बातचीत तीन तरह की होती है. जावेद अख्तर ने बताया था. सबसे घटिया. लोगों की बात. उससे ऊपर. घटनाओं की बात. सबसे ऊपर विचारों की बात. इन तीनों को मिला दें तो. मेरे ख्याल से होगी सबसे अच्छी बात. किसी नए विचार को पेश करने वाली घटनाओं के पीछे के व्यक्ति की बात. यानी जीवनी. प्रेरक लोगों की जीवनी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर कहते हैं. नौजवानों से, बच्चों से. जीवनी पढ़ा करिए महान लोगों की. हमने सोचा कि उनकी ये बात काम की है. मान ली. हम पढ़ रहे हैं. चूंकि हमारे हम में आप सब भी हैं. इसलिए आप भी पढ़ें. जीवनी. दी लल्लनटॉप की नई पेशकश. हिंदी के एक शीर्ष प्रकाशनगृह प्रभात प्रकाशन के सौजन्य से. आज से. अगले कई दिनों, हफ्तों और महीनों तक. महान लोगों की जीवनी.
सुपर 30 वाले आनंद ने बचपन में प्रयोग करते हुए 'बम' दाग दिया था!
इन पर फिल्म बन रही है. ऋतिक रोशन रोल करेंगे.

पहली किश्त. आनंद कुमार. आईआईटी का हर साल रिजल्ट आता है. हर साल बिहार के इस सपूत का जिक्र आता है. आज उनकी कहानी का एक टुकड़ा. जल्द ही उनकी कहानी बड़े पर्दे पर भी दिखेगी. ऋतिक रोशन उनका रोल करेंगे. वो जो करें ,वो करें ,फिलहाल तो आनंद कुमार का रोल, बदलते भारत की कहानी में ,आप खुद ही पढ़ लें.
इस जीवनी सीरीज में आप किसकी जीवनी पढ़ना चाहेंगे. मुझे मेल करके बताएं. मेरा पता है lallantopsd@gmail.com
खूब पढ़ें. खूब पढ़ें.
सादर- सौरभ
सुपर 30 आनंद की संघर्ष-गाथा (हजारों सपने, एक आनंद)
पैदा होने पर दादी बोलीं, बेटा वापस आ गया
राजेंद्र प्रसाद पटना के मीठापुर मोहल्ले के गौड़ीय मठ नाम की बस्ती में अपनी पत्नी जयंती देवी, माता-पिता और पैर से विकलांग भाई के साथ रहते थे. वो रेलवे की मेल सेवा में पत्रों की छंटाई का काम करते थे और मुश्किल से गुजारा चलने लायक कमाते थे. भुखमरी उनसे कभी दूर नहीं रहती थी, लेकिन परिवार किसी तरह पेट भरने और उस मकान का किराया भरने जितना जुटा लेता था, जो पटना के मानकों से भी बेहद मामूली था. 8 बाई 8 फीट के दो कमरे, एक साझा रसोईघर और बरामदा, जो दो परिवारों को समायोजित करता था. आधे हिस्से में राजेंद्र प्रसाद और जयंती रहते थे, जबकि उनके भाई मीना प्रसाद और उनका परिवार बाकी आधे हिस्से में रहते थे. उनके माता-पिता के पास अपना कोई कमरा नहीं था और वो कभी राजेंद्र के कमरे में और कभी मीना प्रसाद के कमरे में सोते थे.प्रसाद का परिवार उन 7.5 करोड़ लोगों में से था, जो सन् 1973 में बिहार की आबादी का निर्माण करते थे और जिसमें से 70% गरीबी रेखा के नीचे रह रहे थे. 54% के राष्ट्रीय औसत की तुलना में भारत की GDP विकास दर राष्ट्रीय स्तर पर 1% से कम थी और बिहार इस मामूली वृद्धि का भी महत्त्वपूर्ण लाभार्थी नहीं था. गरीबी एक संकुचित करने वाली पीड़ा होती है. संपन्न लोग कल्पना भी नहीं कर सकते कि गरीब अपनी परिस्थितियों में रहते हुए एक-एक दिन कैसे गुजारते हैं. लेकिन गरीब लोगों को खुशियां भी मिलती हैं. ऐसी चीजें होती हैं, जो उन्हें घोर निराशा से बाहर लेकर आती हैं और ऐसी ही एक खुशी ने प्रसाद परिवार के दरवाजे पर दस्तक दी.
उस खुशी के लिए उससे बेहतर और कोई समय नहीं हो सकता था. 1 जनवरी, 1973 की सर्दियों की एक सर्द शाम थी और राजेंद्र प्रसाद ट्रेन में पत्र छांटते हुए कलकत्ता गए हुए थे. गौड़ीय मठ में उनकी पत्नी जयंती देवी पसीने से नहाई हुई थीं और प्रसव पीड़ा से बेहाल थीं. महिलाएं जयंती देवी को एक अलग कमरे में ले गई थीं. शांति देवी ने दृढ़तापूर्वक दो अन्य महिलाओं को निर्देश दिए और जयंती देवी को कोमल स्वर में आश्वस्त करने लगीं, लेकिन अपने दिल में वो भी डरी हुई थीं.

पांच साल पहले राजेंद्र प्रसाद के सबसे छोटे भाई नरेंद्र के कैंसर के आगे घुटने टेक देने के बाद से उनका परिवार उदासी में डूबा हुआ था. वह सिर्फ 18 वर्ष का था. परिवार को नरेंद्र से बहुत उम्मीदें थीं, क्योंकि वो एक प्रतिभाशाली युवक था, जिसमें डॉक्टर बनने के गुण थे. लेकिन दुर्भाग्य से किस्मत की कुछ और ही योजनाएं थीं. डॉक्टर बनकर परिवार को गरीबी से मुक्त करने के बजाय नरेंद्र को कैंसर से बचाने के प्रयास में परिवार की पूरी जमा-पूंजी खर्च हो गई. उन्होंने पूरा एक साल मुंबई के टाटा कैंसर सेंटर में बिताया, लेकिन आखिर में जीत कैंसर की हुई. इस क्षति का असर पूरे परिवार पर हुआ, लेकिन इस दुःख को सहने में सबसे अधिक मुश्किल शांति देवी को हुई. उन्हें इस क्षति ने तोड़कर रख दिया. दिन बीतते गए, लेकिन उनका दुःख कम नहीं हुआ. परिवार को डर था कि वो तनावग्रस्त हो जाएंगी, इसलिए उन्हें लगा कि शायद वातावरण बदलने से शांति देवी को कुछ मदद मिले.
उन्होंने दिल्ली में रहने वाले रिश्तेदारों के पास जाकर कुछ दिन रहने का निर्णय लिया. हालात और बिगड़ गए, जब राजेंद्र प्रसाद और जयंती देवी ने अपनी छह माह की बेटी को संक्षिप्त बीमारी में खो दिया. दिल्ली के रिश्तेदार भी कठिनाई से जीवन बिता रहे थे, लेकिन फिर भी उन्होंने पर्याप्त करुणा दिखाई और शांति देवी को गौड़ीय मठ की भयावहता से कुछ दिनों की राहत प्रदान करने को तैयार हो गए. दिल्ली में शांति पाने के लिए बेताब शांति देवी एक दानेवाले बाबा के पास गईं, जो लोगों की बीमारियों के बारे में सुनते थे और फिर इलाज के रूप में अनाज के कुछ दाने देते थे. शोकाकुल शांति देवी ने बाबा को अपने जवान बेटे और नन्ही पोती की अचानक मृत्यु के बारे में बताया. बाबा ने उन्हें एक दाना दिया और बोले, 'तुम क्यों रो रही हो? तुम्हारा बेटा ठीक है और रास्ते में है. अपने घर वापस जाओ.'
शांति देवी आश्चर्यचकित हो गईं, लेकिन उन्हें बाबा पर विश्वास था. उन्होंने उसी रात पटना वापस जाने के लिए ट्रेन पकड़ ली और जब वे घर पहुंचीं, तो उन्हें पता चला कि जयंती देवी गर्भवती थीं. उन्होंने अपनी बहू को गले लगा लिया और धीरे से बोलीं, 'चिंता मत करो, हमारी बुरी किस्मत चली जाएगी.' गर्भावस्था का समय बहुत नाजुक था, क्योंकि जयंती देवी ने कुछ ही महीनों पहले अपनी बच्ची खोई थी और वो बहुत कमजोर शारीरिक और मानसिक स्थिति में थीं. इस दूसरी त्रासदी ने परिवार को और गहरी निराशा में डुबो दिया था, इसलिए शांति देवी दिल्ली से अपने घर एक उम्मीद और वादे के साथ लौटीं और तब से उन्होंने अपनी बहू की अच्छी तरह से देखभाल की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली.

आनंद की मां जयंती देवी/ source-daily mail
उनका घर रेलवे की पटरियों से 15 फीट की दूरी पर था और जितनी बार कोई ट्रेन वहां से गुजरती, उनका छोटा सा घर खड़खड़ाने लगता और नीचे की जमीन हिलने लगती. 1 जनवरी को जब सब महिलाएं एक कमरे में बंद हो गईं, तो परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने निजी डर का सामना करते हुए किसी अच्छी खबर के लिए उत्साह से प्रार्थना करने लगा. जब शांति देवी ने बच्चे को अपने हाथों में लिया, तो कई वर्षों के बाद उनके चेहरे पर एक वास्तविक मुस्कान आई. 'मेरा बेटा वापस आ गया.' वे किसी मंत्र की तरह लगातार दोहरा रही थीं. राजेंद्र के पिता कामता प्रसाद ने, जो गली में चहलकदमी कर रहे थे, जबकि उनका बेटा मीना प्रसाद चुपचाप बरामदे में बैठा था, घर के अंदर से आती रोने की आवाज सुनी, तो भागकर अंदर गए.
उन्हें ये सब एक चमत्कार लग रहा था. उनके परिवार को हाल में इतने दुर्भाग्य का सामना करना पड़ा था कि उन सबने इस बात पर विश्वास करना शुरू कर दिया था कि उनके जीवन में इस निराशाजनक अस्तित्व के अलावा कुछ बचा ही नहीं था.
शांति देवी एक मोटे कंबल में लिपटे बच्चे को दोनों पुरुषों के पास लाईं. मीना प्रसाद की खुशी का ठिकाना नहीं था. उन्हें अफसोस हो रहा था कि उनका भाई उस समय वहां नहीं था. इसके अलावा उसे अपनी मां को फिर से मुस्कुराता देख बहुत राहत महसूस हो रही थी. अचानक वह घर, जो भूतिया और अंधेरा सा लगता था, खुशी और आशा से चहकने लगा. सब एक-दूसरे से गले मिलकर खुशी के अतिरेक से रोने लगे. पड़ोसियों ने घर से आती आवाजें सुनीं, तो वो भी उनके घर के बाहर एकत्र हो गए और जल्दी ही पूरे मोहल्ले में खबर फैल गई कि प्रसाद परिवार में एक स्वस्थ बालक का जन्म हुआ है.

बेटे के जन्म से अनजान थे राजेंद्र प्रसाद
दो दिन बाद राजेंद्र प्रसाद ट्रेन से उतरे, इस बात से अनजान कि घर में कौन सी खबर उनका इंतजार कर रही थी. वो काफी चिंतित थे और जल्दी से जल्दी अपनी पत्नी के पास पहुंचना चाहते थे, क्योंकि वो जानते थे कि उनकी पत्नी इस गर्भ को लेकर कितनी घबराई हुई थी. रास्ते में उन्हें रमेश शर्मा मिले, जिन्होंने उन्हें पिता बनने को लेकर छेड़ा और दिल से बधाई दी.राजेंद्र हैरान हो गए. संचार सुविधा की कमी के कारण उन्हें बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि बच्चे का जन्म हो चुका था. घर के पास पहुंचने पर उन्होंने अपने कदम तेज कर दिए और अंतिम कुछ मीटर तो उन्होंने भाग कर तय किए. उनका भाई मीना प्रसाद उन्हें गले से लगाकर चिल्लाने लगा, 'लड़का हुआ है' और राजेंद्र अपने घुटनों के बल जमीन पर बैठ गए. उनकी आंखें आसमान की ओर थीं और हाथ प्रार्थना में जुड़े हुए थे. उन्होंने अपनी मां और पत्नी को देखा. शांति देवी ने खुशी के आंसुओं के साथ कहा, 'आनंद आ गया! अब सब ठीक हो जाएगा'. और इसी के बाद बच्चे का नाम आनंद हो गया.
आनंद गौड़ीय मठ में बड़ा हुआ, जो पटना की ओर जाने वाली एक मुख्य सड़क और दिल्ली-हावड़ा रेलवे लाइन, जो बिहार की सबसे व्यस्त रेलवे लाइन है, के बीच स्थित था. रेल की पटरियां मध्य भारत से पूर्वी भारत की ओर यात्री और माल ले जाने में व्यस्त रहती थीं और अब भी रहती हैं. आनंद, अपने नाम के अनुरूप, प्रसाद परिवार में खुशियां लेकर आया था. कभी-कभी तो वो भूल जाते थे कि वो इतनी गंदगी के बीच रहते थे और अशक्त कर देने वाली गरीबी से कुछ ही इंचों की दूरी पर थे. आनंद के दादा कामता प्रसाद जब भी मंदिर या किसी अन्य सामाजिक समारोह में जाते, तो नन्हे आनंद को अपने कंधों पर बिठाकर ले जाते. बारिश के दिनों में या कड़ी धूप में वो अपनी लुंगी उतारकर मौसम के प्रकोप से बचाने के लिए बच्चे के चेहरे को ढक देते और घर के अंदर सिर्फ अपने चारखाने के जांघिये में प्रवेश करते.
आनंद के दादाजी शौक के तौर पर तबला बजाते थे और बालक को अपने खिलौनों पर हाथ मारकर या जब खिलौने सामने नहीं होते थे, तो एक काल्पनिक तबले पर अपनी उंगलियों की थाप देकर उनकी नकल उतारने में मजा आता था. दुर्भाग्य से आनंद जब सिर्फ तीन वर्ष का था, तो उसके दादाजी की मृत्यु हो गई, इसलिए वह लंबे समय तक उनके अनुभव और प्यार का लाभ नहीं उठा पाया. लेकिन परिवार के बाकी सदस्यों ने कामता प्रसाद की मृत्यु के बाद आनंद का और अधिक ध्यान रखकर उनकी कमी को पूरा कर दिया.
आनंद शुरू से ही शरारती और उत्सुक थे
आनंद के जन्म के दो वर्ष बाद परिवार में और वृद्धि हुई. उसके भाई प्रणव के जन्म के साथ, जो उसका सबसे अच्छा मित्र बन गया. स्कूल के पहले के उन शुरुआती दिनों में उनके घर का 3 बाई 6 फीट का दालान उनका खेल का मैदान था. मीना प्रसाद का बेटा ओम कुमार उनके तात्कालिक वृत्त की तिकड़ी को पूरा कर देता था, लेकिन गौड़ीय मठ के आसपास की गलियों के सभी बच्चे उन तीनों के लिए उनके निरंतर साथी थे.आनंद एक शरारती और उत्सुक बालक था. उसकी मां अक्सर उसे किसी न किसी बवाल में फंसा हुआ पाती थीं, जिनमें से ज्यादातर के लिए वो खुद ही जिम्मेदार होता था. वो हर एक चीज के काम करने का तरीका जानना चाहता था. वो जानना चाहता था कि मोटर गाड़ियां पेट्रोल से क्यों चलती थीं, पानी से क्यों नहीं. वो जानना चाहता था कि टॉर्च और रेडियो को बैटरी की जरूरत क्यों होती है. जहां दूसरे बच्चे अपने खिलौनों से खेलकर संतुष्ट रहते थे, आनंद को मुख्य रूप से खुशी मिलती थी खिलौने को तोड़कर देखने में कि वो कैसे काम करता था.जब आनंद ने पहली बार चुंबक देखी, तो वह पूरी तरह मोहित हो गया था. वो जानना चाहता था कि क्यों लोहे के सिर्फ कुछ ही टुकड़े चुंबकीय होते थे और क्यों वह सिर्फ धातुओं को आकर्षित करते थे, गैर-धातुओं को नहीं. उसने अपने कई दोस्तों से पूछा, लेकिन सबने उसे अलग-अलग जवाब दिए. फिर वो किसी बड़े के पीछे पड़ा, तो उन्होंने बताया कि एक लोहे के टुकड़े में चुंबकीय शक्ति तब विकसित होती है, जब उसे बिजली का झटका दिया जाता है.
अब आनंद को खुद ऐसा करके देखना था. उसने अपने घर में इधर-उधर लटक रहे बिजली के कुछ तारों का प्रयोग किया, जिसका नतीजा शॉर्ट सर्किट के रूप में सामने आया. एक जोर का धमाका हुआ और बिजली गुल हो गई. आनंद घबरा गया. बड़ों से सजा मिलने के डर से वो वहां से भाग गया और कुछ दूर जाकर छिप गया. वो घर तभी लौटा, जब मकान मालिक ने फ्यूज ठीक कर दिया और घर में बिजली आ गई. एक अन्य दोस्त ने उसे बताया कि यदि लोहे को रेल की पटरियों पर रखा जाए और उस पर से ट्रेन गुजर जाए, तो दबाव के कारण उसमें चुंबकीय गुण उत्पन्न हो जाएंगे. आनंद उत्साहित हो गया और फौरन लोहे के कुछ टुकड़े लेकर अपने घर के पीछे मौजूद रेल की पटरियों पर पहुंच गया.
दोस्तों की मौजूदगी में उसने लोहे के टुकड़े ध्यान से पटरियों पर रखे और इंतजार करने लगा. कुछ ही देर में एक ट्रेन आई और उन टुकड़ों पर से गुजर गई. ट्रेन के जाने के बाद प्रसन्न आनंद ने उन टुकड़ों में चुंबकीय शक्ति की जांच की, लेकिन उसे निराशा हाथ लगी. बाद में अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान उसे समझ में आया कि लोहे के टुकड़ों में चुंबकीय गुण उत्पन्न करने के लिए चुंबकीय क्षेत्र की आवश्यकता होती है, सिर्फ दबाव या बिजली की नहीं. हालांकि, परिणामों के बावजूद ये प्रयोग उसके शुरुआती दिनों का महत्वपूर्ण हिस्सा थे.
जैसे-जैसे वो बड़ा होने लगा, परिवार के सदस्यों और पड़ोसियों को आनंद के अनूठे तरीकों और चुनौतियां सुलझाने की उसकी लगन की आदत पड़ने लगी. जब वो दस या ग्यारह वर्ष का था, तो उसने काल्पनिक रेडियो की रचना करके एक खेल बनाया. स्वाभाविक रूप से उस काल्पनिक रेडियो को काल्पनिक एंटीना की आवश्यकता थी, जिसे अच्छा रिस्पॉन्स पाने के लिए जितना संभव हो, उतना ऊंचा रखना था. ऐसा करने के लिए चढ़ाई की कई घटनाएं हुईं, जिनमें से सब सफल नहीं रहीं. ये घटनाएं इतनी आम हो गई थीं कि ऐसे ही एक चढ़ाई अभियान के दौरान जब वो पास के एक खंभे से गिरा, तो उसकी चीखने की आवाज सुनकर पड़ोसियों ने सिर हिलाकर कहा, 'आनंद होगा'.

आखिरकार उसने काल्पनिक रेडियो से वास्तविक रेडियो तक का सफर तय कर लिया. रेडियो से आवाज आ रही थी और वो खुद तो गानों को सुन ही रहा था, लोगों को भी सुनाने की कोशिश कर रहा था. जब भी उसे कोई टूटा हुआ रेडियो मिलता, तो वो उसे घर लाकर उसकी मरम्मत करने की कोशिश करता. अपने इन प्रयासों में उसने उनमें से कई रेडियो पूरी तरह खराब कर दिए, लेकिन उसके प्रयोग हमेशा बेकार नहीं जाते थे. फिर एक दिन आया, जब उसने अपने हाथों से एक रेडियो ठीक कर ही दिया. हालांकि, उस रेडियो ने कुछ ही दिन काम किया, लेकिन युवा आनंद के लिए वह एक निर्णायक क्षण था, क्योंकि उसने सीख लिया था कि दृढ़ संकल्प से आप किसी भी चुनौती का सामना कर सकते हैं.
साइंस के अलावा संगीत में भी रुचि थी
संगीत प्रसाद परिवार की परंपराओं का अभिन्न हिस्सा था. अपने दादाजी के पद-चिह्नों पर चलते हुए आनंद ने मात्र 11 वर्ष की उम्र में पटना के मशहूर रवींद्र भवन आर्ट थिएटर में आयोजित तबला वादन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता. मीना प्रसाद ने हारमोनियम बजाया था और वो प्रेमपूर्वक याद करते हैं कि आनंद का प्रदर्शन कितना अद्भुत और मनोरंजक था.राजेंद्र प्रसाद आनंद को एक अच्छे स्कूल में भेजने के इच्छुक थे. वो अच्छी तरह समझते थे कि शिक्षा ही गरीबी के चंगुल से बाहर निकलने का एकमात्र रास्ता है और यही बात वो आनंद के दिमाग में भी अच्छी तरह स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे. जब आनंद चार वर्ष का था, तो उसका दाखिला पटना के सेंट जोजफ कॉन्वेंट स्कूल में हो गया. हमेशा से एक बोधगम्य बच्चा रहा आनंद संपन्न परिवार के बच्चों और खुद के बीच के फर्क को गौर से देखता था. जहां गौड़ीय मठ में फटे-पुराने कपड़े पहनना और सड़क के किनारे बिकनेवाली चीजें भी खरीद पाने के पैसे न होना सामान्य बात थी, वहीं अन्य छात्रों के साफ-सुथरे, लाड़-प्यार से दमकते चेहरे उसके मन में कसक पैदा करते थे. लेकिन ये तकलीफ उसे ज्यादा दिनों तक नहीं सहनी पड़ी.
निजी संस्थान होने के कारण राजेंद्र के लिए अपने बेटे को वहां पढ़ा पाना मुश्किल था और जब वह कक्षा 4 में था, तो आनंद को मॉडल सेंट जेवियर्स स्कूल में शिफ्ट कर दिया गया. यह पहली बार था, हालांकि दुःखद रूप से अंतिम बार नहीं कि आनंद ने सीखा कि कैसे पैसा एक विशेषाधिकार था और किस तरह गरीबी आपके मुंह पर अवसरों के दरवाजे बंद कर देती है. राजेंद्र प्रसाद आनंद को चाय के साथ सुबह-सुबह जगाते थे और कभी-कभी उसे बिस्तर से उठाने के लिए गाना भी सुनाते थे... 'जागो मोहन प्यारे'. आनंद बिस्तर से उछलकर बाहर निकलता और अपने पिता के पांव छू लेता. कभी-कभी आनंद को शर्मिंदा करते हुए जवाब में उसके पिता भी उसके पांव छू लेते, जैसे उससे प्रतिस्पर्धा कर रहे हों, 'तुम किसी दिन बड़े आदमी बन सकते हो, जिसके पांव सब लोग छुएंगे. अगर तब तक मैं नहीं रहा तो?' आनंद के विरोध करने पर वो हंसते हुए कहते.सुबह की ये बातचीत इस युवक के व्यक्तित्व के निर्माण में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती थी. भले ही राजेंद्र प्रसाद गरीब थे, लेकिन वे बुद्धिमान थे और आनंद के साथ महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करते थे. आनंद की राजनीति और दुनिया को देखने के उसके नजरिए पर उसके पिता के अनुभवों और संवेदनशीलता का गहरा प्रभाव था. राजेंद्र प्रसाद देवदहा नाम के गांव में बड़े हुए थे, जो पटना से सिर्फ 30 किलोमीटर की दूरी पर था. हालांकि, वो हजार किलोमीटर भी हो सकता था, ये देखते हुए कि दोनों स्थानों में कितनी भिन्नता थी. पटना एक बड़ा शहर था, जबकि 1950 के दशक में जब राजेंद्र किशोरावस्था में थे, देवदहा की आबादी सिर्फ दो हजार थी.
प्रसाद परिवार के पास बहुत ही थोड़ी जमीन का संयुक्त स्वामित्व था और राजेंद्र के पिता कामता प्रसाद कुलपति थे. बिहार में उस समय भारत के अधिकांश हिस्सों की तरह भूमि सब कुछ होती थी और सबसे धनी परिवार बड़े-बड़े जमींदारों के होते थे, जो अपने कर्मचारियों को गुलामों से कुछ ही बेहतर समझते थे.
कामता प्रसाद के पास भूमि थी, लेकिन वे एक छोटे भू-स्वामी थे और परिवार के लिए पैसा एक दुर्लभ वस्तु थी, जबकि वो गांव के चिकित्सक भी थे. वो कृतज्ञ गांववालों को पारंपरिक औषधियां देते थे, लेकिन उनकी पैसे चुकाने की क्षमता न्यूनतम थी. इसलिए कामता प्रसाद के बच्चों के नसीब में एक कमीज और एक नेकर ही होती थी, जो वो सालभर चलाते थे.
विडंबना ही थी कि कामता प्रसाद के खुद चिकित्सक होने के बावजूद उनके आठ बच्चे जवान होने से पहले ही स्वर्ग सिधार गए और ऐसा आधुनिक दवाओं और समुचित आहार के अभाव के परिणामस्वरूप हुआ. यह जानते हुए कि शायद शिक्षा ही वो एकमात्र रास्ता है, जो उनके बेटे को ग्रामीण बिहार के कष्टप्रद जीवन से बाहर निकाल सकता है, कामता ने राजेंद्र को उसकी पुस्तकों पर ध्यान देने के लिए और जितनी हो सके, शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया. कई वर्षों बाद राजेंद्र भी आनंद के साथ ऐसा ही करने वाले थे. हालांकि, ऐसा करने की तुलना में कहना आसान था, क्योंकि देवदहा में एक बच्चे के लिए शिक्षा प्राप्त करना कोई आसान काम नहीं था. सबसे निकट का स्कूल लगभग 6-7 किमी दूर था और गांव का जो बच्चा स्कूल जाना चाहता था, उसे पढ़ने के लिए प्रतिदिन पैदल आना-जाना पड़ता था.

डायरेक्टर विकास बहल के साथ आनंद कुमार
जब राजेंद्र युवा थे, तो उन्हें लगता था कि उनके भाई मीना प्रसाद को भी, जो बचपन से ही विकलांग थे और ठीक से नहीं चल पाता थे, पढ़ने का अवसर मिलना चाहिए और इसलिए वो प्रतिदिन अपने बड़े भाई को कंधों पर बिठाकर स्कूल ले जाते थे. भीषण गरमी के दिनों में भी खुद पसीने से तर-बतर होने और रास्ते में सांस लेने के लिए कई बार रुकने की जरूरत पड़ने के बावजूद वो अपने भाई को लेकर जाते थे.
राजेंद्र बहुत ही प्रतिभाशाली छात्र थे और उन्होंने दसवीं कक्षा प्रथम श्रेणी के अंकों के साथ पास की. सन् 1961 में वो आगे की पढ़ाई के लिए पटना चले गए और इस प्रकार वो गौड़ीय मठ पहुंच गए, जहां वो अपने परिवार के पहले कॉलेज स्नातक बनने वाले थे. सन् 1966 में राजेंद्र ने जयंती से विवाह किया और मीना प्रसाद को साथ लेकर वो इस छोटे से दो कमरे के मकान में आ गए, जहां आगे जाकर आनंद कुमार का जन्म हुआ.
जब आनंद ने अपने खतरनाक प्रयोग से गौरियामठ का इलाका हिला दिया
एक दिन गौरियामठ के आसपास के पूरे इलाके में एक धमाके की आवाज सुनाई दी, जिसने वहां के निवासियों को उनकी दिनचर्या से और उनके घरों से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया. वहां मौजूद लोगों ने एक विशाल सफेद रोशनी देखी और फिर अंधेरा हो गया और अब उनके सामने एक छोटी सी आग में जलता हुआ प्लास्टिक रह गया. इस अपराध का संयोजक और कोई नहीं, बल्कि जिज्ञासु आनंद कुमार था, जो अब ग्यारह वर्ष का था.'क्या हुआ?' जयंती देवी ने अपने बेटे को गुस्से से घूरते हुए पूछा. उसकी हरकतें अब उनकी दिनचर्या का हिस्सा बनती जा रही थीं, लेकिन ये हरकत जिस परिमाण की थी, उसमें आनंद के सक्षम होने की जयंती ने कल्पना भी नहीं की थी. पड़ोसी भी बहुत नाराज लग रहे थे. ग्यारह वर्ष के बालक ने अपनी मां और संख्या में बढ़ते पड़ोसियों की ओर शरमाते हुए देखा और अपने पास रखी बाल्टी भर मिट्टी से बची-खुची आग बुझाने लगा. पूर्व चिंतन के इस सबूत को देखकर जयंती देवी का गुस्सा और बढ़ गया.
'अपने पिताजी को आने दो, ऐसे खतरनाक प्रयोग करने के लिए तुम्हें अच्छी सजा मिलेगी.' और आनंद के विरोध की उपेक्षा करते हुए वो अपने काम निपटाने चली गईं. शाम को जब राजेंद्र प्रसाद घर आए, तो उन्हें आनंद की हरकत के बारे में बताया गया. 'ठीक-ठीक बताओ, क्या हुआ? मैं आनंद के मुंह से ही सुनना चाहता हूं.' कोई कुछ कहता, उसके पहले ही आनंद के पिताजी ने घोषणा कर दी. सब लोग उस बालक की ओर देखने लगे, जिसे देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे वो दीवार में समा जाने की कोशिश कर रहा हो.
'पिताजी, बात ये है कि हम स्कूल में केमिस्ट्री पढ़ रहे थे और उसमें ये समीकरण था कि यदि आप कार्बाइड और पानी को मिलाकर उसे गरम करते हैं, तो आपको बड़ी मात्रा में ऊर्जा मिलती है.' आनंद ने पेशकश की.'कैसी ऊर्जा? वो तो एक छोटे बम विस्फोट की तरह था.' उसकी मां ने बीच में टोका. दूसरी ओर उसके पिता ने, जो नाराज से ज्यादा उत्सुक थे, पूछा कि 'कार्बाइड क्या होता है?' कॉलेज स्नातक होने के नाते उन्हें उसके बारे में पढ़े या सुने होने की धुंधली सी याद थी, लेकिन वो ठीक से याद नहीं कर पा रहे थे कि कार्बाइड वास्तव में क्या होता है.
'ये एक कंपाउंड होता है', आनंद ने जवाब दिया. 'मैं देखना चाहता था कि इस प्रतिक्रिया द्वारा उत्पादित ऊर्जा एक कार चलाने के लिए पर्याप्त होगी या नहीं.' आनंद ने स्वीकार किया, 'लेकिन शायद कुछ गड़बड़ हो गई'.
राजेंद्र प्रसाद ने विचारपूर्ण मुद्रा में सिर हिलाया और उससे कहा कि वास्तव में कोई गलती ही हो गई होगी. जयंती देवी अपने पति से नाराज थीं, क्योंकि उन्होंने बेटे को उससे अधिक कुछ नहीं कहा और वो राजेंद्र को गुस्से से घूरने लगीं. उनकी गुस्से भरी नजरों को देखकर राजेंद्र को बातचीत का मूल उद्देश्य याद आया और वो आनंद की ओर उंगली हिलाते हुए बोले, 'ओह, ओह! हां हां, आइंदा कभी इस तरह की हरकत मत करना!'
लेकिन यदि आपने आनंद कुमार से पूछा होता, तो वो बताते कि उनके पिता वास्तव में उनसे नाराज नहीं थे. वो बस अपने बेटे के प्रयोगों से आनंदित थे. 'बस, किसी की जान मत लेना.' जैसे ही उनकी मां वहां से गईं, उन्होंने मजाक किया और बाप-बेटे दोनों मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे.
'मुझे तुमसे बहुत बड़ी उम्मीदें हैं.' आनंद को पिता का एक दिन कहना याद आता है, 'यदि तुम सच में एक वैज्ञानिक बनना चाहते हो, तो तुम्हें बहुत पढ़ाई करनी पड़ेगी. गणित बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उसकी आवश्यकता विज्ञान में भी होती है.' आनंद के पिता ने गाल थपथपाते हुए कहा, 'पता नहीं क्यों, लेकिन मुझे महसूस होता है कि तुम कोई बहुत बड़ा काम करोगे.'

जब मुहल्ले के लड़के क्रिकेट खेलते थे, आनंद बेकार चीजों से कुछ नया बनाते थे
जब आनंद स्कूल में नहीं होता या पढ़ाई नहीं कर रहा होता तो वह अपना खाली समय बिताने के ऐसे तरीके ढूँढ़ता, जिनमें अधिकांश बच्चों को कोई दिलचस्पी नहीं होती. जहाँ उसके अन्य दोस्त विभिन्न खेलों की ओर आकर्षित होते, मुख्यतः फुटबॉल और क्रिकेट की ओर. आनंद की दिलचस्पी विभिन्न प्रयोग करने और नई-नई चीजें बनाने में होती थी. वह तरह-तरह के प्रयोग करता और जो कुछ भी वह अपनी किताबों में देखता, वो उसके प्रयोग का विषय बन जाता. मोम से बने ज्वालामुखी, मॉडल मोटर कारें...वो हमेशा नए प्रयोग करने के लिए बेचैन रहता था.औजार हमेशा उसके पास होते थे, और स्थानीय तकनीशियन नवोदित प्रयोगकर्ता को पुराने टेलीफोन सेट और डाइनेमो जैसे टूटे-फूटे उपकरणों की आपूर्ति कर देते थे. यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका था कि बेकार चीजों से कुछ नया निर्मित करना उसे उत्तेजित करता था. जब मोहल्ले के बच्चे क्रिकेट खेलते थे, आनंद विज्ञान की उन फटी-पुरानी पुस्तकों को पढ़ता था, जो उसके पिता किसी तरह बचाए पैसों से पुरानी पुस्तकों की दुकान से खरीदकर लाते थे. दूसरी ओर, समय के साथ यह स्पष्ट होता गया कि उसके छोटे भाई प्रणव को संगीत में ज्यादा दिलचस्पी थी. प्रणव अपने पिता के पद-चिह्नों का अनुसरण करते हुए एक वायलिन वादक के रूप में अपनी योग्यता का विकास कर रहा था.
1970 के दशक के अंत और 1980 के दशक के आरंभ में कई भारतीय परिवारों के लिए स्कूल जानेवाला बच्चा उनके लिए एक सुनहरे अवसर के समान होता था और जैसे-जैसे भारत में प्रौद्योगिकी उद्योगों ने फलना-फूलना शुरू किया, माता-पिता की अपेक्षाएँ, कि उनके बच्चे विज्ञान की पढ़ाई करके अच्छी नौकरियाँ पाएँ, भी बढ़ने लगीं. चूँकि आनंद पहले से ही एक उत्साहित छात्र की भूमिका का निर्वाह कर रहा था, प्रणव को उसकी संगीत प्रतिभा का विकास करने की स्वतंत्रता दे दी गई. वह आगे जाकर भारतीय संगीत परिदृश्य में एक यशस्वी वायलिन वादक बनकर कार्यक्रम प्रस्तुत करने लगा था; लेकिन अंततः भाग्य ने उसे जीवन की दिशा बदलने के लिए बाध्य कर दिया था.
बाद के वर्षों में पिता के साथ हुए वार्त्तालापों से आनंद कुमार को महसूस हुआ कि उसके पिता को उस गरीबी का पूरा एहसास था, जिसने उनके परिवार को और उनके पड़ोसियों के परिवारों को कई पीढि़यों से जकड़ रखा था. वे इस बात से भयभीत थे कि उनकी जन्मभूमि बिहार में अवसरों के अभाव ने राज्य के अधिकांश वंचितों पर अपना विनाशकारी जाल फैला दिया था। जहाँ भारत के कई हिस्से औद्योगिकीकरण और आधुनिकता की दिशा में कदम बढ़ा रहे थे, बिहार विकास के मामले में स्थिर खड़ा था। इससे भी बदतर यह एहसास था कि कई मामलों में वह पीछे की ओर जा रहा था.

राज्य भर में सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों के पतन की शुरुआत होने लगी थी और जाति-आधारित संघर्षों से उत्पन्न होनेवाला रक्तपात एक बार फिर खबरों में छाया हुआ था. उन्हें यह वास्तविकता भी दुखी करती थी कि अनेक बिहारी भारत के अन्य राज्यों की ओर पलायन कर रहे थे और उनमें से अधिकांश कभी लौटकर नहीं आए थे.
राजेंद्र प्रसाद को विश्वास था कि बिहारी लोग अत्यंत प्रतिभाशाली और योग्य होते थे; लेकिन उनके पास उनकी योग्यता प्रदर्शित करने के लिए कोई मंच नहीं था. उन्होंने बचपन से वह अप्रत्याशित खेल देखा था, जो मानसून किसानों के साथ खेलता था. बारिश अधिकतर या तो बहुत कम होती थी या बहुत ज्यादा. कभी-कभी ही उसका संतुलन सही होता था. गंगा नदी भी अपने आसपास कहर बरपाने के लिए जानी जाती थी. जब मानसून आवश्यकता से अधिक बारिश भेज देता था, उनका अपना गाँव भी कई बार बाढ़ की चपेट में आ चुका था.
जब पिता के नजरिए से दुनिया को देखना शुरू किया
आनंद के बड़े होने के दौरान राजेंद्र इन सब बातों पर उससे खुलकर चर्चा करते थे और समय बीतने के साथ जब उनके बेटों ने किशोरावस्था में प्रवेश कर लिया तो वे नाश्ते के समय उन्हें राजनीतिक व सामाजिक चर्चाओं में शामिल करने लगे. हर सुबह वे तीनों अखबार को विभाजित कर लेते और अपनी दिलचस्पी की खबरें चुनकर पढ़ते. फिर वे उन खबरों पर चर्चा करते.‘‘मैं अपने पिता की नजरों के माध्यम से दुनिया को एक अलग नजरिए से देखने लगा.’’ आनंद कहते हैं, ‘‘आज मैं कोशिश करता हूँ कि प्रतिदिन 4 या 5 अखबार पढ़ सकूँ, और इस आदत के लिए पिताजी को धन्यवाद देता हूँ.’’आनंद कुमार ने अपनी गणितीय प्रतिभा का संकेत दसवीं कक्षा में आने के बाद ही देना शुरू किया—काफी कुछ अल्बर्ट आइंस्टाइन की तरह, जिनकी गणित में उत्कृष्टता भी उनकी किशोरावस्था के मध्य में दिखनी शुरू हुई थी. जयंती देवी ने ध्यान दिया कि उसका गणित में प्रदर्शन काफी बेहतर होता जा रहा है, जो कि उसके उच्च अंकों से स्पष्ट था. उसके अध्यापक भी इस विषय में उसकी उच्च क्षमता पर टिप्पणी करने लगे थे.
दसवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उसने पटना के बी.एन. कॉलेज में दाखिला ले लिया, जहाँ उसके साथी विज्ञान विषयों का चुनाव कर रहे थे, ताकि वे एक दिन इंजीनियरिंग के पेशे में जा सकें. वहीं आनंद ने ट्रैक पर रहते हुए गणित का चुनाव किया.
‘‘उस विषय का चुनाव करो, जिसके साथ तुम सहज महसूस करो।’’ उसके पिता ने सुझाव दिया, ‘‘लेकिन सुनिश्चित करो कि तुम्हें उस विषय में उत्कृष्टता प्राप्त हो.’’जहाँ पटना में जीवन हमेशा की तरह चलता रहा, एक छात्र—सबसे अनजान—अपने वास्तविक रूप में आया और खुद में एक जन्मजात प्रतिभा की खोज की. स्वाभाविक रूप से यह आसान नहीं था. अब तक वह जिस प्रकार का गणित पढ़ रहा था, वह मुख्यतः सैद्धांतिक था और राह में आनेवाली बाधाओं को पार करने के लिए मदद की आवश्यकता थी. अपनी पढ़ाई के प्रति आनंद के उत्साह, प्रश्नों को हल करने की उसकी क्षमता और सवाल पूछते समय उसकी दृढता ने उसके शिक्षकों को प्रभावित कर दिया. वे इस युवक की ओर ध्यान देने लगे, जिसकी संख्याओं के साथ विशेष दोस्ती थी और उसकी प्रतिभा का पोषण करने लगे.

आनंद के प्रोफेसर के मुताबिक गणित को लेकर उनके अंदर भूख थी
देवी प्रसाद वर्मा जो पटना यूनिवर्सिटी में आनंद के प्रोफेसर थे, ने इस छात्र की प्रतिभा और क्षमता पर बहुत पहले ध्यान देना शुरू कर दिया था. ‘‘वो उसका दृष्टिकोण था, जो उसे मेरे इतने करीब लाया.’’ वर्मा याद करते हैं, ‘‘वो बहुत विनम्र था, लेकिन हमेशा विभिन्न स्रोतों से नए प्रश्नों के साथ तैयार रहता था। उसके पास एक खोजपूर्ण दिमाग था, जो पत्रिकाओं और जर्नलों से परामर्श लेकर गणित के क्षेत्र में नई-नई चीजों की तलाश करता रहता था। एक ऐसा काम, जो हर नया छात्र नहीं करना चाहेगा.’’बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (जो अब एन.आई.टी., पटना है) के प्रोफेसर मोहम्मद शहाबुद्दीन अब पटना में सेवानिवृत्त जीवन बिता रहे हैं; लेकिन उन्हें 1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक के आरंभ का एक युवा छात्र याद है, जो नियमित रूप से उनके साधारण से घर के दरवाजे पर सवाल पूछने और शंकाओं का समाधान करने आया करता था. फुलवारी शरीफ के उपनगर में, जो गलियों और सड़कों की भूलभुलैया के रूप में जाना जाता है, एक घर तलाश करना कोई आसान काम नहीं था. लेकिन कई शामों को जब प्रोफेसर साहब अपनी खिड़की से बाहर देखते तो दरवाजे पर शरमीली मुसकान के साथ एक युवक खड़ा दिखाई देता, जिसके चेहरे पर उम्मीद का भाव मुश्किल से छुपाया होता था.
‘‘एक दस्तक मेरा ध्यान आकर्षित करती और सामने का दरवाजा खोलने पर मुझे वहाँ आनंद खड़ा दिखाई देता. मेरे लिए वो हैरानी की बात होती, क्योंकि मैं छात्रों को अपने घर आने के लिए कभी प्रोत्साहित नहीं करता था; बल्कि जब ऐसा पहली बार हुआ तो मैंने उसकी उपेक्षा कर दी थी.’’ वे बताते हैं-लेकिन आनंद ने हार नहीं मानी और अगली शाम वह फिर उनके दरवाजे पर था. ‘‘मैं उससे दरवाजे के बाहर मिला. उसे उन प्रश्नों के बारे में कुछ पूछना था, जो मैंने छात्रों को दिए थे. मैंने उसे समझाया कि उन्हें कैसे करना था और उसे वापस भेज दिया.’’लेकिन यह एक ऐसे क्रम की शुरुआत थी, जो बहुत लंबे समय तक हर दूसरे दिन, और कभी-कभी प्रतिदिन दोहराया जाने वाला था. वो मेरे घर आता था-शहाबुद्दीन कहते हैं, ‘‘और हम प्रश्नों के हल के बारे में दरवाजे के बाहर चर्चा करते थे. संतुष्ट होकर वो (आनंद) घर चला जाता था, कभी पैदल और कभी साइकिल से. फिर एक दिन उसकी दृढता और गणित के लिए उसकी भूख से प्रभावित होकर मैंने उसे घर के अंदर बुला लिया. तब से वो मेरे लिए मेरे परिवार के सदस्य की तरह है.’’
प्रोफेसर शहाबुद्दीन इन घटनाओं को अत्यधिक गौरव के साथ सुनाते हैं, हालाँकि वे स्वीकार करते हैं कि उस समय उन्हें एहसास नहीं हुआ था कि यह असाधारण युवक दुनिया भर में धूम मचा देगा, लेकिन जो वे जानते थे, वह ये था कि उनके इस छात्र में सही मायनों में गणित का सच्चा शिष्य बनने के गुण मौजूद थे. शुरुआती दिनों में दिल में सैकड़ों सवाल लिये आनंद बी.एन. कॉलेज में दाखिल हुए. क्लास का आभामंडल कुछ ऐसा था कि लगा यहाँ गणित के साथ जिंदगी के सवाल भी हल हो जाएँगे.
वहाँ गणित के प्रोफेसर श्री बाल गंगाधर प्रसाद से मुलाकात हुई. क्या अंदाज था. सीधा व सटीक. प्रो. गंगाधर प्रसाद के पढ़ाने की शैली से आनंद बेहद प्रभावित हुए. वे प्रोफेसर से मिले, उनसे आग्रह किया कि वे उनके घर पढ़ाई के सिलसिले में आना चाहते हैं. लेकिन जवाब मिला—कॉलेज में ही उनसे सवाल पूछ लिया करें. इसके बाद एक दिन संयोग बना. कॉलेज के चपरासी कपिलजी ने आनंद को प्रोफेसर के घर का पता बताया. आनंद से रहा नहीं गया. वह सीधे प्रोफेसर के घर पहुँच गया. दरवाजे पर कॉल-बेल लगा था. दबा दिया. अंदर से आवाज आई—‘‘कौन है?’’
घबराए गले ने आनंद ने कहा—‘‘सर, मैं आनंद.’’ दरवाजा बाल गंगाधरजी ने ही खोला. अचरज से भरी आँखें लिये कहा—‘‘आओ आनंद. कैसे हो?’’ जवाब में आनंद के हाथ उनके पैरों तक पहुँच गए. उन्होंने आनंद की लगन देखकर उन्हें गुरु ज्ञान दिया. यह भी बताया कि नंबर थ्योरी के लिए आनंद प्रोफेसर देवी प्रसाद वर्मा से मुलाकात करें. उनका यह सुझाव बहुत काम आया.
प्रो. बाल गंगाधर प्रसाद उन बीती यादों को आज भी अपनी आँखों में कैद किए बैठे हैं. वे कहते हैं—‘‘आनंद की आँखों में एक अजीब सी ललक छलकती थी. वह पढ़ने में हर दिन एक नया प्रयोग करता था. थ्योरी से खेलता था. गणित के सवालों से खिलवाड़ करता था. वह इतना सटीक व तार्किक तरीके से अपने सवालों को हल करता था कि देखकर मन प्रसन्न हो जाया करता था. मुझे याद है कि वह नंबर गेम में कभी भी शामिल नहीं रहा. वह सवाल के पूरी तरह हल नहीं हो जाने तक उसे पूरी तरह माँजा करता था. एक विशेष गुण, जो उसे अन्य छात्रों से अलग करता था, वह यह कि वह अपनी विशिष्ट पाठ्य शैली को अपने तक ही सीमित नहीं रखता था, बल्कि अन्य छात्रों से उसे साझा भी करता था. और यही कारण है कि आनंद आज इस ऊँचाई तक पहुँचा है. मुझे आनंद पर बहुत गर्व है.’’

ये भी पढ़ें:
ये 'मॉल वाली बहू' क्या है, जिसके चलते राबड़ी देवी की आलोचना हो रही है
'टॉयलेट: एक प्रेम कथा' के असली हीरो अक्षय नहीं प्रियंका भारती हैं