फिल्मों के मामले में एक टर्म चलती है. नो ब्रेनर. यानी दिमाग न लगाने वाली फ़िल्में. मेकर्स का आग्रह होता है कि अगर आप लॉजिक लगाने की ज़िद न करें, तो फिल्म आपको मज़ेदार लगेगी. कई मामलों में ये सच भी साबित हुआ है. लॉजिक से परे लेकिन भरपूर हास्य क्रिएट करनेवाली फ़िल्में काफी मात्रा में बना चुका है हिंदी सिनेमा. तो नो ब्रेनर से कोई ख़ास परहेज़ नहीं है जनता को. लेकिन कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं, जिनकी नो ब्रेनर की परिभाषा ही कुछ अलग होती है. उनका साफ़ कहना होता है कि हमने कोई दिमाग नहीं लगाया है, आगे आपकी मर्ज़ी. अजय देवगन और सिद्धार्थ मल्होत्रा की 'थैंक गॉड' बिल्कुल इसी तरह की फिल्म है.
मूवी रिव्यू: थैंक गॉड
'थैंक गॉड ऐसी फिल्म है, जो आज से 15-20 साल पहले शायद अच्छी लगती. लेकिन आज के दौर में ये एकदम बासी और उबाऊ कॉन्सेप्ट लगता है.

# स्वर्ग सिधारी स्क्रिप्ट
फिल्म की कहानी कुछ यूँ है कि अयान कपूर नाम का एक रियल एस्टेट ब्रोकर है, जो महाकरप्ट है. व्यावसायिक रूप से भी और नैतिक रूप से भी. एक दिन उसका एक्सीडेंट हो जाता है. अब वो एक साथ दो जगहों पर लड़ रहा है. ICU में मौत से जंग लड़ रहा है और स्वर्ग में देवताओं के आगे अपना मुकदमा. पाप-पुण्य का हिसाब रखने वाले देवता CG उसको बता रहे हैं, कि असल में वो कितना वाहियात आदमी था. अब आप कहेंगे ये CG कौन से देवता हैं! तो हुआ कुछ यूँ कि फिल्म पर हुए बवाल के बाद देवता का नाम बदलकर CG कर दिया गया है. जैसे जनता पहचान ही नहीं पाएगी कि CG का क्या मतलब हो सकता है! खैर. तो CG अयान के साथ एक गेम शो टाइप चीज़ खेलते हैं. ये किस तरह का गेम शो है, अयान उसे जीत पायेगा या नहीं, ये फिल्म देखकर जानियेगा. मतलब अगर बहुत ही मन कर रहा हो तो. वरना न भी जानेंगे तो, ट्रस्ट मी, कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ने वाला.

फिल्म की कहानी के बारे में ये ज़ोर-शोर से कहा गया कि नई तरह की कहानी है. अफ़सोस कि ऐसा कुछ नहीं है. मृत्युलोक के बंदे की स्वर्ग में देवताओं के आगे हाज़िरी के कॉन्सेप्ट पर पहले भी काफी फ़िल्में बनी हैं. जीतेंद्र की 'लोक-परलोक' याद आती है. नाइंटीज़ में वेंकटेश की एक फिल्म आई थी 'तकदीरवाला'. उसमें भी यमराज, चित्रगुप्त जैसे तमाम किरदार थे. और तो और 'थैंक गॉड' भी कोई ओरिजिनल स्क्रिप्ट नहीं है. थोड़ा सा सर्च करने पर पता चला कि 2009 में एक डैनिश फिल्म आई थी 'सोर्ते कुगलर' (Sorte Kugler), जिसे इंग्लिश में 'What Goes Around' कहा गया. 'थैंक गॉड' उसकी ही कॉपी या रीमेक या जो कुछ भी कह लो, है. इसे देखते हुए बीच-बीच में सलमान की 'गॉड तुस्सी ग्रेट हो' की भी याद आती है. इतने के बाद भी अगर मेकर्स का ये दावा है कि ये नई तरह की कहानी है, तो हमें कुछ नहीं कहना, गॉड ही उनका इंसाफ करेगा.
# लॉजिक ना सही, कॉमेडी तो दो
फिल्म से काफी सारी शिकायतें हैं लेकिन सबसे बड़ी शिकायत ये है कि जब आप कॉमेडी का नारा बुलंद कर रहे हैं, तो कॉमेडी तो दो. ना तो ऐसे जोक्स हैं जिन पर हँसी आए, न ही ऐसी सिचुएशन्स हैं जहाँ कॉमेडी जनरेट हो. फिल्म 'कॉमेडी करें या संदेश दें' वाली दुविधा में तमाम वक्त फँसी रहती है और दोनों ही काम नहीं कर पाती. जोक्स आउटडेटेड हैं और संदेश क्लीशे से भरे हुए. लॉजिक का कचूमर निकालती तो पचासों बातें हैं. मतलब आप ऐसे कितने पिताओं को जानते हैं, जो अपने छोटे बच्चों की टुच्ची सी गलती के लिए उन्हें उम्र भर माफ़ नहीं करते? कई सारे सीन्स ऐसे हैं जो कागज़ पर शायद कॉमेडी लगे हों, परदे पर बेहद फूहड़ लगते हैं. बैंक रॉबरी वाला सीन कुछ-कुछ ऐसा ही है.

# एक्टिंग, म्यूज़िक, डायरेक्शन गॉड भरोसे
सिद्धार्थ मल्होत्रा का तो पता नहीं लेकिन अजय देवगन ने ये फिल्म पता नहीं क्यों की है. वेस्ट ही हुए हैं वो. वेस्ट तो खैर और भी बहुत कुछ हुआ है, जिनमें मेरे जैसे लोगों का वक्त भी शामिल है. खैर. सिद्धार्थ मल्होत्रा कई सीन्स में क्लूलेस लगते हैं लेकिन ये उनकी कम, स्क्रिप्ट की खामी ज़्यादा है. रकुल प्रीत सिंह के लिए भी कोई ज़्यादा स्कोप था नहीं, इसलिए उन्होंने भी ख़ास कुछ किया नहीं. बाकियों का क्या ही ज़िक्र करें. सीमा पाहवा जैसी कद्दावर एक्ट्रेस भी ज़ाया हुई हैं. मराठी एक्ट्रेस उर्मिला कानिटकर कोठारे ठीक-ठाक हैं.
संगीत के नाम पर भी आप गॉड को ही याद करेंगे. एक अपवाद छोड़ दिया जाए तो कुछ भी नामलेवा नहीं है. 'मणिके मगे हिथे' का जो हश्र किया, वो तो जनता ने महीने भर पहले खुद ही देख लिया है. कतई बर्बाद हो गया है वो गाना. जिस अपवाद का मैंने ज़िक्र किया वो है आनंद राज आनंद की छोटी सी वापसी. उनके एक महाफेमस गाने का एक्सटेंडेड वर्जन थोड़ी सी देर के लिए सुनाई पड़ता है. मेरे लिए बस उतने ही लम्हे काबिले-कबूल रहे फिल्म में. दिल तो चाह रहा है कि गाना बता दूँ, लेकिन फिर आप लोग ही स्पॉइलर-स्पॉइलर कहकर हमको कोसेंगे. तो रहने देते हैं. अगर आपने फिल्म देखने का हिम्मतवाला काम चुना, तो खुद ही जान जाएंगे.

शॉर्ट में कहा जाए तो 'थैंक गॉड ऐसी फिल्म है, जो आज से 15-20 साल पहले शायद अच्छी लगती. फैमिली एंटरटेनमेंट के तौर पर इसे कबूल लिया जाता. लेकिन आज के दौर में ये एकदम बासी और उबाऊ कॉन्सेप्ट लगता है. डायरेक्टर इंद्र कुमार अब भी दशकभर पहले की फ़ॉर्मूला कॉमेडी में अटके हुए हैं. दिल से बुरा लगता है बॉस! फिल्म की रिलीज़ से पहले कुछ बवाल हुआ था. लोगों ने कहा था कि उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुई थीं. धार्मिक भावनाओं के बारे में तो हम कुछ नहीं कह सकते लेकिन इस फिल्म में काफी मटेरियल है, जिससे जनरली भी आहत हुआ जा सकता है. कमज़ोर स्क्रिप्ट से, बुरी एक्टिंग से, वीयर्ड सीक्वेंसेस से, घिसे-पिटे वॉट्सऐप जोक्स से सरासर आहत हो सकते हैं आप. दूर रहने में ही भलाई है. इस फिल्म को गॉड ही बचाए तो बचाए, बाकी आपके-हमारे बस का कुछ है नहीं. नमस्ते.
वीडियो: दी सिनेमा शो: 25 अक्टूबर को रिलीज़ होगी अजय देवगन की थैंक गॉड