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एक फल-विक्रेता को थप्पड़ लगा और कई मुल्क़ों की सरकारें गिर गईं

आज की 'तारीख़' में अरब स्प्रिंग की कहानी.

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अरब स्प्रिंग से जिस बदलाव की उम्मीद थी, वो कभी हासिल नहीं हो पाई.

तारीख़- 18 दिसंबर

दिसंबर का महीना. कंपकंपाती सर्द रातें. इंसान वाइब्रेशन मोड में चला जाता है. लेकिन उस साल इंसान सर्द रातों में तनकर खड़ा था. और, सरकारें थर-थर कांप रहीं थी. आज की तारीख़ में उस क्रांति की कहानी, जिसने कई मुल्क़ों की सूरत और सीरत एक साथ बदलकर रख दी. ये कहीं और नहीं बल्कि मिडिल-ईस्ट की बात है. जहां एक फल विक्रेता के शरीर पर लगी आग ने कई तानाशाही सरकारों के महल खाक़ कर दिए.
उत्तरी अफ्रीका में एक देश है- ट्यूनीशिया. यहां एक छोटा कस्बा है सिदी बुज़ीद. यहां एक फल बेचनेवाला रहता था. उसका नाम था मुहम्मद बुआजिज़ी. सात लोगों के परिवार का इकलौता कमाऊ शख़्स. पिता की मौत की वजह से वो आगे की पढ़ाई नहीं कर पाया. लेकिन अपनी बहनों को खूब पढ़ाने के ख़्वाब देखता था.
लेकिन वहां खाने के ही लाले पड़ रहे थे. बुआजिज़ी के फल बिकते, तो इनका पेट भरता. कभी-कभी तो सरकारी अफसर उसा ठेला ज़ब्त कर लेते. उस दिन भूखों सोना पड़ता. और, फिर से नए सिरे से शुरुआत करनी पड़ती थी. इसी शहर में रहती थी फैदा हामदी. अधेड़ उम्र की एक नगर निगम इंस्पेक्टर.
17 दिसंबर, 2010 की सुबह ये दोनों किरदार- फैदा और बुआजिज़ी आमने-सामने आए. उस दिन बुआजिज़ी की रेहड़ी पर सेब सजे थे. लेकिन उसके पास नगर निगम का लाइसेंस नहीं था. इंस्पेक्शन के लिए निकली फैदा की दिनचर्या थी ये. उसने बुआजिज़ी की रेहड़ी को जब्त कर लिया. बुआजिज़ी ने अपने सेब वापस छीनने की कोशिश की.
बुआज़िजी के लिए न्याय की मांग को लेकर पहला प्रोटेस्ट शुरू हुआ 18 दिसंबर, 2010 को.
बुआज़िजी के लिए न्याय की मांग को लेकर पहला प्रोटेस्ट शुरू हुआ 18 दिसंबर, 2010 को.


फैदा ने वहीं पर सबके सामने उसे थप्पड़ मार दिया. बुआज़िजी को रोना आ गया. वो बहुत देर तक वहीं खड़ा रह गया. एक आम ट्यूनीशियन के लिए ये रोज़मर्रा की बात थी. लेकिन बुआज़िजी उस दिन आर-पार के मूड में था. वो अपनी रेहड़ी छुड़ाने के लिए सरकारी दफ्तर गया. हाथ-पांव पकड़े. जब शाम तक उसे रेहड़ी वापस नहीं मिली, उसने गवर्नर ऑफ़िस के सामने अपने शरीर में आग लगा ली.
किसी ने इस घटना का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल दिया. वीडियो वायरल हो गया. 18 दिसंबर, 2010 की सुबह पहली बार लोग सड़कों पर उतरे. सरकार ने लोगों का दर्द बांटने की बजाय बलप्रयोग कर दिया. लोगों का गुस्सा भरा पड़ा था. उन्हें घुटन महसूस हो रही थी. इस बर्ताव से भरा घड़ा फूट गया. और, गुस्सा सड़क पर बहने लगा. ख़ून के साथ-साथ.
4 जनवरी, 2011 को बुआज़िज़ी ने अस्पताल में दम तोड़ दिया. इसके बाद तो प्रोटेस्ट हिंसक हो गया. ट्यूनीशिया में बेन अली 23 सालों से सरकार चला रहे थे. तख्तापलट करके सत्ता में आए थे. उसके बाद वहीं चिपक गए. समय के साथ-साथ उनकी सत्ता तानाशाही में बदल गई थी. उनके शासन में विरोध की गुंजाइश नहीं थी. लेकिन इस बार हालात बदले-बदले नज़र आ रहे थे. 14 जनवरी, 2011 को बेन अली अपने परिवार के साथ देश छोड़कर भाग गए.
 अरब देशों में तानाशाह सरकारों की लंबी परंपरा रही है.
अरब देशों में तानाशाह सरकारों की लंबी परंपरा रही है.


ट्यूनीशिया ने बिगुल फूंक दिया था. इसकी देखा-देखी पड़ोसी देशों में भी प्रोटेस्ट शुरू हो गए. अरब देशों में तानाशाही सरकारें हुकूमत चला रहीं थी. लीबिया में 42 सालों से मुअम्मार गद्दाफ़ी का शासन चल रहा था. ऐसे ही सीरिया और मिस्र में भी शासन में जनता का कोई रोल नहीं था. उन्हें आदेश का पालन करने वाले गुलामों की तरह रहना पड़ रहा था.
मिस्र की राजधानी काहिरा में एक सेंटर है- तहरीर स्क्वैयर. 25 जनवरी, 2011 को यहीं पर हज़ारों प्रदर्शनकारी जमा हुए. फिर ये संख्या लाखों में बदल गई. मिस्र में होस्नी मोबारक की सरकार थी. भ्रष्ट और तानाशाही सत्ता के ख़िलाफ़ लोग खड़े हो गए. ये लोग बदलाव चाहते थे. बेहतरी चाहते थे. लोकतंत्र की मांग कर रहे थे. कानून का राज और भ्रष्टाचार के खात्मे की अपील कर रहे थे. होस्नी मुबारक ने विद्रोह को कुचलने की कोशिश की. मगर नाकाम रहे.
11 फरवरी, 2011 को होस्नी को इस्तीफ़ा देना पड़ा. लोग इतने पर नहीं माने. उनकी मांग थी कि होस्नी और उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के मामलों की जांच की जाए. साथ ही, प्रोटेस्ट के दौरान मारे गए 800 से ज़्यादा लोगों की मौत का मुकदमा चलाया जाए उनपर. लोगों के दबाव ने असर दिखाया. होस्नी गिरफ़्तार कर लिए गए. उनपर केस चला. उनके दोनों बेटों को भी जेल हुई.
गद्दाफ़ी सैन्य विद्रोह के जरिए सत्ता में आए थे. 1969 के साल में.
गद्दाफ़ी सैन्य विद्रोह के जरिए सत्ता में आए थे. 1969 के साल में.


लीबिया के सर्वेसर्वा रहे गद्दाफ़ी के अंत की भी शुरुआत अरब क्रांति से हुई. लीबिया में विरोध प्रदर्शन शुरू होने पर गद्दाफ़ी ने कहा कि वो एक-एक गली, एक-एक घर में घुसकर लीबिया की सफ़ाई करेगा. सफ़ाई से उसका मतलब था विद्रोह को कुचलना, बाग़ियों का सफ़ाया करना. गद्दाफ़ी की ज़्यादतियों को देख रहे पश्चिमी देश दखलंदाजी करना चाहते थे. मगर इस चाहने में थोड़ा फ़र्क था. हर बार जहां अमेरिका अपने साथी देशों को किसी देश में घुसने के लिए राज़ी करता, वहीं इस बार ब्रिटेन और फ्रांस ने अमेरिका को लीबिया पर हमले के लिए मनाया. मार्च में NATO ने लीबिया पर हमला कर दिया. 20 अक्टूबर, 2011 को गद्दाफ़ी को सरेआम पीटकर मार दिया गया.
अरब स्प्रिंग की ज़द मे सीरिया जैसे मुल्क भी आए, जहां लंबे गृह युद्ध के बाद भी सत्ता नहीं पलटी. इराक़ में आज तक गृहयुद्ध जैसे हालात हैं. लेबनन, कुवैत, मोरक्को जैसे देशों में नई सरकारें आईं. ओमान, सूडान, जॉर्डन, अल्जीरिया, सऊदी अरब, जिबूती, मॉरीतानिया जैसे देशों में प्रोटेस्ट दबा दिए गए.
एक ज़िंदा देह पर लगी आग ने बहुतों के हौसले को अटूट बना दिया. लोगों ने अपने अधिकारों के लिए जान की बाज़ियां लगा दीं. मगर क्या वैसा ही हुआ, जैसा वहां के लोग चाहते थे? जवाब होगा नहीं. मिडिल-ईस्ट के कई देश सिविल वॉर की वजह से कतरा-कतरा ढह रहे हैं. वो फिर से उम्मीद की एक नई रौशनी की तलाश में हैं.

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