
अविनाश दास
अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. बुलाकी के किस्सों की चौदह किस्तें आप पढ़ चुके हैं.जिन्हें आप यहां क्लिक कर पा सकते हैं.
हाजिर है पंद्रहवीं किस्त, पढ़िए.
मां बोली, बाबूजी शाम को आटा ले आएंगे तो रोटी बनेगी बाबूजी जब बच्चा बाबू (रामाश्रय राय) के पब्लिक स्कूल में पढ़ाते थे, उनकी पगार साठ रुपये प्रति माह थी। मंझले चाचा सर्वे ऑफिस में काम तो करते थे, लेकिन घर का खर्च चलाने में उनका योगदान शून्य बटे सन्नाटा था। उनकी शादी हाल में हुई थी, लेकिन मंझली चाची दिमागी तौर पर कमज़ोर थीं। सबसे छोटे चाचा को एक बार बाबूजी ने पीटा, तो किसी ने कह दिया कि बिना मां-बाप के बच्चे का भाई भी कसाई हो जाता है। उस दिन के बाद से बाबूजी ने छोटे चाचा को जीवन में कभी हाथ नहीं लगाया। हालांकि तब दादी जीवित थीं, लेकिन पिछले कुछ सालों से वह लगभग अचेतन थीं। इसलिए वह होकर भी नहीं होने जैसी उपस्थित थीं। मां ही गार्जियन थी। मेरी स्मृतियों में मां के साथ दादी की एक ही तस्वीर घूमती है - दोनों एक साथ बैठ कर बीड़ी पी रहे हैं। बुलाकी साव दादी के लिए बीड़ी के पत्ते लाता था। मुझे दादी की छोटी सी कठौती की भी याद है, जिसमें बीड़ी के पत्ते और तंबाखू रखे होते थे। पांच में से दो बुआ की शादी मेरे पैदा होने से पहले हो गयी थी। तीन बुआ अभी भी हमारे साथ थींं। हम चार भाई-बहन थे। कुल तेरह लोगों का परिवार बाबूजी की साठ रुपये की पगार में ही चलता था।
यह बहुत पुरानी बात नहीं है। '81-'82 की बात है। मैं छह-सात साल का था। मुझसे बड़ी बहन (फूल दीदी) आठ-नौ साल की थी। बाकी दो बड़ी बहन की उम्र दुनियादारी केेे बारे में साकांक्ष रहने की थी - लेकिन फूल दीदी और मुझे नहीं पता था कि सुख क्या होता है, दुख क्या होता है, अमीरी किसे कहते हैं, ग़रीबी क्या होती है। उन्हीं दिनों एक सुबह जब हम सोकर उठे, तो घर में थोड़ा तनाव था। कोई किसी से कुछ बोल नहीं रहा था। मैं मां की गोद में जाकर बैठ गया। उस दिन मां नेे मेरे बाल नहीं सहलाये। बस बीड़ी पीती रही। थोड़ी देर बाद बाबूजी घर से निकल गये। वह वक्त के पाबंद थे और स्कूल जाने का वक्त हो गया था। उनके जाने के बाद मां मुझे और फूल दीदी को बाड़ी में ले गयी और कहा - बाबूजी शाम को आटा लेकर आएंगे। तब रोटी बनेगी। क्या तुमलोग दिन भर भूखे रह सकोगे? मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया, लेकिन फूल दीदी ने कहा कि हां रह लेंगे। मां ने कहा कि मुन्ना को भी संभाल लेनाा। फूल दीदी मुझे लेकर आंगन में मड़बा पर आ गयी। उस वक्त पिताजी के चचेरे भाइयों के घर से सब्ज़ी की बेहतरीन छौंक की खुशबू आ रही थी, लेकिन हम दोनों भाई-बहन मड़बा पर गोटी खेलते हुए उस खुशबू से बचने की कोशिश करते रहे।
दोपहर तक मेरा पेट ऐंठने लगा, लेकिन मैं रोया नहीं। मुझे मां पर भरोसा था। मां ने कहा था कि बाबूजी शाम को आटा लेकर आएंगे। हमारे बड़का बाबा (सबसे बड़े दादाजी) के दामाद शादी के बाद हमारे आंगन में ही बस गये थे। बड़का बाबा की बस एक ही बेटी थी, हमारी सबसे बड़ी बुआ। मैंने उन्हें कभी नहीं देखा था। मेरी सबसे बड़ी बहन के पास ही उस बुआ की थोड़ी स्मृतियां हैं। तो जब हम मड़बा पर बैठ कर बाबूजी के आने का इंतज़ार कर रहेे थे, मेरी उसी बुआ की सबसे छोटी बेटी और मेरी फुफेरी बहन चांदनी दीदी आयी। हमें अपने घर ले गयी। मुझे याद है, उसने फूल दीदी से पूछा था - तुमलोगों ने खाना खा लिया। फूल दीदी ने कहा था - हां हमने खा लिया। मैंने फूल दीदी की ओर देखा और कहा - झूठ क्यों बोलती हो। फिर चांदनी दीदी की ओर देख कर कहा - हमारे घर में आज खाना नहीं बना है। बाबूजी शाम को आटा लेकर आएंगे, तब खाना बनेगा। चांदनी दीदी ने हम दोनों भाई-बहन का हाथ पकड़ कर ज़मीन पर बिठाया और रसोई से एक थाली लेकर आयी। थाली में भात था, दाल थी और आलू की सब्ज़ी थी। फूल दीदी हिचकिचा रही थी, लेकिन मैं तुरत खाने लग गया। थोड़ी देर बाद फूल दीदी भी मेरे साथ खाने लगी।
भरपेट खाकर जब हम घर लौटे तो मां बाड़ी में बैठ कर कचरा साफ कर रही थी। मेरे मुंह पर दाल का एक सूखा हुआ पीला दाना लगा था। मां ने पूछा कि कहां गये थे। फूल दीदी ने सब कुछ सच-सच बता दिया। यह भी बता दिया कि मैंने ही घर की ग़रीबी का राज़ खोला है। मां मेरे पास आयी और ज़ोर से एक थप्पड़ लगाया। उसका दूसरा थप्पड़ मुझ पर पड़ने ही वाला था कि किसी ने मुझे पीछे की तरफ खींच लिया। वह बुलाकी साव था - बस काकी! बच्चे को कहां भूख बर्दाश्त होती है। मां वहीं बैठ कर रोने लगी। फूल दीदी भी मां के पास बैठ गयी। बुलाकी साव मुझे लेकर गाछी (आम के बगीचे) की तरफ निकल गया। मुझे याद है, गाछी में एक पेड़ की छाया में बैठ कर उसने मुहावरे की तरह लगने वाली यह छोटी सी कविता सुनायी थी।
सवा सेर गेहूं नदी नदी रेहू जीवन के पन्नों पर नीली भी स्याही है उजली भी स्याही है लाल-हरी, काली सी बदली भी स्याही है