ऊपर से ठाट-बाट, नीचे रामरेखा घाटयानी ऊपर से तो सब ठीक-ठाक है लेकिन अंदर सबकुछ खोखला है.
इसी बक्सर के एक छोटे से गांव गेरुआबंध में 11 फरवरी 1961 को एक बच्चे का जन्म हुआ. नाम रखा गया गुप्तेश्वर पांडे. यह गांव बिजली, सड़क, अस्पताल और स्कूल जैसी मूलभूत सुविधाओं से कटा हुआ था. गांव के बच्चों को पढ़ने के लिए नदी-नाला पार कर दूसरे गाँव के स्कूल में जाना होता था. दूसरे गांव में भी स्कूल की हालत अच्छी नहीं थी. न कोई बेंच, न डेस्क और न ही कुर्सी. गुरुजी चारपाई पर बैठते थे और छात्र बोरे या जूट के टाट पर. पढ़ाई ठेठ भोजपुरी में होती थी. ऐसी ही लचर शिक्षा व्यवस्था के बीच गुप्तेश्वर पांडे ने भी अपनी पढ़ाई शुरू की थी. बकौल गुप्तेश्वर पांडे, वे अपने परिवार के पहले सदस्य हैं जिन्होंने स्कूल का मुंह देखा था. स्कूल पूरा करने के बाद वह पटना आ गए. पटना यूनिवर्सिटी में संस्कृत ऑनर्स में दाखिला ले लिया. संस्कृत से ही पहले बी.ए. और फिर एम.ए. किया. इसी दरम्यान दोस्तों की सलाह पर UPSC की सिविल सेवा परीक्षा में बैठ गए. तब UPSC में सामान्य वर्ग (General Category) के छात्रों को 3 अटेंप्ट मिलते थे. पहले प्रयास में गुप्तेश्वर पांडे को कुछ हासिल नहीं हुआ. दूसरा प्रयास किया 1986 में. भारतीय राजस्व सेवा (Indian Revenue Service यानी IRS) के लिए चुन लिए गए. नागपुर में IRS ट्रेनिंग संस्थान में ट्रेनिंग करने गए. लेकिन अगले अटेंप्ट की तैयारी भी करते रहे. और इसमें सफलता भी मिली. UPSC के 1987 बैच में अखिल भारतीय सेवा (All India Services) के तहत भारतीय पुलिस सेवा (यानी IPS) में चयन हो गया. बिहार कैडर मिला. तब से लेकर कल यानी 22 सितंबर 2020, जब उन्होंने वीआरएस लिया, बतौर पुलिस अधिकारी 34 साल के करियर में तमाम उतार-चढ़ाव देखे. 40 से ज्यादा मुठभेड़ों का हिस्सा रहे. नरसंहारों का दौर देखा. बाहुबलियों की हनक देखी. राजनीतिक उतार-चढ़ाव देखे. साथ ही साथ मंडल कमीशन के बाद सामाजिक उथल-पुथल का दौर भी देखा. गुप्तेश्वर पांडे ने इस दौरान कुछ मसले सुलझाए, कुछ (कथित तौर पर) उलझाए. अपने बारे में कुछ सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक धारणाएं बनाईं. विधानसभा चुनाव के ठीक पहले बिहार के डीजीपी पद को अलविदा कहने के बाद अब चर्चा तेज है कि ऐसा उन्होंने इसलिए किया है ताकि बक्सर से चुनाव लड़ सकें.

1986 में गुप्तेश्वर पांडे (फोटो: Twitter | ips_gupteshwar)
गुप्तेश्वर पांडे की शख्सियत के ऐसे ही कई पहलुओं से आज हम आपको रूबरू कराएंगे
अपने पुलिस करियर के दरम्यान जिस एक चीज पर गुप्तेश्वर पांडे ने सबसे ज्यादा जोर दिया, वह है कम्यूनिटी पुलिसिंग. दरअसल यह वह तरीका है जिसमें पुलिस प्रशासन और समाज के विभिन्न तबकों के बीच एक विश्वासपरक और सौहार्दपूर्ण रिश्ता कायम करने पर फोकस किया जाता है. अब जाहिर है कि इस प्रकार के पुलिसिया तंत्र पर जोर देने वाला अधिकारी जनता में लोकप्रिय तो होगा ही. और जब किसी अधिकारी की लोकप्रियता इस तरह से बढ़ती है तो कई बार उसके अंदर आदेश फ़ॉलो करने वाले की भूमिका निभाने के बजाए आदेश देने वाले की भूमिका में आने की इच्छा हिलोरें मारने लगती हैं यानी राजनीति की ओर स्वाभाविक झुकाव हो जाता है. गुप्तेश्वर पांडे के मामले में भी कई राजनीतिक टिप्पणीकार ऐसा ही कह रहे हैं.
डीजीपी बनने से पहले 32 साल के करियर में गुप्तेश्वर पांडे ने एएसपी, एसपी, एसएसपी, डीआईजी और आईजी के रूप में बिहार के 26 जिलों में सेवाएं दीं. इस दरम्यान उन्हें दो बातों के लिए खासतौर पर याद किया जाता है. पहला, 1993 में बेगूसराय में आपराधिक गिरोहों से निबटने के लिए. और दूसरा 1996-97 में जहानाबाद में जातीय नरसंहार के बाद सामाजिक समरसता कायम करने की कोशिश के लिए.
पहले उनके 90 के दशक में बेगूसराय में बतौर एसपी बिताए दिनों की बात करते हैं
1993 का साल था. तब तक बिहार में शायद ही किसी ने एके-47 और एके-56 राइफल का नाम सुना होगा. सुना होगा तो फिल्म अभिनेता संजय दत्त और उनके टाडा वाले मुकदमे की वजह से ही सुना होगा. लेकिन बेगूसराय एक ऐसी जगह है, जहां के कुख्यात अपराधी अशोक सम्राट के बारे में कहा जाता था कि उसके गिरोह के पास उस वक्त एके-47 राइफल थी. अशोक का खौफ ऐसा था कि बेगूसराय में उसकी समानांतर सरकार चला करती थी. अंडरवर्ल्ड में तूती बोलती थी. रेलवे के टेंडरों पर एकछत्र राज होता था. बेगूसराय में उन दिनों क्राइम चरम पर था. इसे देखते हुए तेजतर्रार IPS गुप्तेश्वर पांडेय को बेगूसराय भेजा गया. उन्होंने बेगूसराय में पनपे आपराधिक गिरोहों को शंट किया. पुलिस ने एनकाउंटरों में कई नामी क्रिमिनल्स को बैकुंठ पहुंचा दिया. गुप्तेश्वर पांडे ने बड़ी कार्रवाई करते हुए अशोक सम्राट के कई ठिकानों पर रेड मारी और एके-47 बरामद कीं.
दूसरा वाकया बिहार के जातीय नरसंहारों से जुड़ा है
ये गुप्तेश्वर पांडे की कम्यूनिटी पुलिसिंग के फॉर्मूले की असली परीक्षा थी.
1996-97 के दौर में मध्य बिहार यानी पटना के आसपास का इलाका (झारखंड के अलग होने के बाद की परिस्थिति में कहें तो दक्षिणी बिहार) नक्सली गिरोहों और जमींदार वर्गों की जातीय सेनाओं के बीच खूनी संघर्ष का मैदान बन चुका था. कभी नक्सली समूहों से जुड़े भूमिहीन लोग जमींदारों और उनके परिजनों का सामूहिक नरसंहार करते, तो कभी जमींदार वर्गों की सेनाएं नक्सलियों और उनके परिजनों का खून बहातीं. इस खूनी खेल में पूरे इलाके का सामाजिक ताना-बाना बिखर चुका था. यहां तक की सरकारें भी इन नरसंहारों को रोक पाने में सक्षम नहीं हो पा रही थीं. ऐसे हालात में बिहार की सरकार (जिसकी कमान उस समय जनता दल/राष्ट्रीय जनता दल के लालू दंपति के हाथ में थी) अक्सर गुप्तेश्वर पांडे का इस्तेमाल करती थी. भले ही वह नरसंहार वाले जिले में पोस्टेड रहे हों या नहीं. गुप्तेश्वर पांडे को अचानक भेजा जाता. वह कम्यूनिटी पुलिसिंग करते. समाज के अलग-अलग वर्ग के लोगों को बातचीत की टेबल पर बिठाते. आवश्यकता पड़ने पर पुलिसिया रौब दिखाते. कुल मिलाकर उनकी कोशिश होती कि नरसंहार पर प्रतिक्रिया न होने पाए. कई बार वे कामयाब हो जाते, तो कई बार जवाबी नरसंहार की घटना हो जाती.
गुप्तेश्वर पांडे कम्यूनिटी पुलिसिंग के अपने इसी फॉर्मूले का इस्तेमाल साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने और तनाव कम करने में भी करते रहे हैं. इतना ही नहीं, 2016 में जब नीतीश कुमार ने शराबबंदी की घोषणा की, तब उसे लागू करवाने में भी कम्यूनिटी पुलिसिंग की बड़ी भूमिका रही. इसके लिए नीतीश उनकी तारीफ करते रहे हैं. कई लोग मानते हैं कि गुप्तेश्वर पांडे के सफल और बेदाग रिकॉर्ड के साथ-साथ शराबबंदी पर उनकी सक्रिय भूमिका ने ही वह प्लॉट तैयार कर दिया, जिसने केएस द्विवेदी के रिटायरमेंट के बाद उन्हें बिहार के पुलिस महानिदेशक यानी डीजीपी के पद तक पहुंचा दिया. जानकार बताते हैं कि इसके बाद वह नीतीश कुमार की आँखों का तारा बन गए थे.
बतौर डीजीपी गुप्तेश्वर पांडे का कार्यकाल कैसा रहा?
फरवरी 2019 में बिहार के डीजीपी का पद संभालने के साथ ही गुप्तेश्वर पांडे ने रंग दिखाना शुरू कर दिया. कभी वह अचानक किसी थाने पर औचक निरीक्षण करने पहुँच जाते, तो कभी किसी कांस्टेबल के साथ सीधे बातचीत कर उसकी समस्याओं और ड्यूटी की दुश्वारियों से रूबरू होने की कोशिश करते. एक बार तो वह गोपालगंज जिले में रोहित जायसवाल के मर्डर केस को सुलझाने के सिलसिले में खुद वर्दी उतारकर नदी में कूद गए थे.

जब गुप्तेश्वर पांडे गोपालगंज में गमछा पहन के नदी में उतर गए थे.
लेकिन इतने लंबे पुलिस करियर में कुछ ऐसी घटनाएं भी हुईं, जिनकी गुत्थी सुलझा पाने में वह नाकाम रहे. मुजफ्फरपुर का नवरुणा केस भी ऐसा ही मामला था, जहाँ स्कूल जाने वाली एक लड़की का अपहरण हो गया और उसका आज तक कुछ पता नहीं चल पाया. इसी कारण नवरुणा के परिजनों की आज तक गुप्तेश्वर पांडे से शिकायत बनी हुई है.
इसी तरह कार्यकाल के अंतिम दिनों में अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में पटना में एफआईआर दर्ज होने के बाद सक्रिय भूमिका निभाने, रिया चक्रवर्ती के खिलाफ बयानबाज़ी और महाराष्ट्र पुलिस से टकराव - ये सब ऐसे मामले हैं, जिनके कारण लोगों ने अपनी-अपनी सोच के अनुसार गुप्तेश्वर पांडे की छवि दिमाग में गढ़ ली. वह मीडिया की सुर्खियों में आ गए.
वैसे गुप्तेश्वर पांडे की कार्यशैली ऐसी रही कि वह जहाँ भी पोस्टेड रहे, मीडिया की सुर्खियाँ बटोरते रहे. इसी आदत पर एक बार एक सरकारी कार्यक्रम में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें सार्वजनिक रूप से आगाह करते हुए कहा था, "डीजीपी साहब, मीडिया के लाइमलाइट से बचकर रहिए. आजकल आप फ्रंट पेज पर बने हुए हैं लेकिन याद रखिए यही मीडिया एक दिन फ्रंट पेज पर चढ़ाती है तो बाद में ध्वस्त भी कर देती है."
लेकिन ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार उन्हें सिर्फ नसीहत ही देते हैं. जानकारों की मानें तो नीतीश और सुशील मोदी उनके राजनीतिक अरमानों को पर लगाने में भी सहयोग करते रहे हैं. तभी तो उन्होंने दो बार स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति यानी वीआरएस के लिए अप्लाई किया. और दोनों बार नीतीश कुमार और सुशील मोदी के बिहार की सत्ता में रहते हुए ही किया.
वीआरएस का पहला वाकया
2009 का साल. लोकसभा चुनाव और बक्सर की सीट. इस सीट से पिछले चार बार से (1996, 1998, 1999 और 2004 में) भाजपा के लालमुनि चौबे चुनाव जीत रहे थे. वह पाँचवीं बार चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी में थे, लेकिन इस बार दिक्कत यह थी कि 2008 में लोकसभा सीटों का नए सिरे से परिसीमन हो गया था. इसके कारण बक्सर का सामाजिक गणित कुछ बदल गया था. अब वहाँ चुनाव जीतने के लिए सिर्फ ब्राह्मण होना काफी नहीं था. हालांकि ब्राह्मण वहाँ सबसे बड़े वोटर थे लेकिन उनकी संख्या कुछ कम हो गई थी. राजनीतिक टिप्पणीकारों का मानना है कि ऐसे में बिहार कैडर के तेजतर्रार आईपीएस गुप्तेश्वर पांडे ने मौका ताड़ा और भाजपा से टिकट की जुगत में लग गए. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप-मुख्यमंत्री भाजपा नेता सुशील मोदी से चर्चा करने लगे. तब सुशील मोदी ने उन्हें समझाया, 'भले ही अब अटल बिहारी वाजपेयी की जगह लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं लेकिन जहाँ तक लालमुनि चौबे की बात आएगी, वाजपेयी अड़ सकते हैं. इसलिए बेहतर होगा कि आप दिल्ली में केन्द्रीय नेतृत्व के सामने अपनी बात रखें.' लेकिन चुनाव लड़ने या किसी अन्य पेशे से जुड़ने के लिए गुप्तेश्वर पांडे का पुलिस की नौकरी छोड़ना अनिवार्य था. इसी उद्देश्य से गुप्तेश्वर पांडेय ने ऐसा काम किया, जिससे उन पर सवाल उठते रहे हैं. ठीक लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने VRS की अर्ज़ी राज्य सरकार को दे दी. अर्ज़ी मंज़ूर भी हो गयी.
इंडिया टुडे के पत्रकार रोहित सिंह ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि गुप्तेश्वर पांडेय बक्सर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे. वो भी भाजपा के टिकट पर. गुप्तेश्वर पांडेय को ये सुबहा था कि बक्सर के सांसद लालमुनि चौबे का टिकट भाजपा दोहराएगी नहीं.
इधर लालमुनि बाग़ी हो गए. भाजपा ने टिकट लालमुनि चौबे को ही पकड़ा दिया. क्योंकि कथित तौर पर वाजपेयी ने हस्तक्षेप कर दिया था. वैसे उस चुनाव में एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण दरकने के बावजूद राजद के जगदानंद सिंह (जो अभी राजद के प्रदेश अध्यक्ष हैं) ने लालमुनि चौबे को हरा दिया था.
उधर गुप्तेश्वर पांडेय पुलिस सर्विस में पुनर्वापसी का रास्ता खोजने में लग गए. इस्तीफ़ा देने के 9 महीने बाद उन्होंने बिहार सरकार से कहा कि वह अपना इस्तीफ़ा वापस लेना चाहते हैं. नीतीश की सरकार थी. नौकरी में वापसी हो गयी. बिहार के कई अधिकारी इसे सर्विस रूल का उल्लंघन मानते हैं. कहते हैं कि चुनाव लड़ने के लिए VRS लिया. नहीं लड़ पाए तो चुपचाप सर्विस में वापसी भी हो गयी.
इधर गुप्तेश्वर पांडेय ये तो मानते हैं कि उन्होंने चुनाव लड़ने और राजनीति के लिए 2009 में इस्तीफ़ा दिया था, लेकिन भाजपा से नाम जोड़ा जाना ग़लत है. दी प्रिंट से बातचीत में उन्होंने कहा था,
“कोई एक बयान दिखाइए जो मैंने या किसी नेता ने दिया हो कि मैं भाजपा से जुड़ना चाहता था? ये सब क़यास लगाए जा रहे हैं. केवल इस वजह से क्योंकि भाजपा नेता शाहनवाज़ हुसैन जब नागरिक उड्डयन मंत्री थे, तो मैं तीन साल तक उनका OSD था. उससे ही लोगों को लगा कि मैं भाजपा से जुड़ना चाहता हूं. अपने पूरे सर्विस पीरियड में मैंने किसी नेता की तरफ़दारी नहीं की है.”
अब सवाल उठता है कि क्या इस्तीफा दे चुके या स्वैच्छिक रिटायरमेंट ले चुके नौकरशाह या किसी सरकारी कर्मचारी की सेवा में पुनः वापसी हो सकती है क्या?
तो इसका जवाब यह है कि इस्तीफे के बाद सेवा में वापसी का मुद्दा केन्द्रीय कार्मिक मंत्रालय (जिसे DoPT भी कहा जाता है) और संबंधित कैडर वाले राज्य सरकार की इच्छा पर निर्भर करता है. यदि वे चाहें तो ऐसा हो सकता है. इसके अलावा इस्तीफे या वीआरएस की अर्जी की भाषा पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है. अक्सर अधिकारी कुछ लूपहोल छोड़ देते हैं ताकि भविष्य में यदि मूड बने तो सेवा में वापसी का रास्ता खुला रहे. इसी कारण 2009 का लोकसभा चुनाव खत्म होने के कुछ दिनों बाद गुप्तेश्वर पांडे ने पुलिस में वापसी कर ली थी. हालांकि इस पर उस वक्त बिहार के मुख्य सचिव रहे अफजल अमानुल्लाह ने भी आश्चर्य जताया था.

गुप्तेश्वर पांडे (फोटो: Twitter | ips_gupteshwar)
वीआरएस का दूसरा और ताजा वाकया
इस घटना के करीब एक दशक बाद 22 सितंबर 2020 को गुप्तेश्वर पांडे ने एक बार फिर वीआरएस के लिए अप्लाई किया. आनन-फानन में उनका आवेदन स्वीकार कर लिया गया. जबकि वीआरएस से संबंधित आवेदनों के निबटारे के लिए तीन महीने का वक्त तय होता है. इसमें यह देखा जाता है कि 'उक्त आवेदन सही है या नहीं. आवेदन देने वाले ने पूर्ण होशोहवास में आवेदन दिया है या नहीं, आदि-इत्यादि. इसके अलावा संबंधित राज्य सरकार, यूपीएससी और DoPT के बीच की कागजी प्रक्रिया भी होती है. लेकिन गुप्तेश्वर पांडे के मामले में इन सबको सिर्फ एक रात में ही निबटा दिया गया. इससे इस अफवाह को बल मिलता है कि वह अपने गृह क्षेत्र बक्सर से चुनाव लड़ना चाहते हैं. अब पार्टी भाजपा होगी या जनता दल यूनाइटेड (जदयू), इस पर अभी सवाल है. राजनीतिक गलियारों से जो खबरें छनकर बाहर आ रही हैं, उसके अनुसार नीतीश की पार्टी जदयू से उनके चुनाव लड़ने की संभावना ज्यादा है. लेकिन अब यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि आखिर ऐसी क्या नौबत आ गई कि नीतीश कुमार को अपने डीजीपी को रिटायरमेंट से 5 महीने पहले वीआरएस दिलाकर चुनाव लड़ाने पर मजबूर होना पड़ा?
पहली नजर में इसकी तीन वजहें दिखती हैं
पहला
नीतीश कुमार की पार्टी के पास खुद नीतीश के अलावा कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जिसके नाम पर लोग आकर्षित हो सकें, जबकि बतौर पुलिस अधिकारी गुप्तेश्वर पांडे ने ऐसी छवि बनाई है, जिससे वे राज्य के वोटरों को लुभा सकते हैं.
दूसरा
शाहबाद बेल्ट (जिसमें बक्सर भी आता है) में जदयू के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जिसे वे जगदानंद सिंह और प्रशांत किशोर के समकक्ष खड़ा कर सकें. प्रशांत किशोर को पार्टी से निकाले जाने के बाद जदयू में कोई बड़ा ब्राह्मण चेहरा दिख नहीं रहा था. गुप्तेश्वर पांडे ब्राह्मण हैं और प्रशांत किशोर के इलाके से भी हैं. साथ ही परिचय के मोहताज भी नहीं हैं.
तीसरा
नरेन्द्र मोदी के सहारे पिछड़े वर्ग (OBC) में भाजपा की घुसपैठ के बाद अब पिछड़ा वोट बैंक कई भागों में बंट चुका है. कुछ पर राजद की दावेदारी है तो कुछ पर जदयू और भाजपा की. कुछ पिछड़े वोटों पर 'सन ऑफ मल्लाह' मुकेश सहनी और उपेन्द्र कुशवाहा भी दावा करते रहे हैं. स्वाभाविक है कि सवर्ण वोट बैंक पर नीतीश कुमार की नजरें होंगी ही. चूँकि गुप्तेश्वर पांडे चर्चित चेहरा रहे हैं, इसलिए नीतीश शिक्षित मध्य वर्ग में उनके सहारे जदयू की बढ़ाने की कोशिशें कर सकते हैं.
लेकिन अब यह समय ही बताएगा कि नौकरी छोड़कर सियासत में उतरने का गुप्तेश्वर पांडे का दांव कितना खरा उतरता है. 2 साल पहले छत्तीसगढ़ कैडर के आईएएस अधिकारी ओपी चौधरी (जिन्होंने आईएएस से इस्तीफा देकर छत्तीसगढ़ विधानसभा का चुनाव लड़ा लेकिन चुनावी मैदान में खेत रहे) का हश्र हम देख चुके हैं. लेकिन मुम्बई पुलिस कमिश्नर रहे सत्यपाल सिंह का उदाहरण भी हमारे सामने है, जिन्होंने पिछले दो लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के बागपत में चौधरी चरण सिंह के परिवार की चौधराहट को खत्म कर दिया.
इन सबके बीच बक्सर की पुरानी कहावत 'ऊपर से ठाठ बाट, नीचे रामरेखा घाट' को ध्यान में रखकर ही कोई आकलन करना सही होगा.
विडियो- नवरुणा कांड में खुद पर लगने वाले आरोपों को लेकर क्या बोले गुप्तेश्वर पांडेय?