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फ़िल्म रिव्यू: तुगलक़ दरबार

कैसी है कमाल के एक्टर विजय सेतुपति की नई फ़िल्म?

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'तुगलक़ दरबार'.
नेटफ्लिक्स पर पिछले वीकएंड 'तुगलक़ दरबार' नाम की फ़िल्म रिलीज़ हुई है. ये फ़िल्म एक पॉलिटिकल कॉमेडी फ़िल्म है. हमने ये फ़िल्म देख ली है. कैसी है फ़िल्म, क्या हैं फ़िल्म की अच्छी बुरी बातें, इस पर आगे बात करेंगे. #'तुगलक़ दरबार' की गाथा रयाप्पन नाम का बड़ा पॉलिटिकल लीडर मंच से भाषण दे रहा है. इसी वक़्त जनता की भीड़ में महिला एक बच्चे को जनती है. बच्चे का नाम रखा जाता है सिंगम. कुछ वक़्त बाद सिंगम की मां की बेटी को जन्म देते वक़्त मृत्यु हो जाती है. चुनावी दरबार में जन्मे सिंगम को बचपन से ही राजनेता बनने का शौक है. वो किशोर अवस्था से ही इस तिगड़म में लग जाता है कि कैसे भी करके रयाप्पन की विश्वास जीत ले. ताकि उसकी पार्टी में बड़ा नेता बन जाए. उसे ना अपनी इकलौती बहन की फ़िक्र है, ना किसी और की. उसे बस बड़ा नेता बनना है. खैर, एक समय ऐसा भी आता है जब वो चालाकी से रयाप्पन का बेहद करीबी बन भी जाता है. सिंगम रयाप्पन के हर अच्छे-बुरे काम को करने लगता है. लेकिन एक शाम ऐसा हादसा होता है, जो सिंगम की जिंदगी बदल देता है. अब वो चाहकर भी उलटे काम करने में अक्षम हो जाता है. बेईमानी करने की कितनी भी कोशिश करे लेकिन कर नहीं पाता. अब बिना बेईमानी किए राजनेता बनना तो बड़ा मुश्किल काम है. सिंगम अपना सपना पूरा कर पाता है या नहीं, ये जानने के लिए नेटफ्लिक्स पर देखें 'तुगलक़ दरबार'.
वैसे, इस फ़िल्म को देख कर थोड़ी गोविंदा की 'क्यूंकि मैं झूठ नहीं बोलता' की याद आती है. जो कि असल में जिम कैरी की 'लायर लायर' से प्रेरित थी.
बुरे काम करने की कोशिश में अच्छे काम कर देता है सिंगम.
बुरे काम करने की कोशिश में अच्छे काम कर देता है सिंगम.

# कैसी है 'तुगलक़ दरबार इस फ़िल्म को सोशल- पॉलिटिकल कॉमेडी जॉनर में रखा गया है. हालांकि फ़िल्म असल किसी पॉलिटिकल सिनेरियो पर कोई विशेष टिपण्णी नहीं करती. राजनीति फ़िल्म में बस एक बैकड्रॉप है. आसान भाषा में समझाऊं तो ये सिंगम करैक्टर नेता बनने की बजाय पुलिसवाला, डॉक्टर बनने की कोशिश कर रहा होता, तो भी फ़िल्म को कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ता. फ़िल्म का जो कॉमेडी पोर्शन है वो वाकई में काफ़ी फनी है. फ़िल्म का पहला हाफ और अंत के कुछ सीन्स आपको हंसा-हंसा कर पेट में बल ला देंगे. लेकिन बीच में फ़िल्म का एक मोटा हिस्सा काफ़ी उबाऊ रहा. ऐसा लगा जैसे ज़बरदस्ती फ़िल्म में सिंगम का लव एंगल घुसाया जा रहा है. जिसका इस कहानी में कोई ख़ास तुक भी नहीं था. क्यूंकि आगे जाकर उस लव एंगल का कोई ख़ास इस्तेमाल भी नहीं हुआ.
ये सीन्स ऐसे लगे जैसे अच्छी भली चलती फ़िल्म में किसी और फ़िल्म के सीन बीच में ठूंस दिए गए हों. निर्देशक यहां 'हीरो है तो हीरोइन भी होनी चाहिए', 'गाने होने चाहिए', डांस होना ही चाहिए' जैसी सिनेमा जगत की सालों से चलती आ रहीं कुप्रथाओं को ढोते दिखे. साथ ही फ़िल्म में कई किरदार बिना मतलब ही इंट्रोड्यूस करवा दिए गए. जिनका फ़िल्म में कोई ख़ास काम भी नहीं था. ना ही उन किरदारों को बेहतर ढंग से रचा गया था. ये सब खामियां सपाट सड़क पर स्पीडब्रेकर्स जैसी थीं. जिस कारण बार-बार मज़े में खलल पड़ता रहता था.
फ़िल्म के कुछ हिस्से कमज़ोर पड़ते हैं.
फ़िल्म के कुछ हिस्से कमज़ोर पड़ते हैं.

#एक्टिंग, डायरेक्शन और राइटिंग में कितना दम है फ़िल्म में विजय सेतुपति लीड सिंगम का रोल प्ले कर रहे हैं. इनका किरदार बहुत बेहतर ढंग से लिखा गया है. सिंगम करैक्टर बहुत ही शेडी है. मतलबी और शातिर. विजय सेतुपति ने एज़ सिंगम शानदार परफॉरमेंस दी है. कॉमेडी सीन्स में उन्होंने जो रौला पाया है कि हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते हैं. फ़िल्म में जिस तरीके से वो अपनी लेफ्ट आंख फड़फ़ड़ाते रहते हैं, वो भी बहुत फनी लगता है. राजनेता रयाप्पन का किरदार करने वाले आर पार्थिबन ने भी शानदार अभिनय किया है. विजय सेतुपति के साथ उनकी केमिस्ट्री एकदम फिट बैठती है. अपने कटप्पा यानी एक्टर सत्यराज भी फ़िल्म में हैं. ये भी फ़िल्म में आपको ढंग से हंसाएंगे. स्पेशल मेंशन फ़िल्म में वसु का रोल करने वाले एक्टर करुणाकरण का. बहुत ही बढ़िया अभिनय रहा इनका. टू भी ऑनेस्ट इन्हीं लोगों ने फ़िल्म को संभाल लिया.
फ़िल्म को लिखा और डायरेक्ट किया है दिल्ली प्रसाद दीनदयालन ने. यहां दिल्ली साब तारीफ़ और क्रिटिसिज्म दोनों के हकदार हैं. तारीफ़ बनती है उनकी फ़िल्म के कॉमिक पोर्शन और सीन्स के लिए. बहुत ही बढ़िया और नए लगे. लेकिन आलोचना करना ज़रूरी है उनकी 'फिट इन' करने की गैरज़रूरी कोशिश के लिए. ज़बरदस्ती के ऐसे बहुत से सीन्स और किरदार उन्होंने फ़िल्म में इस्तेमाल किए. जो अगर नहीं करते तो ये फ़िल्म एक मक्खन के माफ़िक स्मूथ राइड होती.
विजय सेतुपति ने कमाल का अभिनय किया.
विजय सेतुपति ने कमाल का अभिनय किया.

#देखें या नहीं तुगलक़ दरबार' में बहुत सी खामियां है. फ़िल्म के आधे अंतराल के बाद कई सारे डिम सीन्स आते हैं. लेकिन अच्छी बात ये है हर डल सीन के बाद ऐसा ज़बरदस्त कॉमेडी सीन आ जाता है कि मज़े आ जाते हैं. टेक्निकल पॉइंट ऑफ़ व्यू से कमज़ोर पड़ने वाली 'तुगलक़ दरबार' एंटरटेन करने में सफ़ल होती है. और यही सबसे ज़रूरी पार्ट है. इसलिए हमारी राय है भले ही एक बार लेकिन 'तुगलक़ दरबार' को ज़रूर देखें.

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