जब मेरे पिता गुज़रे, उसके बाद मेरे लिए अपनी मां की खुशी से बढ़कर कुछ नहीं था. मैं कैसा मर्द कहलाऊंगा अगर मैं अपनी मां की मदद नहीं करता. अगर मैं उन्हें बचाता नहीं.फिल्ममेकर जेन कैम्पियन 12 साल बाद फिल्मों में इस लाइन से लौटी. कौन था ये लड़का, जो अपनी मां को बचाना अपना फर्ज़ समझता है, और अगला सवाल कि बचाना किससे है. बेटे को पिता के जूतों में स्टेप इन करने का स्वघोषित अधिकार कोई इंसान नहीं देता, बल्कि एक सोच देती है. जिसे हम सदियों से घोलकर पी चुके हैं. ऐसी विचारधारा जो महिलाओं से ज्यादा पुरुषों को नुकसान पहुंचा रही है, फिर भी ज्यादातर मर्द उसका दंडवत होकर पालन कर रहे हैं. उसी विचारधारा को केंद्र बिन्दु बनाकर नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म आई है, ‘द पावर ऑफ द डॉग’.
‘मनी हाइस्ट’ और ‘स्क्विड गेम’ के बारे में तो आपके फ्रेंड सर्कल ने ही काफी शोर मचा दिया होगा, लेकिन आज हम जिस फिल्म की बात करने जा रहे हैं, उसका कोई बज़ नहीं होगा. फिर हम बात कर ही क्यों रहे हैं, क्योंकि सिर्फ एंटरटेनमेंट सिनेमा का इकलौता पहलू नहीं. ऐसी फिल्में भी ज़रूरी हैं जो इस मीडियम को समृद्ध बनाती हैं. अपरिभाषित समझे जाने वाली कला को अपने ढंग से परिभाषित करने की कोशिश करती हैं.

फिल्म एक स्लो बर्न की तरह आपको चुभती है.
हर पुरुष के अंदर दो रूप बसते हैं – एक पुरुष का और दूसरा नारी का. कहा जाता है कि जो आदमी इन दोनों रूपों से जुड़ा है, केवल उसे ही पूर्ण माना जाए. फिल्म हमारा परिचय करवाती है दो भाइयों से. जॉर्ज और फिल. दोनों एकदम अपोज़िट. फिल कड़ी धूप से घर में आता है, चेहरे को धूल ने ढक रखा है. रफ एंड टफ टाइप, ऐसी निशानियों से ही शायद कोई मर्द कहलाता है. घर लौटने पर अपने भाई जॉर्ज को एक बाथ टब में पाता है, हॉट वॉटर बाथ लेते हुए. फिल ऐसा इंसान है जिसे अपने इमोशन बाजुओं पर पहनना पसंद नहीं. आर्ट एंड क्राफ्ट टाइप चीज़ों को गर्ली समझता है, क्योंकि उसके अनुसार मर्द घुड़सवारी करते हैं, खुद को धूप में पकाते हैं और अपने घावों को आभूषण की तरह पहनते हैं. वो अपने दिल की सेंसिटिव साइड से कनेक्टेड नहीं है.
दूसरी तरफ जॉर्ज अगर किसी को रोते पाता है तो उसे कमजोर नहीं समझता, जज नहीं करता. हमेशा रॉ ढंग से रहने को मर्द होना नहीं मानता. जॉर्ज और फिल पैट्रीयार्की से उपजी कंडिशनिंग के दो पहलू हैं. फिल एकदम एक्स्ट्रीम, वहीं जॉर्ज थोड़ा मॉडरेट क्योंकि जॉर्ज भी किसी आदर्श पुरुष का एग्ज़ाम्पल नहीं. जैसे जब रोज़ से शादी करता है तो गवर्नर को डिनर पर बुलाता है. जानता है कि किसी ज़माने में रोज़ पियानो बजाती थी. इसलिए नया पियानो खरीद लाता है, चाहता है कि रोज़ मेहमानों के सामने प्ले करे. क्यों? क्योंकि ये उसकी इच्छा है. रोज़ का ओपीनियन लेना तो वो ज़रूरी भी नहीं समझता.

वेस्टर्न फिल्मों की लोकेशन अपने आप किरदार का अकेलापन रिफ्लेक्ट करती है.
रोज़ से शादी होने के बाद दोनों भाइयों के बीच के डाइनैमिक भी बदल जाते हैं. फिल रोज़ और उसके बेटे पीटर को सह नहीं सकता. कागज़ के फूल बनाने वाला पीटर उसे मर्दाना नहीं लगता. पीटर सूखी घास में टहलता, ऐसा फ्रेम जो बंजर जगह को भी सुंदर बना देता. फिल्म पुरुषप्रधान सोच में रची गई कहानी बताती है, लेकिन सिर्फ इतने पर नहीं रुकती. बात करती है थोथे पुरुषार्थ से पैदा होने वाले अकेलेपन की. जो एक आदमी को ये कन्फ़ेस करने से रोकता है कि सुनो, मुझे तुम्हारी ज़रूरत है. किरदारों के मन का खालीपन लगातार फिल्म में बना रहता है. जैसे सबसे पहला पॉइंट तो फिल्म की लोकेशन. ये एक वेस्टर्न ड्रामा फिल्म है, जो सूनी पहाड़ियों के बीच घटती है. वादियों का सूनापन आपको चुभता है, उससे भी ज्यादा बंजर पहाड़ियों के बीच खड़े किरदार.
फिल्म आपको ऑडियंस की तरह उनकी दुनिया में लेकर नहीं जाती. बल्कि उस कहानी का हिस्सा बना देती है. ऐसा करती है स्टैटिक कैमरा से, जो झटके में नहीं घूमता. बस खामोशी से ऐसे बना रहता है कि एक पॉइंट के बाद आप उसकी प्रेज़ेंस तक भूल जाएं. कुछ ऐसा ही फिल्म का म्यूज़िक भी है, जो प्ले नहीं होता बल्कि बहता है. किरदारों की आंतरिक कशमकश के साथ नैरेटिव को भी आगे ले जाने का काम करता है. कहानी में आगे चलकर फिल और पीटर की बॉन्डिंग भी बदलती है. पीटर उसके साथ रहकर घुड़सवारी सीखने लगता है, सख्त होने लगता है. इस ट्रांज़िशन के दौरान एक सीन है, जहां फिल और पीटर बाहर निकलते हैं. उन्हें एक जंगली खरगोश मिलता है, जिसकी गर्दन चटकाकर पीटर उसे मार डालता है. अगला शॉट आता है सूखी घास का, जिसके इर्द-गिर्द कभी पीटर बेफिक्री में जिया करता है. अब उस घास पर खून लगा है. यहां पिंक फ्लॉयड के गाने ‘Comfortably Numb’ की एक लाइन याद आती है, ‘The child is grown, The Dream is gone.’
‘शरलॉक’ वाले बेनेडिक्ट कंबरबैच ने फिल का रोल निभाया है. अमेरिकन एक्सेन्ट पर उनकी पकड़ देखकर पता नहीं चलेगा कि वो ब्रिटिश एक्टर हैं. जेसी प्लेमंस बने हैं जॉर्ज, जिन्होंने अब तक इतना बढ़िया काम कर लिया है कि किसी परिचय के मोहताज नहीं. वहीं, किर्स्टन डंस्ट ने रोज़ का कैरेक्टर निभाया है. जो डरी हुई रहती, अपने इनर डीमन से लड़कर उसके आगे हारती हुई. पूरी फिल्म में उनकी परफॉरमेंस कंट्रोल में थी.
अगर ऐसा सोचकर ये फिल्म देखेंगे कि हर पल कुछ घटेगा, तो निराश होंगे. ये फिल्म आपको अपने दोस्तों के बीच बात करने के लिए कंटेंट नहीं देगी, बल्कि आपको खुद से बात करने पर मजबूर करेगी.