

इंदिरा गांधी और माधव सिंह सोलंकी
इस विभाजन ने सूबे की कांग्रेस के चरित्र को बदल दिया. यहां से कांग्रेस का झुकाव धीरे-धीरे पिछड़े, दलित, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की तरफ बढ़ने लगा. माधव सिंह सोलंकी, जीनाभाई दरजी, अमर सिंह चौधरी जैसे नेता खुद भी आदिवासी और पिछड़े समाज से आते थे. असल में 1980 के 'खाम' समीकरण के पीछे सिर्फ माधव सिंह सोलंकी नहीं थे. जीनाभाई दरजी और अमर सिंह चौधरी के साथ उनकी तिकड़ी ने इस सियासी करिश्मे को अंजाम दिया था. इसकी शुरुआत 1975 के पंचायत चुनाव से हो गई थी. 1980 के लोकसभा चुनाव में इस समीकरण का कमाल दिखा. गुजरात की 26 लोकसभा सीट में से 24 कांग्रेस के खाते में गई.
इसी समीकरण को आधार बनाकर 1980 के विधानसभा चुनाव लड़ा गया. कांग्रेस ने सूबे में जनता पार्टी और बीजेपी का सूपड़ा साफ़ कर दिया. कुल 182 विधानसभा सीट में से कांग्रेस के खाते में गई 141 सीट. माधव सिंह सोलंकी ने इस चुनाव में आनंद जिले की भाद्रां सीट पर रिकॉर्ड 30378 वोटों से चुनाव जीता.
ऐसे बने मुख्यमंत्री
1980 की जीत के बाद कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद की कुर्सी के लिए संघर्ष शुरू हो गया. मुख्यमंत्री पद के लिए कई सारे दावेदार खड़े हो गए. माधव सिंह सोलंकी के अलावा कांग्रेस के कद्दावर नेता रत्तूभाई अडाणी मुख्यमंत्री की कुर्सी के प्रबल दावेदार माने जा रहे थे. गुजरात कोटे से केंद्र में गृह राज्य मंत्री योगेंद्र मकवाना ने इस संघर्ष को त्रिकोणीय बना दिया. जीनाभाई दरजी की पकड़ दिवासी बाहुल्य वाले दक्षिण गुजरात में काफी मजबूत थी. इधर बड़ौदा के पूर्व राजकुमार फतेह सिंह गायकवाड़ भी CM की कुर्सी के लिए खम ठोक रहे थे. ऐसे में कांग्रेस में फूट की आशंका पैदा हो गई.

1980 के चुनाव से पहले ही माधव सिंह सोलंकी ने अपने मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ़ कर लिया था
माधव सिंह सोलंकी की इस बहुकोणीय सत्ता संघर्ष में जीते कैसे? यहां उन्हें फायदा मिला संजय गांधी और इंदिरा गांधी की करीबी का. हालांकि योगेंद्र मकवाना भी संजय के काफी करीब थे लेकिन वो काफी जवान थे. इस वजह से उनकी छंटनी हो गई. दरअसल माधव सिंह सोलंकी चुनाव से पहले ही अपने मुख्यमंत्री बनने की बिसात बिछा चुके थे. वो प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष थे. ऐसे में टिकट वितरण में उनकी काफी चली. सोलंकी ने अपने 80 के लगभग समर्थकों को टिकट बांटी. कांग्रेस की लहर में करीब-करीब सभी जीतकर आए. इससे उनकी दावेदारी सबसे मजबूत हो गई.

नरेंद्र मोदी उस समय आरएसएस के प्रचारक के तौर पर बीजेपी में काम करते थे.
एक रिकॉर्ड जिसे मोदी भी नहीं तोड़ पाए
2012 के गुजरात विधानसभा से पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अपने ख़ास सिपहसालारों के साथ मीटिंग ले रहे थे. उनकी प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी का सारा दारोमदार इसी चुनाव पर था. उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों से कहा कि इस बार हमें किसी किसी भी हालत में माधव सिंह सोलंकी का रिकॉर्ड तोड़ना है. हालांकि इस चुनाव में बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिला था लेकिन वो रिकॉर्ड नहीं तोड़ पाए. यह रिकॉर्ड था 1985 के विधानसभा चुनाव का. 1985 में 'खाम' का करिश्मा बरकरार रहा. कांग्रेस ने माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में 182 में से 149 सीट जीतकर नया कीर्तिमान स्थापित किया. कुछ राजनीतिक विश्लेषक इस जीत में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पैदा हुई सहानुभूति को भी जिम्मेदार मानते हैं. माधव सिंह सोलंकी ने 11 मार्च के रोज तीसरी बार मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली.
एक और आंदोलन जो मुख्यमंत्री की कुर्सी खा गया
1980 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 140 सीट जीतने में कामयाब रही थी. सात जून 1980 के रोज माधव सिंह सोलंकी के नए मंत्रिमंडल ने शपथ ली. अगले दिन के अखबारों की सुर्खियां थीं ,"नए मंत्रिमंडल में सवर्ण बिरादरी का एक भी मंत्री नहीं." माधव सिंह सत्ता में आते ही अपना एजेंडा साफ़ कर चुके थे. उनकी सरकार दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की सरकार थी. उन्होंने 'खाम' समीकरण के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना शुरू किया. 1980 के आखिर में जाते-जाते उन्होंने एक विस्फोटक घोषणा की. वो 1976 में आई बख्शी कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने जा रहे थे. कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी 82 बिरादरियों को शिक्षा और रोज़गार में 10 फीसदी आरक्षण दिया जाना था.

आरक्षण के खिलाफ शुरू हुए प्रदर्शन जल्द ही सांप्रदायिक दंगों में तब्दील हो गए
फरवरी 1981 में अहमदबाद के बी.जे. मेडिकल कॉलेज के सवर्ण छात्रों ने नए आए ओबीसी आरक्षण के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया. जल्द ही यह प्रदर्शन हिंसक हो उठा. सूबे के पांच मेडिकल कॉलेज इन प्रदर्शनों में शामिल थे. पुलिस गोलीबारी में 40 लोगों की जान गई. प्रदर्शन पर मीडिया के सवालों का जवाब देते हुए माधव सिंह सोलंकी ने कहा, "अगर आरक्षण बचाने के लिए मुझे अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी तो मैं ऐसा करने से हिचकूंगा नहीं." अपने इस एक बयान से माधव सिंह सोलंकी पिछड़ों के हीरो बन चुके थे.
इन प्रदर्शनों को शांत करने के लिए माधव सिंह सोलंकी ने नए कमीशन की घोषणा की. अप्रैल 1981 में गुजरात हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज सी.वी. राणे के नेतृत्व में नया कमीशन बना. इस कमीशन को आर्थिक और शैक्षणिक आधार पर पिछड़ी जातियों की पहचान का काम सौंपा गया. कमीशन ने अक्टूबर 1983 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी. उस समय माधव सिंह सोलंकी ने 1981 के बवाल से सबक लेते हुए कमीशन को ठंडे बस्ते में डाल दिया.

1985 में जगन्नाथ रथयात्रा और ईद एक ही दिन थे. मुस्लिम बाहुल्य इलाके में रथ यात्रा पर पथराव हुआ और बड़े पैमाने पर दंगे शुरू हो गए.
1985 के चुनाव से ठीक पहले सोलंकी ने राणे कमीशन की रिपोर्ट को झाड़-पोंछ कर फिर से बाहर निकाला. चुनाव से महज़ दो महीने पहले उन्होंने 10 जनवरी 1985 के दिन राणे कमीशन की रिपोर्ट को लागू कर दिया. पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण 10 से बढ़ाकर 28 फीसदी कर दिया गया. 82 की जगह कुल 140 के करीब जातियां इस आरक्षण के दायरे में लाई गईं. इसके तुरंत बाद एक बार फिर से आरक्षण विरोधी आंदोलन शुरू हो गया. नौ फरवरी 1985 के रोज मोरबी इंजीनियरिंग कॉलेज छात्रों ने हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिया. यह आंदोलन पूरी तरह से फ़ैल पाता उससे पहले विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा हो गई. कॉलेजों में अवकाश की घोषणा कर दी गई. आंदोलन कुछ समय के लिए शांत हो गया. साफ़ तौर पर यह चुनावी लाभ के लिए उठाया गया कदम था. माधव सिंह सोलंकी के इस कदम के नतीजे उम्मीद से बढ़कर हासिल हुए.
1985 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने विरोधी दलों का सूपड़ा साफ़ कर दिया. 61 फीसदी वोट के साथ कुल 182 में से 149 सीट कांग्रेस के पक्ष में गई. माधव सिंह के सत्ता में लौटते ही आरक्षण विरोधी आंदोलन फिर से शुरू हो गया. अहमदाबाद के एल. डी. कॉलेज एक बार फिर से जल उठा. इसी कॉलेज से 1974 में नव निर्माण आंदोलन की शुरुआत हुई थी. एक बार फिर से यह आंदोलन का प्रस्थान बिंदु बनने जा रहा था. एल.डी. कॉलेज के बाद मोरबी के इंजीनियरिंग कॉलेज भी प्रदर्शन में शामिल हो गया. जल्द ही यह आंदोलन पूरे गुजरात में फ़ैल गया. नव निर्माण के तर्ज पर इस आंदोलन को नाम दिया गया, "नव सृजन आंदोलन".

मार्च 1985: अहमदाबाद के दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा करते राजीव गांधी
19 मार्च के रोज बढ़े हुए आरक्षण को वापस लेने के लिए गुजरात बंद बुलाया गया. अहमदाबाद के मुस्लिम बाहुल्य वाले दरियापुर और कालूपुर इलाके में सांप्रदायिक हिंसा का पुराना इतिहास था. यहां कुछ मुस्लिम दुकानदारों ने अपनी दुकानें खुली रखी. प्रदर्शनकारी छात्रों ने इन दुकानों में तोड़-फोड़ शुरू कर दी. आरक्षण के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन देखते ही देखते कौमी दंगों में बदल गया. अहमदाबाद से शुरू हुए सांप्रदायिक दंगे देखते ही देखते राजकोट, सूरत, मेहसाणा, मोरबी सहित कुल 19 जिलों में फ़ैल गए. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कुल 182 लोग इन दंगों में मारे गए. मार्च 1985 में शुरू हुए यह दंगे अक्टूबर 1986 तक चलते रहे. 30 मार्च 1985 के दिन तत्कालीन गृहमंत्री राजीव गांधी ने अहमदाबाद का दौरा कर शांति स्थापना की कोशिश की लेकिन सारे प्रयास विफल साबित हुए.
उसने बिना हिचके अपना इस्तीफ़ा दे दिया
1985 के जून का आखिरी सप्ताह. कांग्रेस हाईकमान ने पांच सदस्यों वाली एक कमिटी को गुजरात के लिए रवाना किया. इस कमिटी का नेतृत्व कर रहे थे जी.के. मूपनार. मूपनार उस समय कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हुआ करते थे. वो गुजरात में कांग्रेस के प्रभारी भी थे. गुजरात जल रहा था. आरक्षण के खिलाफ हुए प्रदर्शनों ने सांप्रदायिक रंग ले लिया था. माधव सिंह सोलंकी को अभी सत्ता संभाले महज़ तीन महीने हुए थे. इन तीन महीनों के दौरान हुए दंगों में 200 से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे. सूबे में कांग्रेस पहले से कई धड़ों में बंटी हुई थी. माधव सिंह सोलंकी की कुर्सी एक बार फिर से खतरे में थी.
कमिटी के हर सदस्य ने दिल्ली आकर अपनी अलग रिपोर्ट राजीव गांधी को सौंपी. जी. के मूपनार, पी.शिवशंकर और संतोष मोहन देव ने अपनी-अपनी रिपोर्ट में माधव सिंह को हटाने की बात कही. वहीं कमिटी के दो दूसरे सदस्य राजस्थान के मुख्यमंत्री हरदेव जोशी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने माधव सिंह को बनाए रखने की वकालत की.

जुलाई के पहले सप्ताह में माधव सिंह सोलंकी को दिल्ली आने का बुलावा भेजा गया. सोलंकी गांधी परिवार के करीबी लोगों में से थे. राजीव गांधी के समर्थन के चलते ही उन्हें दूसरी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल हुई थी. वी.पी सिंह उस समय कांग्रेस में हुआ करते थे और राजीव कैबिनेट में वित्त मंत्री थे. वी.पी. सिंह ने माधव सिंह सोलंकी को अपने पास चाय पीने का न्योता भेजा. इस मुलाकात के दौरान वी. पी. सिंह ने सोलंकी से कहा-
"आपके सूबे में दंगे नहीं थम रहे हैं. मुझे पता है कि इन दंगों को भड़काने में कांग्रेस के ही कुछ नेताओं का हाथ है. जब मैं उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री था, मुझे भी इस तरह के भीतराघात को झेलना पड़ा था. अब यही लोग आपके इस्तीफे के लिए भी दबाव बना रहे हैं."जवाब में सोलंकी कुछ नहीं बोले. उन्होंने ने वी.पी. सिंह से एक कागज का टुकड़ा और कलम देने की बात कही. वी.पी. सिंह ने बिना सवाल किए उनकी यह मांग पूरी कर दी. कुछ मिनट बाद ही सोलंकी ने कागज वी.पी. सिंह को लौटा दिया. कागज पर लिखा मजमून बांचने के बाद वी.पी. सिंह ने सोलंकी से कहा, "मैंने आपको ऐसा करने के लिए नहीं कहा था." कागज पर लिखा था,
"डिअर राजीव जी. मैं बतौर मुख्यमंत्री, गुजरात अपना इस्तीफ़ा आपके सामने पेश करता हूं. मेरे मुख्यमंत्री रहने के दौरान आपने जिस तरीके से मेरा सहयोग किया, उसके लिए मैं आपका शुक्रगुजार हूं."सोलंकी वी.पी. सिंह की तरफ मुखातिब होकर बोले, "आपने मुझसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा लेकिन आपकी बात का मतलब मैं अच्छी तरह से समझता हूं. ये कागज राजीव गांधी को दे देना."
उसे यूरोप घूमना था

माधव सिंह सोलंकी हमेशा गांधी परिवार के करीबी रहे
मुख्यमंत्री की कुर्सी जाने के बाद माधव सिंह सोलंकी के पास दिल्ली से बुलावा आया. वो राजीव गांधी से मिलने पहुंचे. राजीव गांधी ने उनके सामने प्रस्ताव रखा कि वो केंद्र सरकार में बतौर योजना मंत्री आ जाएं. माधव सिंह ने इस प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया. राजीव ने जब कारण जानना चाह तो माधव सिंह का जवाब था-
राजीव गांधी ने माधव सिंह सोलंकी की मांग तुरंत मान ली. वो करीब छह महीने तक यूरोप घूमते रहे. सोलंकी याद करते हैं-"मेरी बी.ए. की पढ़ाई के दौरान मैंने यूरोप के इतिहास के बारे में खूब पढ़ा. इस विषय में मेरी बहुत दिलचस्पी है. मैंने यूरोप के बारे में पढ़ा तो बहुत है लेकिन अब तक उसे आंखों से नहीं देख पाया हूं. लंबे राजनीतिक सफ़र के बाद मैं कुछ दिन सुस्ताना चाहता हूं. मुझे यूरोप घूमना है. आप मेरी एक मदद कर दीजिए. अगर मुझे डिप्लोमेटिक पासपोर्ट मिल जाए तो मेरी लिए घुमक्कड़ी आसान हो जाएगी."
"मेरा झोला अलग-अलग देशों की गाइड से भरा होता था. मैं ज्यादा सामान लेकर नहीं चला था. सफ़र के दौरान जिस चीज की जरूरत होती मैं वहीं से खरीद लेता. छह महीनों की अपनी घुमक्कड़ी के दौरान मैं यूरोप के करीब-करीब हर देश गया. लौटते वक़्त मैं अपने साथ इतिहास, राजनीति और दर्शन की ढेर साड़ी किताबें लेकर लौटा."यूरोप से लौटने के बाद माधव सिंह सोलंकी को राजीव गांधी ने फिर से तलब किया. सोलंकी ने राजीव का प्रस्ताव यह कहते हुए ठुकरा दिया कि यूरोप से वो ढेर सारी किताबें लेकर लौटे हैं और अगले कुछ दिन वो उन्हें पढ़ते हुए बिताना चाहते हैं. राजीव ने जवाब में कहा कि यह काम वो मंत्रालय के अपने दफ्तर में बैठे-बैठे भी कर सकते हैं. 25 जून 1988 के रोज उन्हें देश का योजना मंत्री बनाया गया.
1989 के चुनाव में हार ने फिर से गद्दी पर बैठाया
1985 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति की लहर में कांग्रेस को 404 सीट का ऐतिहासिक जनमत हासिल हुआ. राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने. 1989 आते-आते स्थितियां बदलने लगीं. बोफोर्स घोटाले के चलते राजीव गांधी की लोकप्रियता में भारी गिरावट आई. 1989 के चुनाव में कांग्रेस 404 से सीधा 197 के आंकड़े पर आ गई. आजादी के बाद दूसरी बार कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा.

अमर सिंह चौधरी और माधव सिंह सोलंकी
हार के बाद कांग्रेस संगठन के भीतर कई लोग अनुशासन की गाज के शिकार हुए. गुजरात में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद ख़राब रहा. 1985 में जहां कांग्रेस को 26 में से 24 सीट मिली थीं, 1989 में यह आंकड़ा महज चार पर आ गया. ऐसे में अमर सिंह चौधरी को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने का निर्देश दे दिया गया. नौ दिसंबर 1989 के रोज अमर सिंह चौधरी ने हार की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकारते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. माधव सिंह सोलंकी एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनाए गए. यह बतौर मुख्यमंत्री उनका चौथा और आखिरी कार्यकाल था.
कोयले की दलाली में काले हुए हाथ
छह मई 2008. बोफोर्स दलाली केस में सीबीआई ने माधव सिंह सोलंकी के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट से मुकदमा चलाने की इजाज़त मांगी. सीबीआई का आरोप था कि सोलंकी ने जांच को प्रभावित करने की कोशिश की थी. बात 1992 की है. सोलंकी उस समय नरसिम्हा राव सरकार में विदेश मंत्री हुआ करते थे. इस दौरान वो अपने अधिकारिक दौरे पर स्विट्जरलैंड गए. यहां उनकी मुलाकात स्विस विदेश मंत्री रेने फेल्बर से हुई. सोलंकी ने उनके सामने जाली दस्तावेज पेश किए. दिल्ली की एक अदालत ने उसी समय स्विस सरकार के नाम 'लेटर ऑफ रोगेटरी' जारी किया था. सरल शब्दों में समझा जाए तो अदालत ने स्विस सरकार से इस मामले में सुबूत मुहैया करवाने की दरख्वास्त की थी. सोलंकी ने अपने दौरे के दौरान फेल्बर से जांच में जाली दस्तावेज दिखाकर जांच को गलत दिशा में मोड़ने की कोशिश की थी.

माधव सिंह सोलंकी पर बोफोर्स घोटाले की जांच को प्रभावित करने का आरोप लगा.
दिसंबर 2014 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले में माधव सिंह सोलंकी की अपील को ख़ारिज करते हुए मुकदमा चलाने की इजाज़त दे दी. उस समय भी इस विवाद ने बहुत तूल पकड़ा था. अखबारों की रिपोर्ट के बाद अप्रैल 1992 में सांसद को सफाई देते हुए प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव ने स्वीकार किया था कि सोलंकी ने स्विस विदेश मंत्री को ज्ञापन सौंपा था. इसके बाद सोलंकी अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था.
कैसा रहा कार्यकाल
तमाम विवादों के बावजूद बतौर मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने कुछ ऐसे कामों को अंजाम दिया जिन्हें आज भी याद किया किया जाता है.
-1980 से 1985 के दरम्यान मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य में गुजरात इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन की स्थापना की. इस संस्था ने गुजरात के औद्योगिक विकास में आगे चलकर बड़ी भूमिका निभाई.
- इसी कार्यकाल के दौरान उन्होंने सूबे में मिड-डे-मील योजना की शुरुआत की. बाद में 1988 में केंद्र से योजना मंत्री रहते हुए इन्होंने यह योजना देश भर में लागू की.
- सूबे में 12वीं तक लड़कियों की शिक्षा मुफ्त की.
माधव सिंह सोलंकी आज गांधीनगर में रिटायरमेंट का आनंद ले रहे हैं. वो 92 साल के हैं और खूब स्वस्थ हैं. उनके बेटे भरत सिंह सोलंकी उनके राजनीतिक वारिस बनकर उभरे हैं. वो फिलहाल गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष हैं लेकिन माधव सिंह की चिंता सियासत से अलग है. उनके पास 15,000 किताबों की समृद्ध लाइब्रेरी है. वो इसके लिए सही वारिस खोज रहे हैं ताकि देश-विदेश से इकठ्ठा की गईं इन किताबों को ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ सकें.
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