एक बार एक आदमी और एक तोता प्लेन में सफर कर रहे थे. तोते ने प्लेन में उछल-कूद शुरू कर दी. उसे पकड़कर प्लेन से फेंक दिया गया. तोता ठहाका मारता रहा. मालिक को लगा कि बड़ा एडवेंचर है. वो भी उछल-कूद करने लगे. उन्हें भी फेंक दिया गया. फेंके जाते ही हंसी निकल गई.
नीचे गिरने के रास्ते में तोता मिला, तो मालिक बोले- ये क्या करा दिया?
तोता बोला – तुमने क्यों किया? मेरे पास तो ‘पंख’ हैं. मैं कुछ भी करूं.
मॉरल ऑफ द स्टोरी – इंसान खलीफा तभी बनता है, जब उसके पास कोई बड़ा एसेट हो, संसाधन हो.
इस समय चीन खलीफा बनने की कोशिश कर रहा है. कोरोना वायरस की तोहमत तो उस पर है ही. ऊपर से इधर भारत से भिड़े पड़ा है, उधर अमेरिका से. खलीफा बन रहा है, तो कोई ‘पंख’ भी होंगे उसके पास. चीन के ये ‘पंख’ हैं- उसका सामान बनाने और बेचने का मॉडल. चीनी मॉडल.
हम इस मॉडल की अभी बात क्यों कर रहे हैं? क्योंकि केंद्र सरकार की तरफ से बनने वाले दिल्ली-मेरठ सेमी हाई स्पीड रेल कोरिडोर का ठेका एक चीनी कंपनी को मिलने जा रहा है. दिल्ली-मेरठ रीजनल रैपिड ट्रांजिट सिस्टम (RRTS) प्रोजेक्ट के अंडरग्राउंड स्ट्रेच बनाने के लिए सबसे रकम की बोली एक चीनी कंपनी शंघाई टनल इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड (STEC) ने लगाई. 1100 करोड़ रुपए की. फिर भी टेंडर हासिल कर लिया. कम पैसा लगाकर भी हर देश में बिज़नेस के विस्तार का चीनी मॉडल क्या है?
हम चीन के इसी मॉडल पर बात करेंगे और जानेंगे कि क्यों चीनी माल इतना सस्ता होता है? कम लागत में वो कैसे काम चलाते हैं? वो इतने बड़े लेवल पर प्रोडक्शन कैसे करते हैं, क्यों करते हैं?
# चीन में मास प्रोडक्शन की वजह क्या है?
मास प्रोडक्शन मतलब कोई भी प्रोडक्ट बनाए जाना, बनाए जाना. ऐसा क्यों करता है चीन? दो वजहें हैं –पहली वजह : इकॉनमी ऑफ स्केल
ये इकॉनमिक्स का एक मॉडल है. इकॉनमी ऑफ स्केल कहती है –“कम मात्रा में बड़ी चीजों का प्रोडक्शन करने से ज़्यादा फायदेमंद है ज़्यादा मात्रा में तमाम छोटी-छोटी चीजों का प्रोडक्शन करना.”ये बिल्कुल ऐसी ही है कि आपके घर में पहले तीन लोगों का खाना बन रहा था. फिर एक नया दोस्त आ गया रहने. चार लोगों का बनने लगा. लेकिन किचन का खर्चा बहुत ज़्यादा बढ़ा नहीं.
मतलब प्रोडक्शन बढ़ गया, लेकिन लागत उस रेशियो में उतनी नहीं बढ़ी. क्यों? इकॉनमी ऑफ स्केल की वजह से. तमाम छोटी-छोटी चीजों का प्रोडक्शन बढ़ाने से मुनाफा बढ़ता है, लेकिन लागत उतनी नहीं बढ़ती.
चीन इसी इकॉनमी ऑफ स्केल पर चलता है.
दूसरी वजह : अलीबाबा जैसे निर्माता
चीन के पास तमाम ऐसे निर्माता हैं, जो छोटी-छोटी घरेलू चीजों के, टेक्नॉलजी के, कलपुर्जों के दुनियाभर में थोक विक्रेता हैं. जैसे कि अलीबाबा. अलीबाबा तमाम ऐसी छोटी-छोटी चीजों का भी प्रोडक्शन करता है, जो वो भले ही खुली मार्केट में न बेचे. लेकिन तमाम ई-कॉमर्स साइट्स को बेच सके. इन साइट्स के ज़रिये दुनियाभर में वो सामान बिकता है. लोग खरीदते हैं, बाज़ारों के थोक दुकानदार खरीदते हैं. यानी प्रोडक्ट चेन बना दी.इस तरह की प्रोडक्ट चेन बनाने से चीन की वो समस्या भी हल हो जाती है कि मास प्रोडक्शन से जो इतना माल बना लिया है, वो बेचें कहां?
# ये माल इतना सस्ता क्यों मिलता है?
चीनी माल इतना सस्ता होने की भी दो वजहें हैं.पहली वजह : सस्ता लेबर कॉस्ट
मैं इससे पहले भोपाल में नौकरी करता था. वहां मुझे आराम से डोमेस्टिक हेल्पर मिल गई थीं. लेकिन फिर दिल्ली आ गया. यहां अच्छा पेमेंट करने के लिए तैयार होने के बाद भी नहीं मिल रहीं. क्यों? क्योंकि यहां भोपाल की तुलना में लेबर कॉस्ट ज़्यादा है. अमेरिका जाएंगे, तो और भी दिक्कत होगी.लेबर कॉस्ट मतलब किसी इंसान से काम लेने में हम डायरेक्ट या इनडायरेक्ट तरीके से उन्हें जो पे करते हैं, वो लेबर कॉस्ट कहलाता है. डायरेक्ट पे जैसे सैलरी. इनडायरेक्ट जैसे – कोई कंपनी अपनी कर्मचारियों के लिए अच्छी-अच्छी कुर्सियां लगवाए, सबकी डेस्क पर सैनेटाइज़र रखवाए. ये इनडायरेक्ट.यही सारी कॉस्ट चीन में कम है. इंसान कम पैसों में भी काम करने को तैयार हो जाता है. लिहाज़ा कम लागत में ईरानी-तूफानी तरीके से प्रोडक्शन. और इसी वजह से फिर कंपनियां यही माल आगे भी तुलनात्मक रूप से कम दाम में बेच पाती हैं.
दूसरी वजह : वही, हाई प्रोडक्शन
चीनी माल के सस्ते होने की दूसरी वजह वही इकॉनमी ऑफ स्केल से जुड़ी है.मैंने सोचा कि मैं तीन लोग के खर्चे में चार को खाना खिलाऊंगा. पनीर, पराठे बंद. महीनेभर आलू-टमाटर बनेगा. दाल पतली बनेगी. बस, उतनी ही लागत में प्रोडक्शन बढ़ गया.
अब अगर ये चौथा आदमी दूसरी जगह एक थाली के 70 रुपए दे रहा होगा, तो मैं 60 ही लूंगा. उसको मेरा खाना सस्ता भी लगेगा और मेरी कॉस्ट की कॉस्ट नहीं बढ़ी.
# समझ गए. अब कुछ बचा तो नहीं?
अरे रुकिए. अपनी रिसर्च करने के बाद सारा मामला समझा 'इंडिया टुडे' हिंदी के संपादक अंशुमान तिवारी से. उन्होंने बताया चीन का एक्स फैक्टर. ‘ओपेक सब्सिडी’.अंशुमान तिवारी ने बताया -
“चीन दूसरे देशों को ये सुविधा देता है कि आप हमारे यहां से, हमारी कंपनियों से सामान खरीदिए. सिर्फ शुरुआती कुछ थोड़ा-बहुत पेमेंट कर दीजिए और सामान ले जाइए. कंपनी को बाकी का पेमेंट चीन के बैंक कर देते हैं.इसी वजह से तमाम देश, तमाम कंपनियां सामान खरीदने के लिए चीन की तरफ देखती हैं.
बाद में जब सामान खरीदने वाली कंपनी को मुनाफा आना शुरू हो जाए, तो वो चीन के बैंक का पैसा उसको लौटा दे. इस पूरे मॉडल को कहते हैं ओपेक सब्सिडी.”
# तो बाकी देश चीनी मॉडल क्यों नहीं अपनाते?
अब सवाल आता है कि तो बाकी देश भी चीनी मॉडल क्यों नहीं अपनाते? भारत क्यों नहीं अपनाता?चीन के अलावा यूरोपियन यूनियन के देश, यूनाइटेड स्टेट और भारत के पास भी ये क्षमता है कि वो प्रोडक्शन बेतहाशा अप कर दें. लेकिन एक बड़ा फर्क है – R&D का.
रिसर्च एंड डिवलपमेंट. कोई नई तकनीक ईजाद करना, उसे डिवलप करना. इसी वजह से भारत, यूएस जैसे देशों से ही तमाम स्पेस से जुड़ी टेक्नॉलजी, तमाम दवाएं, तमाम रक्षा सामग्रियों को लेकर रिसर्च और नए-नए आविष्कार आते रहते हैं. लेकिन R&D एक बड़ा खर्चा मांगती है.
वहीं, चीन इस मॉडल में भरोसा नहीं करता. वो दूसरे देशों से तकनीक लेकर अपने यहां प्रोडक्शन करता है.

# ओपेक सब्सिडी हम क्यों नहीं दे सकते?
जब चीन ओपेक सब्सिडी देकर ज्यादा बिजनेस हासिल कर रहा है, तो बाकी देश क्यों नहीं. हम क्यों नहीं?अंशुमान तिवारी ने बताया -
“देश के बैंकों में जो पैसा है, वो हमारा-आपका है. चीन लोकतंत्र तो है नहीं. वो ग्राहकों को कम पैसे पर माल दे देता है और बैंकों से कह देता है कि कंपनी को पेमेंट कर दो. बाद में कई साल बाद बैंक का पैसा वापस आता है. लेकिन अगर भारत की बात करें, तो यहां बैंकों का पैसा यूं ही किसी को नहीं दिया जा सकता.”यूरोपीय देशों ने तो ओपेक सब्सिडी पर बैन तक लगा रखा है.
तो ये चीन की एक पूरी Eat Sleep Repeat टाइप की साइकल है. मास प्रोडक्शन, लो कॉस्ट, सब्सिडी और मार्केट कैप्चर. चीन ने व्यापार से जुड़े तमाम ऐसे नियम बना रखे हैं, जो किसी लोकतांत्रिक देश के लिए लागू कर पाना आसान भी नहीं होगा, अच्छा भी नहीं होगा.
इसीलिए भारत जैसे देश जब आत्मनिर्भर बनने की बात करते हैं, तो उनके पास सबसे मुफीद विकल्प यही बचता है कि वो अपने उत्पादों की क्वालिटी बढ़ाएं, सस्ते दाम में लोगों तक पहुंच बनाएं. ताकि लोग भी ये भरोसा कर सकें कि यही सही है.
बाकी चीनी माल की तो अपनी रंगबाजी है ही – चल गया तो चांद तक, वरना शाम तक.
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