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क्या खुलासे किए हैं कन्हैया कुमार ने अपनी किताब 'बिहार से तिहाड़ तक' में

नेता जो भविष्य की जोर आजमाइश के लिए संभावनाएं तलाश रहा है. उसकी किताब में क्या है?

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जेएनयू के स्टूडेंट कन्हैया कुमार की किताब आई है. 'बिहार से तिहाड़ तक'. कन्हैया जेएनयू से इंटरनेशनल रिलेशन में पीएचडी कर रहे हैं. एक बरस पहले जेएनयू स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष थे. इसी दौरान वह विख्यात, कुख्यात हुए. मीडिया की पहली नजर उन पर पड़ी चुनावों के दौरान. जेएनयू स्टूडेंट यूनियन पर लगातार आइसा का कब्जा था. बस एक साल टूटा था जब एसएफआई से बगावत कर बनी उसकी जेएनयू यूनिट के परचम तले लेनिन कुमार जीते थे. वर्ना आइसा जेएनयू की सत्तारूढ़ पार्टी बन चुकी थी. कन्हैया कुमार ने ये कब्जा तोड़ा. जबकि उनकी पार्टी एआईएसएफ (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई का स्टूडेंट संगठन) का ज्यादा आधार नहीं था कैंपस में. कन्हैया की जीत में उनकी स्पीच ने भी खूब मदद की. प्रेसिडेंशियल डिबेट के दौरान उनके तेवर वाम और दक्षिण दोनों के किनारे खड़े लोगों को लुभाए. कुछ ही महीनों के बाद यूजीसी के एक फैसले के विरोध में दिल्ली में आंदोलन होने लगा. ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट की तर्ज पर इसे ऑक्युपाई यूजीसी का नाम दिया गया. यहां जेएनयूएसयू अध्यक्ष कन्हैया कुमार अगली पांत में खड़े नजर आए.और फिर फरवरी में जेएनयू कैंपस में एक घटना हुई.
कैंपस के कुछ छात्रों के साथ मिलकर कश्मीरी लड़कों ने भारत विरोधी नारे लगाए. इस दौरान विरोध करने एबीवीपी के लोग पहुंचे. फिर बीच बचाव करने कन्हैया कुमार पहुंचे. इस पूरे वाकये के वीडियो बने. जो अगले दिन से टीवी पर चले. मामला बड़ा हो गया. भारत तेरे टुकड़े होंगे के नारे लगाने वालों की पहचान की कोशिश होने लगी. और इसी क्रम में दबाव बनाने के लिए पुलिस ने कन्हैया कुमार को गिरफ्तार कर लिया. मामला कैंपस और टीवी डिबेट से हटकर देशद्रोही कौन पर पहुंच गया. फैसला अदालत में होना था और आरोपी तिहाड़ में बंद था.
मगर कुछ लोग अदालतों से भी पहले फैसला सुनाने को तैयार थे. उन्होंने पटियाला हाउस कोर्ट में कन्हैया की पिटाई की. पत्रकारों की पिटाई की. वकीलों का भेष धरकर. प्रोफेसरों को भी नहीं बख्शा. कन्हैया कुछ दिन तिहाड़ रहे. फिर अदालत ने उन्हें जमानत दी और अब मामला चल रहा है. ये तो रही भूमिका. मगर जेल से आने के बाद कन्हैया मोदी विरोधी खेमे के फ्रेश पोस्टर बॉय बन गए. उनसे राहुल गांधी और नीतीश कुमार ने मुलाकात की. कई जगहों पर उन्हें भाषण के लिए बुलाया गया. टीवी को जब भी मोदी की खिंचाई करनी होती, कन्हैया के मुंह पर माइक ठूंस दिया जाता. इन सबके परे भी एक जीवन है. एक स्टूडेंट का. जो बिहार के एक गांव से आया. एक नेता का, जो भविष्य की जोर आजमाइश के लिए संभावनाएं तलाश रहा है. और एक चुप्पी का, जो कन्हैया कुमार ने कैंपस और उसके बाहर के लेफ्ट के तमाम अंतरविरोधों पर ओढ़ रखी है. कम से कम किताब में. इन सबकी बात हो रही है क्योंकि उन्होंने किताब में इसे ऐसे ही रखा है. जहां तक कन्हैया गांव दुआर की बात करते हैं. सच्चे नजर आते हैं. मगर जैसे ही वह छात्र राजनीति की बात विस्तार से करते हैं. उनमें अच्छा बनने की एक हसरत नजर आने लगती है. वह बीजेपी को खूब कोसते हैं. मगर बाकियों पर चुप्पी साध लेते हैं. तब उनमें एक लिजलिजा किस्म का लचीलापन दिखने लगता है. जो कि खुर्राट राजनेताओं में पाया जाता है. यहीं कन्हैया कमजोर हो जाते हैं. वो जेएनयू कैंपस की राजनीतिक बारीकियों पर बेधड़क बात नहीं करते. अपने चुनावी प्रबंधन पर भी नहीं. चीजें काली सफेद दिखाते हैं. जबकि ऐसा है नहीं. ये किताब कन्हैया कुमार की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश ज्यादा है. कंटेंट के लेवल पर ज्यादा ठहरने वाली चीजें नहीं हैं. वन टाइम रीड जैसा कुछ कह सकते हैं इसे. ये रहा बुक रिव्यू... https://www.youtube.com/watch?v=XMe5ZfP29mY

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