
एक शाम ज़रीन भाभी ने बनारस, गंगा और घाटों से जुड़ा अनुभव साझा किया. उन्होंने बताया कि निक़ाह के बाद सैय्यद भाई सबसे पहले गंगा आरती दिखाने लाए थे. और उसके बाद ज़रीन भाभी अपने मायके की लखनऊ की शाम-ए-अवध भूल सुबह-ए-बनारस के प्यार में पड़ गईं. उन्होंने किस्सा सुनाया, तो हमने ये शेर पढ़ा. जिसे सुन वह भावुक हो गईं.
जाने कितने ही हाथों ने तेरे पानी से वज़ू कर के अपनी इबादत पूरी की है और लोग कहते हैं कि तू हमारी नहीं है

"उफ्फ! ज़िन्दगी को हमने इतना आभासी क्यूं बना रखा है कि उसका वास्तविक रूप देखने से पहले ख़ुद को इतने सारे कूड़े-करकट से आज़ाद करने की ज़रूरत आ पड़ी."


ऐसा करने का इस्लाम में कोई नियम नहीं है. पर लोग कहते हैं कि बलाएं (नज़रें) उतर जाती हैं. लेकिन मुझे इसकी क्या ज़रूरत? मुझे ऐसा करना सुकून देता है. उतना ही सुकून जितना इबादत करने में मिलता है.मैंने उनसे आटे की थोड़ी सी लोई मांग ली. अब मैं भी गोलियां बनाकर उनके साथ मछलियों को खिलाने लगती हूं. ये शायद जादू ही है कि 'फ़िश फ़ूड' 'सोल फ़ूड' में तब्दील होता हुआ महसूस होने लगता है. मछलियों की भूख का तो पता नहीं पर मैं ज़रूर तृप्त हो रही हूं. तभी आशीष अपनी ताजा क्लिक्स दिखाने लगते हैं. मैं उनसे पूछती हूं
"किसी पंडित जी और मौलाना साहब की सीढ़ियों पर गप्पें मारते हुई तस्वीर नहीं मिली?"आशीष अफ़सोस करते हुए बोलते हैं "अगली बार ज़रूर."

गंगाजल से लेकर, वोडका तक, यह सफरनामा है मेरी प्यास का सादा पवित्र जन्म के सादा अपवित्र कर्म का, सादा इलाज और किसी महबूब के चेहरे को एक छलकते हुए गिलास में देखने का यत्न और अपने बदन से एक बिल्कुल बेगाना ज़ख्म को भूलने की ज़रूरत यह कितने तिकोन पत्थर हैं जो किसी पानी की घूंट-से मैंने गले से उतारे हैं कितने भविष्य हैं जो वर्तमान से बचाए हैं और शायद वर्तमान भी मैंने वर्तमान से बचाया है

इलहाम के धुएं से लेकर, सिगरेट की राख तक हर मज़हब बौराए हर फलसफा लंगड़ाए हर नज़्म तुतलाए और कहना-सा चाहे कि हर सल्तनत के सिक्के की होती है, बारूदी की होती है और हर जन्मपत्र आदम के जन्म की एक झूठी गवाही देती है