आज महाशिवरात्रि है. शिवजी का त्यौहार. उनके तीसरे नेत्र के प्रताप से सब वाकिफ़ ही हैं. क्रोध आने पर वो एेसा किया करते होंगे. उनका क्रोध बिलकुल अलग ज़ोन की बात है लेकिन इस धरती पर बहुत से और मानव हैं जो तीसरी आंख तो नहीं खोल पाते लेकिन अपनी टेढ़ी नजरें जरूर हर अच्छी चीज पर डालते हैं. क्योंकि वे अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं. एेसे ही एक सज्जन भारतीय फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े हुए हैं या कहें तो अपने वक्र दृष्टि उस पर गड़ाए हुए हैं. ये हैं पहलाज निहलानी. भारत में फिल्में बन रही हैं, प्रगतिशील फिल्में बन रही हैं, नारीवादी और समलैंगिकता पर फिल्में बन रही हैं. पूरी दुनिया भारत को बड़े सम्मान की नजर से देख रही हैं लेकिन निहलानी जी पहरा दे रहे हैं कि कहीं कुछ फिल्मों में एेसा न रह जाए जिससे समाज करप्ट हो जाए, सांस्कृतिक रूप से बीमार हो जाए.
इस बार उनके निशाने पर है एक बड़ी अच्छी फिल्म - 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का.'
इस फिल्म को सेंसर बोर्ड (वैसे केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड) ने ‘असंस्कारी’ घोषित कर दिया है. प्रकाश झा इसके निर्माता हैं और डायरेक्टर हैं अलंकृता श्रीवास्तव. फिल्म में कोंकणा सेन शर्मा, रत्ना पाठक शाह, अहाना कुमरा, प्लाबिता बोरठाकुर की मुख्य भूमिकाएं हैं. सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म को कोई भी सर्टिफिकेट देकर पास करने से मना कर दिया है. यानी कि ये फिल्म रिलीज़ नहीं हो पाएगी. इस फिल्म को दुनियाभर से तारीफें हासिल हो रही है. ये जेंडर इक्वैलिटी पर बनी बेस्ट फिल्म का ऑक्सफम अवॉर्ड जीत चुकी है. साथ ही टोक्यो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में स्पिरिट ऑफ़ एशिया अवॉर्ड भी हासिल कर चुकी है. मॉस्को फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई जाने वाली है. और हम हैं कि इसे रिलीज़ ही होने देना नहीं चाहते. क्यों? क्योंकि संस्कारों को चोट लग रही है.
सेंसर बोर्ड ने जो कारण बताए हैं इसको सर्टिफिकेट देने से इंकार करने के, उन्हें अगर कोई पढ़ भर लें तो अपने बाल नोंच ले. क्योंकि इतने वाहियात रीज़न दिए गए हैं इस फिल्म को रोकने के लिए. सेंसर बोर्ड का कहना है, "ये फिल्म ‘महिला केंद्रित’ है. उनकी फैंटसीज़ के बारे में है. इसमें सेक्सुअल सीन्स हैं, गालियां हैं, पॉर्नोग्राफिक ऑडियो है. इसके अलावा ये फिल्म समाज के किसी एक ख़ास तबके के लिए सेंसेटिव टच लिए हुए है. इसलिए इस फिल्म को सर्टिफिकेशन के लिए अस्वीकृत किया जाता है." 
बिलकुल ही साफ़ बोला जाए तो मूर्खता की हद है ये. ‘महिला केंद्रित’ फिल्म होने में क्या बुराई है? आर्यावर्त के पुरुषवादी समाज की जड़ें हिलने लगती हैं? मर्दों का अहम चोटिल हो जाता है? गालियों से क्या दिक्कत है! आपका सभ्य समाज गालियां नहीं देता, सेक्स नहीं करता या पॉर्न नहीं देखता? आखिर सेंसर बोर्ड सर्टिफिकेशन में ‘A’ सर्टिफिकेट देने की व्यवस्था किसलिए है? इसीलिए न कि किसी फिल्म में एडल्ट कंटेंट हो तो उसे प्रॉपर सर्टिफिकेशन के साथ प्रदर्शित होने दिया जाए! कोई भी फिल्म रातों-रात नहीं बनती. उसमें सैंकड़ों लोगों की दिन-रात की मेहनत लगी हुई होती है. ढेर सारा पैसा इन्वेस्ट हुआ होता है. कितने ही लोगों का भविष्य जुड़ा होता है उससे. कैसे आप कुछ घटिया कारण देकर किसी फिल्म को पर्दे का मुंह देखने से रोक सकते हो? ये अपनी तरह की एक तानाशाही ही है.
अभी कुछ ही दिन हुए हैं जब हाई कोर्ट ने ‘जॉली एलएलबी-2’ को कुछ कट लगाने के लिए कहा था और यही पहलाज निहलानी कोर्ट तक के खिलाफ बोलने को तैयार हो गए थे. वे फिल्म के काल्पनिक विषय होने और डिस्क्लेमर के साथ उसे रिलीज़ करने पर भाषण दे रहे थे. कह रहे थे कि उनका सेंसर बोर्ड एक ज़िम्मेदार संस्था है. इस केस में उन्होंने 'कालजयी' स्टेटमेंट दिया था कि अगर कोर्ट में पिटीशन डालकर फिल्म रुकवाना रवायत बन गई, तो ये क्रिएटिविटी का गला घोंटना होगा. कोई जाकर आज पूछ आए निहलानी साहब से कि फिल्म को रिलीज़ न होने देना क्या है? उसकी भ्रूण हत्या? सेंसर बोर्ड के इस अहमकाना डिसीजन के खिलाफ़ बहुतों ने ताल ठोक ली है. ‘मसान’ जैसी बड़ी ही सुलझी और कुछ लोगों को 'बोल्ड' लगने वाली फिल्म के निर्देशक नीरज घैवन ने कहा है कि सर्टिफिकेट ना देना बैन लगाने जैसा ही है.

रेणुका शहाणे ने सेंसर बोर्ड के लैटर की कॉपी ट्विटर पर डालते हुए लिखा कि अलंकृता श्रीवास्तव की अवॉर्ड विनिंग फिल्म 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' को एेसी वजहों से सर्टिफिकेट देने से इंकार कर दिया गया जो समझ से बाहर हैं.

फिल्ममेकर अशोक पंडित ने इस रिजेक्शन लैटर में लिखी भाषा पर हैरानी जताई है. वे तो खुद CBFC के मेंबर भी हैं. उन्होंने एक टिप्पणी में कहा है, “मुझे इस लैटर में लिखे शब्दों को पढ़ के धक्का सा लगा. ये दुखद बात है कि प्रकाश झा जैसे फिल्मकार पर सवाल उठाए जा रहे हैं. इस फिल्म से दंगा तो नहीं ही होगा.” उन्होंने ट्वीट में भी लिखा, "मैं इसकी निंदा करता हूं. सर्टिफिकेट ना देना पहलाज निहलानी का घमंड है."

फरहान अख्तर ने भी इस मसले पर चुटकी लेते हुए कहा कि अपने उल्टी करने वाले पाउच तैयार रखिए.

ये पहली दफा नहीं है कि जब पहलाज निहलानी ने एेसा किया हो. ‘उड़ता पंजाब’ में लगे 80 के ऊपर कट तो सभी जानते हैं. जासूसों का शहंशाह जेम्स बॉण्ड जब भारत में आया तो उसे भी संस्कारी बनना पड़ गया था. ‘स्पेक्टर’ फिल्म में किस करने की उसकी कोशिश पहलाज की तीसरी आंख से बच न सकी और उसे नाकाम कर दिया गया.
पिछले महीने रिलीज़ हुई ‘हरामखोर’ को भी परदे तक पहुंचने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी. बोर्ड को इस फिल्म की थीम से ही दिक्कत हो गई थी. इसमें एक टीनएज लड़की और उसके टीचर के प्रेम संबंधों की कहानी कही गई थी. फिल्म में कई सारी परतें थीं लेकिन सेंसर को फिल्म का महत्व नहीं समझ आया. यहां तक कि ‘बार बार देखो’ फिल्म के एक सीन में जब फीमेल कैरेक्टर की ब्रा कहीं दिखाई दे गई तो संस्कारी बोर्ड का ब्लड प्रेशर बढ़ गया. ऐसी ही मूर्खताएं और भी हैं. और ये हाल तब है जब अपने वक़्त में खुद निहलानी साहब ने जम के 'फूहड़ता' परोसी थी.
फिल्म की डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव कहती हैं, “हमारी फिल्म को सर्टिफिकेट न देना महिला अधिकारों पर हमला है. बहुत समय तक फिल्मों ने मर्दवादी मानसिकता को खादपानी दिया है. चाहे वो महिलाओं को उपभोग की वस्तु की तरह दिखाना हो या उनका रोल काट देना हो. इसलिए आज जब ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ जैसी फ़िल्में महिलाओं के नज़रिए को व्यक्त कर रही हैं तो उन पर हमले किए जा रहे हैं. क्या महिलाओं के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है?”
फिल्म का ‘महिला केंद्रित’ होना जिन्हें ऐतराज़ के क़ाबिल लगता है उन तक कोई आइशू नाम की इस यूज़र का ये ट्वीट पहुंचा दे प्लीज़! जिसमें वो कह रही हैं, “भारतीय सेंसर बोर्ड को तो मुझ पर ही बैन लगा देना चाहिए. क्योंकि एक महिला होने के नाते मेरा पूरा वजूद ही ‘महिला केंद्रित’ है.”
'लिपस्टिक..' ट्रेलर देखिए और ढूंढ निकालिए ऐसा कंटेंट जो समाज से बाहर की चीज़ हो.
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अपनी इस फिल्म में पहलाज निहलानी ने खुद जमकर 'अश्लीलता' फैलाई थी