टीवी पर एक ऐड चल रहा है. और वो ऐड क्या है? सबेरे का समय है. एक आदमी बेड पर सोते हुए मुस्कुरा रहा है. वो अपनी होने वाली प्रेमिका का सपना देख रहा है. माने सपना सच भी हो सकता है. उसकी प्रेमिका हिंदी का कोई बहुत नया और अनसुना शब्द उछालती है. आदमी की नींद टूट जाती है. वो उस नए शब्द का अर्थ जानने के लिए बेताब हो उठता है. क्योंकि सपने का मतलब जानना उसके लिए बहुत ज़रूरी है. और सपना समझने के लिए उस शब्द को समझना भी. फिर प्रकट होते हैं थिसारस मैन. उनके हाथ में है, एक शब्दकोश. हिंदी के एक लाख तीस हज़ार शब्दों और अभिव्यक्तियों से लैस थिसारस. उचटी हुई नींद के मालिक को उसमें हिंदी के अबूझ शब्द का अर्थ मिल जाता है. ऐड की हो जाती है हैप्पी एन्डिंग!
कहानी उस थिसारस मैन की, जिसने एक शब्दकोश के चक्कर में जीवन के 20 साल लगा दिए
शब्द सारथी ने थिसारस बनाने के लिए अपनी नौकरी तक छोड़ दी.
जिस थिसारस मैन की हमने अभी बात की, वो हैं अरविन्द कुमार. उन्होंने 20 साल का समय लेकर आधुनिक भारत का पहला थिसारस तैयार किया उसका नाम रखा, 'समांतर शब्दकोश'. उनकी ज़िंदगी पर एक डॉक्यूमेंट्री आई है, Thesaurus Man: Arvind Kumar. ये अरविन्द के जीवन को फॉलो करती है. इसे आप यहां देख सकते हैं.
कैसे एक स्वतंत्रता सेनानी का बेटा. 1945 में मैट्रिक पास करता है. स्कॉलरशिप मिलती है. आगे पढ़ाई करने का मौका था. मगर घर में पैसे की तंगी थी. इसलिए 15 साल की उम्र से काम करना शुरू कर दिया. छापेखाने में 25 रुपए महीने में नौकरी शुरू की. वहां पहला काम था, छापने वाले लोहे के एक-एक अक्षरों को साफ करना. यहां से शुरू हुआ सफ़र पहुंचा 'सरिता' और 'दी कारवान' के उप-सम्पादन तक. दिल्ली से गाड़ी मुंबई की ओर मुड़ी. वहां बतौर एडिटर शुरु की, एक प्रतिष्ठित फिल्मी मैगजीन 'माधुरी'. जिसे डायरेक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी सिनेमा का साहित्य कहते हैं. इसमें उन्होंने दिनकर और दुष्यंत कुमार जैसे बड़े साहित्यकारों से फिल्मों के रिव्यू लिखवाए. अरविन्द कुमार ने ही भारतीय आर्ट सिनेमा को 'समांतर सिनेमा' का नाम दिया. इस दौरान उनके मन में एक सपना पल रहा था. हिंदी थिसारस गढ़ने का. इसके लिए उन्हें छोड़नी थी नौकरी. अपनी पत्नी कुसुम के साथ उन्होंने बनाया एक प्लान. 1973 में निर्णय लिया कि अगले चार साल में सेविंग करके नौकरी छोड़ देंगे. 1978 में नौकरी छोड़ी. उनके बारे में डॉक्यूमेंट्री में कहा गया है:
उन्होंने प्रगति और संपन्नता का मार्ग छोड़कर साधना का मार्ग चुना.
वो अपनी जमी-जमाई नौकरी छोड़ दिल्ली आए. जो काम सोचा था, दो साल में हो जाएगा. उसे पूरा करने में 20 साल लग गए. इसमें उनकी मदद की बेटे सुमित कुमार की तकनीकी और कम्यूटर की समझ ने. अरविन्द कुमार का हौसला देखिए कि उन्होंने 61 बरस की उम्र में कंप्यूटर सीखा. और उनकी पत्नी कुसुम ने अरविन्द के निधन के बाद 88 बरस की उम्र में. कुसुम भी 'समांतर शब्दकोश' बनाने में बराबर की साझेदार हैं.
ऐसे ही कई और शब्दकोश अरविन्द कुमार ने बनाए. हिंदी से अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी से हिंदी भी. उनका सपना था एक ‘वर्ल्ड बैंक ऑफ वर्ड्स’ बनाना. वो चाहते थे कि किसी जर्मन को अगर तमिल सीखनी हो, तो अंग्रेज़ी के ब्रिज का सहारा न लेना पड़े. सीधे जर्मन-तमिल शब्दकोश उपलब्ध हो. ऐसे ही विश्व की तमाम भाषाओं का. मगर अफसोस कि उनका ये सपना अधूरा रह गया. इससे पहले ही कोरोना की दूसरी लहर में वो दुनिया से चले गए. अब इस काम को उनकी बेटी मीता लाल आगे बढ़ा रही हैं. उनके ही दिमाग में अरविन्द कुमार पर डॉक्यूमेंट्री बनाने का आइडिया आया.
मीता ने 2015 में इस काम को अंजाम देने की सोची. वो चाहती थी कि जैसे अरविन्द का काम डॉक्यूमेंट किया गया. ठीक ऐसे ही उनकी ज़िंदगी को भी डॉक्यूमेंट किया जाए. इस डॉक्यूमेंट्री की खास बात है, ये किसी फिक्शन स्क्रीनप्ले के थ्री ऐक्ट स्ट्रक्चर को फॉलो करता है. माने बीच में बीच कॉन्फ्लिक्ट्स आते रहते हैं. फिर उनके समाधान आते हैं. इसलिए डॉक्यूमेंट्री आपको खुद से जोड़े रखती है. इसकी यूथ अपील बढ़ाने के लिए इसकी शुरुआत ही रैप से होती है. इसे संजय शर्मा ने डायरेक्ट किया है. वंदना शर्मा ने इसे लिखा है. निलेश मिश्रा इसके सूत्रधार हैं. वो शब्द की भूमिका में अरविन्द कुमार की कहानी सुनाते हैं. इसमें आपको शशि थरूर, श्याम बेनेगल और डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी जैसे लोग मिलेंगे. ये सभी अरविन्द कुमार के काम पर बात कर रहे हैं. इससे अंदाज़ा लगा सकते हैं, अरविन्द कुमार कितने बड़े आदमी थे. वो कहते थे: हिम्मत परेशानी से बड़ी होती है. उनका जीवन ऐसा ही रहा. उनके ऊपर हमेशा भाषा का कोई न कोई बैताल चढ़ा ही रहा. एक काम खत्म हुआ, तो दूसरा काम उठाया लिया. जाइए डॉक्यूमेंट्री यूट्यूब पर उपलब्ध है. देखिए और शब्द सारथी, थिसारस मैन अरविन्द कुमार के जीवन और काम को सेलिब्रेट करिए.
वीडियो: मूवी रिव्यू: दी केरल स्टोरी