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कन्‍नारोहट के काले बादल शोक के ओले बरसाने लगे

नदी किनारे गांव जमा हो गया. मल्‍लाहों ने लाश खोजी. जब चिता जल रही थी, उस वक्‍त चच्‍चा ने कसम खाई, दुबारा इस गांव में कदम नहीं रखेंगे.

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अविनाश दास
अविनाश दास

अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
  नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. बुलाकी के किस्सों की तीस किस्तें आप पढ़ चुके हैं. जिन्हें आप यहां क्लिक कर पा सकते हैं.
 हाजिर है इकतीसवीं किस्त, पढ़िए.


आदमी गुब्‍बारे सा फूट गया सुशील चच्‍चा बाबूजी से कुछ साल बड़े थे. मैंने उन्‍हें कभी नहीं देखा. हालांकि वह अब भी जीवित हैं और दिल्‍ली की पश्चिम विहार कॉलोनी में रहते हैं. एक वक्‍त था, जब न बुलाकी साव को उनके बिना चैन था, न उनको बुलाकी साव के बिना चैन था. अब उन दोनों ने एक दूसरे को चालीस सालों से नहीं देखा है. चालीस साल पहले सुशील चच्‍चा ने गांव से सारे रिश्‍ते तोड़ लिये थे. मेरी उम्र लगभग इतनी ही हो रही है. यानी यह तब की बात है, जब मैं नवजात रहा होऊंगा या पैदा भी नहीं हुआ होऊंगा. जब बड़ा रहा था, घर में आये दिन सुशील चच्‍चा का जिक्र होता था. बुलाकी साव तो अक्‍सर उनकी बात करता था. सुशील चच्‍चा हिंदुस्‍तान टाइम्‍स, दिल्‍ली में मार्केटिंग मैनेजर थे. गांव आते थे तो राजमा लेकर आते थे. तब तक हमारे गांव के लोग नहीं जानते थे कि राजमा क्‍या होता है. चाची पीढ़े पर बिठा कर बुलाकी साव को बहुत प्‍यार से राजमा की सब्‍ज़ी खिलाती थी. चटखारे लेकर पेट से कुछ ज्‍यादा ही खा लेने के बाद बुलाकी साव आंगन-आंगन घूम कर राजमा के गुन गाता था.
चाची मेरे बाबूजी की प्रिय भाभी थी. बाबूजी को लल्‍लन बउआ कह कर बुलाती थी. बाबूजी कहते थे उनकी एक ही तस्‍वीर आंखों के आगे घूमती है. गांव आने पर चाची के पांव जब वे छूते थे, तो चाची की आंखें वात्‍सल्‍य से छलछला जाती थीं. चच्‍चा तो अपने छोटे भाई को पांव छूने ही नहीं देते थे, गले से बहुत देर तक लगाये रखते थे. ये सारे रिश्‍ते-नाते अब चालीस बरस पीछे छूट गये हैं. मैं अक्‍सर बुलाकी साव से पूछता कि सुशील चच्‍चा गांव क्‍यों नहीं आते, बुलाकी साव मेरी बात टाल जाता था. त्‍यागी जी ने जिस दिन बागमती नदी में जल-समाधि ली थी और जिस दिन बुलाकी साव बुक्‍का फाड़ कर रोया था, उसी शाम मेरे आंगन में सुशील चच्‍चा की चर्चा चली. मैंने अपनी मां को कहते सुना, 'पता नहीं इस गांव से बागमती की बला कब टलेगी?' दूसरे दिन सुबह जब मैंने बुलाकी साव से सुशील चच्‍चा के बारे में बात की, तो उसने मुझसे बिना पूछे पूरी घटना बता दी.
सुशील चच्‍चा की एक छोटी बहन थी. मुझे उनका नाम नहीं मालूम. जैसे मैंने सुशील चच्‍चा को कभी नहीं देखा, वैसे ही अपनी इस बुआ को भी कभी नहीं देख पाया. सुशील चच्‍चा की एक बेटी थी और दो बेटे थे. एक बेटे की सड़क दुर्घटना में मृत्‍यु हो गयी थी. वह दुख पूरे परिवार को लंबे समय तक घुटन और चुप्‍पी में लपेटे रहा. उस हादसे के बाद खुशी का मौका तब आया, जब बुआ की शादी ठीक हुई. जिस दिन शादी थी, सुशील चच्‍चा के दूसरे बेटे ने सुबह से शाम तक काफी भाग-दौड़ की थी. हालांकि बारात आने में अभी काफी देर थी, लेकिन सुशील चच्‍चा के बेटे को लगा कि नहा-धो कर तैयार हो जाना चाहिए. वह आंगन के पीछे चापाकल की ओर गया, तो उसने देखा कि वहां स्त्रियों की भीड़ जमा है. उसने किसी से कहा कि वह नद्दी से नहा कर आ रहा है और चला गया.
पैट्रोमैक्‍स जल चुके थे. आंगन जगर-मगर कर रहा था. बुलाकी साव घर के हर दरवाज़े पर उजले पिठार से अरिपन बना रहा था. मड़बा सज चुका था. मड़बा के चारों पायों पर आंगन की स्त्रियों ने मछली और सुग्‍गा से लेकर राम और सीता के चित्र बनाये थे. गांव के बड़े-बुजुर्ग मड़बा पर बैठ कर दूल्हे को दिये जाने वाले सामान को देख रहे थे और उन सामानों की गुणवत्ता की तारीफ कर रहे थे. कोहबर घर में विवाहपूर्व की कुछ विधियां चल रही थीं और संस्‍कार गीत का समवेत स्‍वर आंगन तक पहुंच रहा था, 'एलय शुभs के लगनमा... शुभे हो शुभे!' (विवाह का सुंदर समय आ गया है, सब कुछ शुभ शुभ हो!) बीच बीच में खिलखिलाने की आवाज़ भी आ रही थी. ठीक उसी वक्‍त धनुकटोली का एक आदमी चीखता हुआ आया, 'बउअा डूबि गेल...' (लड़का डूब गया). पूरा माहौल एक आर्तनाद में बदल गया. कन्‍नारोहट के काले बादल शोक के ओले बरसाने लगे. स्त्रियां तो स्त्रियां, पुरुष तक आंगन में पछाड़ खा कर गिरने लगे.
पूरा गांव नदी के किनारे जमा हो गया. मल्‍लाहों ने लाश खोजी. जब चिता जल रही थी, उसी वक्‍त सुशील चच्‍चा ने कसम खायी कि दुबारा इस गांव में कभी कदम नहीं रखेंगे. गांव के लोगों में भी उन्‍हें समझाने की हिम्‍मत नहीं थी. सब ने सब कुछ नियति पर छोड़ दिया. और सचमुच, सुशील चच्‍चा और उनका परिवार जो गांव से गया, फिर कभी लौट कर नहीं आया. मैंने देखा, यह पूरी घटना सुनाने के बाद बुलाकी साव रो रहा है, लेकिन कंठ से वह चीख़ नहीं निकल पा रही है, जो निकलना चाहती है. मैंने उसे एक लोटा पानी लाकर दिया. पानी पीने के बाद बुलाकी साव आसमान में शून्‍य की ओर देखने लगा. थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि वह आसमान की ओर देखते देखते यह गीत गा रहा है.

हाथों में रंग भरे काग़ज़ थे काग़ज़ की नन्‍हीं सी नावें थीं खुशियों के सतरंगी किस्‍से थे शर्बत से भीगी किताबें थीं

मिट्टी के रिश्‍तों का बंधन था पानी सी छल छल मोहब्‍बत थी हंसी हंसी रूठना-मनाना था सबको ही सबकी ज़रूरत थी

और फिर अचानक ही एक दिन मन का इकतारा जो टूट गया दुख की हवा के थपेड़ों से आदमी गुब्‍बारे सा फूट गया




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