
अविनाश दास
अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. बुलाकी के किस्सों की पंद्रह किस्तें आप पढ़ चुके हैं. जिन्हें आप यहां क्लिक कर पा सकते हैं.
हाजिर है सोलहवीं किस्त, पढ़िए.
मां मैथिली अमर रहे! पहले हम सिर्फ विद्यापति पर्व समारोह के बारे में ही जानते थे. यही समारोह हमारी दुनिया में संस्कृति की पहली बड़ी खिड़की थी. यहां शारदा सिन्हा की आवाज़ थी, रवींद्र-महेंद्र की जोड़ी थी, हेमकांत और चंद्रमणि के गीत थे, कमलाकांत जी का संचालन था. इससे पहले गांव में हमने रामलीला देखी थी. लेकिन लहेरियासराय आने के बाद हर साल सर्दियों में हम पूरे परिवार के साथ विद्यापति समारोह देखने-सुनने जाने लगे. तब एमएल एकेडमी के बड़े से परिसर में यह समारोह होता था. दर्शकों के लिए पुआल बिछी होती थी. हम गांती लगा कर जाते. यानी एक मोटी सी चादर को गर्दन की गांठ लगा कर सर से ठेहुने तक ओढ़े हम लगभग पूरी रात विद्यापति समारोह का लुत्फ लेते. रात के आख़िरी पहर में जब समदाउन गीत से समारोह का समापन होता, हम घर लौटते थे.
उन दिनों हम किसी वैद्यनाथ चौधरी उर्फ बैजू बाबू को नहीं जानते थे. जब हाईस्कूल की पढ़ाई करके रांची से नब्बे के दशक में लौटे, तब तक यह समारोह दरभंगा रेलवे स्टेशन के पास एमएलएसएम कॉलेज के परिसर में स्थानांतरित हो चुका था. इस बीच बुलाकी साव मैथिली आंदोलन से जुड़ गया था और भाषा उत्थान से जुड़ी रैलियों और प्रदर्शनों में नज़र आने लगा था. एक दिन बलभद्दरपुर के पोखरिया स्कूल की एक सभा में जब कमलेश जी मैथिली के लिए मरने-कटने की बात कर रहे थे, मैं उधर से गुज़र रहा था. मैंने देखा कि बुलाकी साव नारे लगा रहा है- कमलेश भैया जिंदाबाद! मां मैथिली अमर रहे! मैं उसके पास गया, तो बुलाकी साव और जोश में आकर ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाने लगा.
इस सभा में विद्यापति समारोह के कर्ताधर्ता वैद्यनाथ चौधरी उर्फ बैजू बाबू मुख्य अतिथि थे. हालांकि ऐसा माना जाता था कि कमलेश जी और बैजू बाबू मैथिली आंदोलन के दो ध्रुव थे और दोनों में बनती नहीं थी. लेकिन सार्वजनिक व्यवहार के तकाजे के तहत दोनों यहां साथ आये थे. कमलेश जी इस शर्त पर आये थे कि वह मुख्य वक्ता होंगे, क्योंकि ऐसा वह मानते थे कि सुभद्र झा के बाद वही एक हैं जिनकी वक्तृत्व कला से मरते हुए लोगों में नयी जान आ जाती है. बुलाकी साव ने मुझे मैथिली के दोनों दिग्गजों से मिलवाया. इसके बाद मैंने एक ही बार बैजू बाबू और कमलेश जी को एक साथ देखा, जब बैजू बाबू के पिता का इंतकाल हुआ था.
हमारा परिवार उन दिनों बेंता चौक से सटे शाहगंज में रहता था. मेरे पड़ोस में रानी और रूबी का घर था. रानी मेरे साथ स्कूल में पढ़ती थी. उस शाम मैं रानी के साथ अपने बरामदे में बैठ कर 'पढ़ाई-लिखाई' की बात कर रहा था, जब बुलाकी साव सामने से साइकिल पर आकर उतरा. रानी उठ कर चली गयी और मुझे बुलाकी साव का आना खटक गया. हालांकि मैंने उससे कुछ नहीं कहा. थोड़ी देर बाद उसने ही कहा, 'आज बैजू बाबू के पिता का श्राद्धकर्म है. भोज खाने चलोगे.' बुलाकी साव जानता था कि भोज खाने के लिए मैं कभी भी कहीं भी जा सकता हूं. लेकिन पहली बार मैंने कोई रुचि नहीं दिखाई. बुलाकी साव उठ कर जाने लगा, तो मुझसे रहा नहीं गया. बुलाकी से पूछा, 'कहां पर जाना है?' बुलाकी साव मुस्कराया और बोला, 'बहेड़ी ब्लॉक.' मैंने बाबूजी की साइकिल उठायी और कहा, 'चलो.'
लहेरियासराय से आठ-दस किलोमीटर तक का लंबा रास्ता था. रास्ते में मेरी साइकिल की चैन कई बार उतरी थी और पहुंचते-पहुंचते मैं लस्तपस्त हो गया था. उस वक्त रात के नौ बज रहे थे. बैजू बाबू के दरवाज़े पर हज़ारों लोगों की भीड़ थी. ऐसा लगता था जैसे पूरा दरभंगा उठ कर भोज खाने आ गया है. एक बार में दो हजार लोग एक साथ पंगत में बैठते और बाकी बचे लोग अपनी बारी का इंतज़ार करते थे. हमारी बारी रात में बारह बजे आई. चूड़ा-दही-चीनी और रसगुल्ला. मैंने देखा कि बैजू बाबू सबके सामने हाथ जोड़े गुज़र रहे हैं और कमलेश जी उनके पीछे-पीछे चल रहे हैं. हमने पेट से ज़्यादा खाया और उठे तो देखा कि हज़ारों लोग अब भी अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं.
लौटते हुए मैंने बुलाकी साव से पूछा कि बैजू बाबू तो बहुत लोकप्रिय आदमी हैं. चुनाव लड़ेंगे तो एकतरफा भोट पड़ेगा. बुलाकी ने कहा कि मिथिला में लोग भोज तो खा लेते हैं, लेकिन भोट नहीं देते. और सुनो, एक राज़ की बात बताता हूं. यह जो तुम अखिल मैथिली एकता का नज़ारा देख कर आये हो, अगर ठीक से देखोगे तो टुकड़ों-टुकड़ों और कई खेमों में बंटा मिथिला राज तुम्हें नज़र आएगा. मैंने बुलाकी की ओर देखा. वह महाभोज से लौटते हुए मोहभंग का व्याख्यान दे रहा था. उसने बताया कि बैजू बाबू और कमलेश जी में वर्चस्व को लेकर लड़ाई ठनी है. आज दिन में कमलेश जी, बैजू बाबू के यहां भोज खाने आने में आनाकानी कर रहे थे, तो उनके ही एक साथी उदय शंकर ने उन्हें बुरी तरह लताड़ दिया था. कहा था कि वहां गांव-गांव से लोग आएंगे. उनके बीच आपकी उपस्थिति आपके ही हित में है. बुलाकी साव ने बताया कि तभी उसने भी तय किया कि मैथिली की इस श्राद्ध-कथा का आख़िरी भोज वह भी खाएगा और मुझे भी साथ ले जाएगा.
इस बीच मेरी साइकिल की चैन उतर गयी थी और मैं उतर कर उसे लगाने लगा. इसी बीच बुलाकी साव ने यह कविता मुझे सुनायी.
भाषा में भाषा का तहखाना सपनों के दाम यहां दो आना