दाल मखनी, मटर पनीर और बनारसी साड़ी.आप कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक चले जाइए. किसी भी ढाबे या होटल में मेन्यु पूछिएगा. दाल मखनी और मटर पनीर हर जगह मिल जाएगा. ऑल इंडिया के विराट सामूहिक मेन्यु का हिस्सा. ऐसे ही, आप किसी भी दुल्हन की पेटी खोल लीजिए. एक न एक बनारसी साड़ी पक्का मिल जाएगी. आपने कभी बनारसी साड़ी को थामा है? अगर हैं, तो बड़े किस्मत वाले हैं हम. कई सौ सालों की विरासत, कई पीढ़ियों की कलाकारी को आपने महसूस किया है. राजे-महाराजों से लेकर आम इंसानों तक. मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक. ऐसा कोई भी नहीं, जो इस खूबसूरती का कायल न हुआ हो. हां, अंग्रेजों ने नुकसान भी बहुत किया इस कला का. अपनी मिलों और फैक्ट्रियों को बढ़ाने के लिए हिंदुस्तानी कपड़ों की कई किस्में मिटा डालीं. वरना एक वक्त था कि कपड़ों वगैरह के मामले में हमारे कलाकारों का कोई मुकाबला नहीं था दुनिया में.

बनारसी सिल्क हैंडलूम साड़ी.
प्योर बनारसी साड़ी कई पीढ़ियों तक खराब नहीं होती खैर, वापस आते हैं बनारसी साड़ी पर. पहले सिल्क को गहरे चटख रंगों में डुबोया जाता है. फिर बुनकर उस पर एक से एक कलाकारियां दिखाते हैं. एक से एक डिजाइन उकेरते हैं. कभी हफ्तों, कभी महीनों की मेहनत से साड़ी पूरा करते हैं. तब जाकर ये किसी के तन पर सजती है. बहुत लंबा और बड़ी मेहनत का काम है ये. और ये आज से नहीं है. कई सौ सालों की विरासत है. प्योर बनारसी साड़ी कई सालों तक खराब नहीं होती. ऐसा भी होता है कि एक साड़ी कई पीढ़ियों में पास होती है. माने, परनानी ने नानी को दिया. नानी ने आपकी मां को दिया. मां ने आपको दिया. फिर आपने अपनी बेटी या बहू को दिया. साड़ी जस की तस रहेगी. कहां से शुरू होता है इस बनारसी साड़ी का सफर? क्या है इसकी खासियत? जानिए ये सब.

बनारसी ब्रोकेड
वेदों में देवताओं के जिन कपड़ों का जिक्र है, वो कहीं बनारसी जैसा तो नहीं? लोग कहते हैं रेशम सबसे पहले चीन में बना था. चीन ने इस रहस्य को दबाकर रखा. किसी को कानोकान खबर भी नहीं लगने दी. कहते हैं कि करीब 2,000 सालों तक चीन ने सिल्क को गुप्त रखा. कई लोग कहते हैं कि भारत बहुत पहले से रेशम को जानता था. कई लोगों ने इसे वेदों के अंदर भी खोज निकाला है. वेदों में 'हिरण्य' नाम की किसी चीज का जिक्र है. माने, देवताओं का कपड़ा. सोने से बना. चारों वेदों में सबसे पुराना है ऋग वेद. उसमें पाया जाता है ये जिक्र. जानकार इस 'हिरण्य' को रेशम पर हुई जरी का काम मानते हैं. अब बनारसी साड़ी की एक खासियत होती है. सोने-चांदी की जरी. कई साड़ियां तो ऐसी भी होती हैं, जिनमें इतनी ज्यादा जरी होती है कि लगता है सोने से बनी हैं. इतने भारी जरी काम के लिए रेशम सबसे मुफीद होता है. तो क्या पता, हिरण्य का भी ये ही मतलब रहा हो. जानकार तो ये भी कहते हैं कि जातक कथाओं में भी इसका जिक्र है. जातक कथाओं में बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियां हैं. 300 ईसा पूर्व से लेकर चौथी सदी के बीच में लिखी गईं. इनमें कई जगह काशी का जिक्र है. लिखा है कि काशी में गंगा किनारे कपड़ों की खूब खरीद-फरोख्त होती है. अब बनारस के जिक्र से तो रेशम-जरी साड़ियों का ही ध्यान आता है. तो सोचिए, कितनी पुरानी परंपरा है बनारसी साड़ियों की.

हथकरघे पर साड़ी बुनता बुनकर.
अकबर न होता, तो बनारसी साड़ियां इतना नाम नहीं कमातीं शायद बनारस बहुत पहले से बुनकरी का गढ़ था. यहां सिल्क कपड़ों का काम कब शुरू हुआ, इसका ठीक-ठीक वक्त बताना मुश्किल है. मगर इतना तय है कि ये बहुत पुरानी विरासत है. एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को बुनकरी के राज बताती थी. बुनकर के बच्चे बुनकर बनते थे. रंगरेज के बच्चे रंगरेज. पीढ़ियों का अर्जा ज्ञान उनको मिलता था. कैसे बुनना है, कैसे डिजाइन होंगे, सब. बनारसी साड़ी की इस परंपरा को सबसे ज्याजा तवज्जो मिली अकबर से. मुगल बादशाह अकबर. कला वगैरह में उनकी बड़ी दिलचस्पी थी. चित्रकारी हो, संगीत हो, या फिर ये मीनाकारी और बुनकरी. सबके कायल थे अकबर. अकबर और उनके बेटे जहांगीर के राज में ऐसी कलाएं बहुत आगे बढ़ीं. उनको आगे ले जाने में बहुत मदद दी गई. अकबर बनारसी सिल्क और उस पर होने वाली जरी का बहुत बड़ा फैन था. उसके हरम की औरतें भी पहना करती थीं ये साड़ियां. शायद ये राजे-महाराजों की ही वजह से हुआ होगा. कि बनारसी साड़ियों पर सोने-चांदी के बेहद बारीक धागों का काम इतने बड़े स्तर पर शुरू हुआ होगा. वरना आम इंसान इतनी महंगी चीजें तो खरीद नहीं सकता न. पहले चीन से मंगवाया जाता था रेशम. मगर फिर दक्षिण भारत के इलाकों में पैदा किया गया रेशम इस्तेमाल होने लगा.

बनारस का नाम आते ही इसके घाट याद आते हैं. और याद आती हैं बनारसी साड़ियां.
साड़ियों पर डिजाइन बनाने का लंबा-चौड़ा विज्ञान है साड़ियों पर होने वाली कलाकारी का भी अपना विज्ञान है. हर कोई नहीं कर सकता. डिजाइन को साड़ी पर कैसे उकेरना है, ये बस सधे हुए हाथ ही कर सकते हैं. कई तरह के डिजाइन होते हैं साड़ियों के. पहले उन्हें ग्राफ पेपर पर बनाया जाता है. फिर 'नक्शा पत्रा' पर उन्हें उभारा जाता है. एक साड़ी को बनाने में सैकड़ों नक्शा पत्रा लगते हैं. इंच-इंच का डिजाइन उभरा होता है इस पर. आप देखेंगे, तो ये नक्शा पत्रा आपको उस कागज जैसा दिखेगा जिस पर ब्रेल लिपि से लिखा जाता है. पूरी साड़ी का डिजाइन इसी तरह बनता है. कहां क्या बनाना होता है, इसका क्रम होता है. यानी, पहले ये. फिर वो. जरी-बूटीकारी का काम भी साथ-साथ चलता है. बहुत धैर्य का काम है ये. जरा भी इधर-उधर होने से साड़ी का डिजाइन बिगड़ जाएगा. महीनों की मेहनत खराब हो जाएगी. बनारस में आपको लाखों बुनकर मिल जाएगे. जब किसी बुनकर को करघे पर बैठे देखेंगे, तो करघे पर खूब सारे धागे लटके दिखेंगे. ये रेशम के धागे होते हैं.
असली-नकली का अंतर पहचानने के लिए बहुत पारखी आंखें चाहिए सोने और चांदी, दोनों के धागे बनाने का तरीका एक सा है. पहले उसका अयस्क लीजिए. अयस्क माने एकदम खरा सोना-चांदी नहीं. थोड़ी मिलावट वाला. फिर उसकी पतली-पतली समतल पतरियां काटी जाती हैं. फिर उन नाजुक पतरियों को रेशम के धागों पर बिठाया जाता है. फिर मशीन की मदद से इन धागों को और समतल किया जाता है. कई बार उनपर थोड़ी पॉलिश भी होती है. ताकि उनकी चमक बढ़ जाए. अब कई जगह तांबे के भी धागे निकाले जाते हैं. फिर उनके ऊपर चांदी का पानी चढ़ा दिया जाता है. बहुत पारखी आंखें ही असली और नकली का अंतर पकड़ पाती हैं.

बनारसी साड़ियों की चार मेन कैटगरी होती हैं. इनका रंग और इसमें इस्तेमाल होने वाले धागों की वैरायटी भी तय होती है.
फूलों-सब्जियों के रंगों का इस्तेमाल बढ़ा है जरी तो अलग हुई. सोने की सुनहरी जरी. चांदी की चमकीली सफेद जरी. ये तो डिजाइन के लिए हुआ. बाकी साड़ी तो रेशम से ही बनती है. धागों को अलग-अलग रंगों में रंगा जाता है. कुछ समय पहले तक ज्यादातर को केमिकल वाले रंगों का इस्तेमाल होता था. मगर इस चक्कर में गंगा और गंदी होती जा रही थीं. अब लोग थोड़ा समझे हैं. पिछले कुछ समय से कुदरती रंगों का इस्तेमाल बढ़ने लगा है. बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में एक IIT है. उसके लोग भी बुनकरों के साथ मिलकर अच्छे-अच्छे कुदरती रंग बनाने में लगे हैं. सब्जियों से, फलों से, फूलों से. गेंदे के फूल से पीला, नारंगी, लाल कितने रंग बन जाते हैं. पहले के जमाने में भी तो ऐसे ही बनते थे रंग.

ये बनारसी ऑरगेन्जा साड़ी का एक नमूना देखिए.
कई सारे डिजाइन बस हथकरघा पर बन पाते हैं हथकरघा पर साड़ी बनाना बहुत ताम-झाम का काम है. कई साड़ियों पर 6 महीने, एक साल भी खर्च हो जाते हैं. ऐसे में साड़ी की कीमत बढ़ जाती है. इस साड़ियों की जो कीमत होती है, उसमें ज्यादातर हिस्सा मजदूरी और धागों की लागत है. जितना अच्छा बुनकर, उतनी अच्छी मजदूरी. जितना खास डिजाइन, उतने खास पैसे. अब इतने पैसे देकर साड़ी खरीदने वाले खरीदार तो ज्यादा नहीं मिलेंगे. कम ग्राहक, यानी कब लोगों को रोजगार. इसी वजह से बुनकरों के लिए काफी मुश्किल पैदा हो गई है. हथकरघा को टक्कर देने आया पावरलूम. मशीन से चलने वाले करघे. इनपर फटाफट काम हो जाता है. खर्च भी कम आता है. मगर पावरलूम की अपनी सीमाएं हैं. बहुत सारे डिजाइन उस पर बन ही नहीं सकते. मसलन, वो एक डिजाइन देखा होगा आपने. साड़ी पर किनारे की तरफ एक टेढ़ा सा पत्ता होता है. वो बस हैंडलूम से बन पाएगा. पावरलूम की साड़ियां शुरू से आखिर तक काफी एक सी होगी. जबकि हैंडलूम की साड़ी में काफी अलग-अलग सी चीजें होंगी. वैसे भी, बनारसी साड़ी की असली खासियत तो हथकरघा ही है. पावरलूम में वो बात कभी नहीं आ सकती.

हथकरघा और पावरलूम में बहुत फर्क होता है. पावरलूम कम खर्च में ज्यादा साड़ियां भले बना दे, मगर डिजाइन की जो खूबसूरती हथकरघे से आती है उसका मुकबाल मशीन कभी नहीं कर सकता.
बनारसी साड़ी पर अब भी है मुगलों की छाप मुगलों ने इस साड़ी को बहुत तवज्जो दी. जाहिर है, उनकी पसंद का भी बहुत ख्याल रखा जाता होगा. इसी वजह से आपको बनारसी साड़ी के डिजाइन में कई इस्लामिक अंदाज की फूल-पत्तियां दिखेंगी. जाली का जो काम होता है, वो भी मुगलों का ही प्रभाव है. फारसी प्रभाव भी है इसमें. जियोमीट्रिक डिजाइन जो है, वो अंग्रेजों का असर है. इसके अलावा भी डिजाइन मिलेंगे आपको. मसलन, हिंदू देवी-देवता. जब जैसा वक्त आया, तब की मांग के हिसाब से डिजाइन तैयार होते गए. अब तो सब अपना ही लगता है.
कितने तरह की होती हैं बनारसी साड़ियां अभी के टाइम में चार तरह की बनारसी साड़ियां मिलती हैं. पहला, प्योर सिल्क. इसको काटन भी कहते हैं. दूसरा, कोरा. यानी ऑरगेंजा. इसपर जरी और रेशम के धागों का काम होता है. तीसरा, जॉर्जेट और चौथा शात्तिर. सबसे मशहूर से प्योर सिल्क. डिजाइन की बात करो, तो कुछ चीजें बड़ी मशहूर हैं. जैसे जमदानी, जंगला, तानचोई, वासकट, कटवर्क, टिशू और बूटीदार. ये बस डिजाइन की कैटगरी है. किस धागे से साड़ी बनी है, इससे इस कैटगरी का लेना-देना नहीं है. हर डिजाइन का रूप-रंग अलग होता है.

वो जो बुनकर के सामने रंग-बिरंगे पेन से रखे हैं, वो असल में जरी के धागे हैं. जिन्हें बुनाई के समय सही जगह पर, डिजाइन के मुताबिक धागों के साथ बुना जाता है.
बनारसी साड़ियों को मिल चुका है कॉपीराइट यहां की साड़ियों को GI टैग मिल चुका है. माने, जियोग्रैफिकल इंडिकेशन. माने, एक खास इलाके में बनी साड़ियां ही बनारसी साड़ियां कही जा सकेंगी. छह जिले हैं उत्तर प्रदेश के. बनारस, मिर्जापुर, चंदौली, जौनपुर और आजमगढ़. बस इन जिलों में बनी बनारसी ही बनारसी कहलाने का हक रखती है. बस साड़ी नहीं, जरी वाले कपड़े की. इन कपड़ों का बहुत कुछ बनता है. कुशन कवर, घर में टांगे जाने वाले सजावटी हैंगिग क्लॉथ. बहुत कुछ.

ये है कातन बनारसी. इसपर बूटीदार डिजाइन है. बूटीदार गहरे नीले रंग की सिल्क साड़ियां होती हैं. इन्हें रेशम, चांदी और सोने के धागों से मढ़ा जाता है. एक खास तरीके से. सुनहरे धागों और चांदी के धागों के रंग का अंतर यहां गंगा और यमुना के नाम से भी पुकारा जाता है.
बनारसी साड़ी की कुछ और खासियत एक अच्छी-भली बनारसी साड़ी में कम से कम 5,600 थ्रेड वायर होगा. मतलब उसकी चौड़ाई में इतने धागे होंगे. इनमें से हर एक थ्रेड वायर कम से कम 45 इंच चौड़ा होगा. हथकरघा पर बुनने वाले बुनकर कम से कम 24 से 26 मीटर का बेस लेकर साड़ी बुनते हैं. एक बनारसी साड़ी को बनाने में कम से कम तीन लोगों की जरूरत पड़ती है. डिजाइन के हिसाब से ये गिनती बढ़ सकती है, लेकिन कम नहीं हो सकती. एक साड़ी बनने में 16 दिन भी लग सकते हैं और एक साल भी लग सकता है. जितना बारीक काम, उतना ज्यादा टाइम. सीधा सा फंडा है. इसको बहुत संभालकर-सहेजकर रखा जाता है. ये बहुत शानदार कला है. मगर इसको लेनेवाले लगातार घट रहे हैं. काम कम होने से कई बुनकर पेशा छोड़ रहे हैं. कई बुनकर परिवार ऐसे हैं, जिनके बच्चे दूसरी राह पर निकल गए हैं. कई तकनीकें खत्म हो चुकी हैं. उन्हें जानने वाले बुनकर अब नहीं रहे. कई खास तरह के डिजाइन भी गायब हो चुके हैं. उन्हें बनाने वाले जानकार अब नहीं रहे. बहुत कुछ है, जो खो चुका है. हाल के सालों में सरकारी कोशिशें बढ़ी हैं. सरकार ध्यान दे रही है. मगर अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.
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