डिज़्नी प्लस हॉटस्टार पर एक सीरीज़ आई है ‘मासूम’. कैसी है, क्या स्टोरी है, देखने लायक है या नहीं इन सभी पर बात करेंगे.
वेब सीरीज़ रिव्यू - मासूम
डिज़्नी पर आई सीरीज़ मासूम बोमन ईरानी का डिजिटल डेब्यू है. ये सीरीज़ आइरिश ड्रामा सीरीज़ ‘ब्लड’ पर बेस्ड है.

तो ये कहानी है एक कॉम्प्लैक्स फैमिली की. पंजाब के रहने वाले डॉक्टर बलराज की कहानी. जिसकी बीवी की मौत हो चुकी है. और उसकी सबसे छोटी बेटी को लगता है कि पिता ने ही मां की हत्या की है. एपिसोड दर एपिसोड कई परतें खुलती हैं. सीरीज़ कई पहलुओं को छूने की कोशिश करती है. साइकोलॉजी, क्राइम, थ्रिलर, फैमिली ड्रामा, फादर-डॉटर रिलेशन और बहुत हद तक पॉलिटिक्स. मगर सब कुछ दिखाने के चक्कर में ये कुछ भी ठीक से पर्दे पर नहीं उतार पाती. मेकर्स अपनी ही बनाई दुनिया में फंस जाते हैं.

पर्दे पर ना तो वो उत्सुक्तता जगा पाते हैं.ल, ना ही स्क्रीन से बांध पाते हैं. शुरुआत के 10 से 15 सेकेंड स्क्रीन ब्लैक होती है. जिसके पीछे सिर्फ वॉएस ओवर चलता है. ये प्रयास सफल हो भी सकता था. लेकिन तब जब उस काली स्क्रीन के पीछे दमदार संवाद सुनने को मिलता. मगर ऐसा नहीं होता. ये सीरीज़ एक कॉम्प्लैक्स परिवार की कहानी दिखाना चाहती है. जिसमें कुछ भी ब्लैक एंड व्हाइट नहीं है.
'मासूम', आइरिश ड्रामा सीरीज़ ‘ब्लड’ पर बेस्ड है. जब किसी सीरीज़ या शो को अडैप्ट किया जाता है तो कई समस्याएं आती हैं. मेजरली ये कि मेकर्स उसे अपने कॉन्टैक्स्ट में ढाल पाते हैं या नहीं. यहां ये समस्या पूरी तरह बनी हुई है. ये शो जबरन आप पर साइकोलॉजी और सस्पेंस थोपने की कोशिश करता है. चीज़ें ऑब्वीयस सी हो जाती हैं.
कई सीन्स ऐसे हैं जिनका होना ना होना एक बराबर था. जैसे बेटे संजीव का मां उपासना के साथ गाने वाला सीन. इस सीन में मां-बेटे के रिश्ते को दिखाने की कोशिश की गई है. जिसकी कोई खास ज़रूरत नहीं थी. सीरीज़ अपने प्लॉट से ही भटक जाती है. दूसरे एपिसोड के बाद सीरीज़ इतनी झिलाऊ हो जाती है कि बोमन ईरानी का ही एक मीम याद आता है-
ये तो कुछ भी नहीं है

कुछ सीन्स देखकर तो आपको ये लगेगा
इन सीन्स का मतलब समझाओ पहले

इसका ट्रेलर आया तो कौतूहल बढ़ गया था. लगा बोमन ईरानी का डिजिटल डेब्यू है तो मज़ेदार तो होगा ही. पहले एपिसोड में ये उत्साह बना भी रहा. मगर जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए मन उचटता गया. वही घिसी-पिटी स्टोरी लाइन. डायरेक्शन या एक्टिंग में कोई एफर्ट नहीं दिखता. कुछ भी फ्रेश नहीं होता. स्क्रीनप्ले इतना ढीला कि पहले से ही पता चल जाए आगे क्या होने वाला है. लगता है राइटर सत्यम त्रिपाठी ने जो खांका अपने दिमाग में बनाया था उसे वो पन्ने पर सही से उतार नहीं पाए. मिहिर देसाई का डायरेक्शन भी इस शो को बचा नहीं पाया है.
ये तो क्लियर है कि इस शो के हीरो बोमन ईरानी ही हैं. आप उन्हें स्क्रीन पर और देखना चाहते हैं. बट, ऐसा नहीं होता. बहुत कम फ्रेम में भी वो शो के हीरो साबित होते हैं. उनकी छोटी बेटी बनीं समारा तिजोरी के एक्सप्रेशन पूरे शो में एक जैसे ही हैं. स्पेशली इमोशनल सीन्स में तो आप भी यही कहेंगे -
मजाक चल रहा है यहां

सीरीज़ के कैरेक्टर ठीक से डेवलप होना चाहते हैं मगर हो नहीं पाते. बैकग्राउंड स्कोर की बात करें तो वो भी कुछ खास नहीं है. पंजाब का सेटअप दिखाने के लिए कुछ पंजाबी गानों को रखा तो ज़रूर गया है मगर वो इम्पैक्ट नहीं छोड़ पाते. सीरीज़ में कोई भी सीन या कोई ऐसा डायलॉग नहीं है जो याद रह जाए. कुल मिलाकर बड़ी मासूमियत से ये कह रहे हैं कि 'मासूम' अपने गले से नहीं उतरी. सिर्फ तीन-साढ़े तीन घंटे के इन छह एपिसोड्स को देखते वक्त, समय ही नहीं कटता. तो बस आप इसी से अंदाज़ा लगा लीजिए. बाकी आपका समय आपका है.