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तरला: मूवी रिव्यू

फिल्म का अप्रोच कुछ ज़्यादा ही रियल है. इसमें ड्रामा थोड़ा और होता, तो मज़ा आता.

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स्कूटर पर सैर करती तरला अपने जीवन का सबसे बड़ा निर्णय लेती है और उसका जीवन बदल जाता है.

सेलिब्रिटी शेफ तरला दलाल. इनका नाम आपने कहीं न कहीं तो सुना ही होगा. इन्हीं की ज़िंदगी पर एक फिल्म आई है, नाम है 'तरला'. हमने ली है देख, बताते हैं लगी कैसी?

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फिल्म की कहानी है एक ऐसी महिला की, जिसकी शादी होने वाली है. पर उसे जिंदगी में कुछ करना है. लेकिन उसे इस 'कुछ' का कोई अंदाज़ा नहीं है. वो अपने लिए कोई सूटेबल प्रोफेशन ढूंढ रही है. ये उस जमाने की बात है, जब शादी के लिए खाना बना पाना अनिवार्य शर्त होती थी, लड़की के लिए. तरला खाना बनाने में एक्सपर्ट है. इसलिए उसकी भी शादी हो गई. शादी को 12 साल भी बीच चुके हैं. तीन बच्चे हो गए हैं. लेकिन अब भी तरला अपना 'कुछ' ढूंढ ही रही है. तरला के मुताबिक़ उसके रद्दी वाले को भी क्लियर है कि लाइफ में क्या करना है? लेकिन तरला को कोई आइडिया नहीं है. ऐसे में उसे एक उम्मीद की किरण नज़र आती है. इसमें उसका साथ देते हैं, मुंबई की टॉप फैक्ट्री में इंजीनियर उनके पति नलिन कुमार.

तरला के करियर की गाड़ी चल निकलती है. लेकिन इस गाड़ी के रस्ते में कई ब्रेकर भी हैं. सबसे बड़ा ब्रेकर है, तरला का महिला होना. एक क्षण ऐसा आता है, जब वो अपना करियर बीच में छोड़ना चाहती है. इस वक़्त टीवी चैनल में बड़ी पोजीशन पर बैठी महिला से वो कहती है, "मैं वही कर रही हूं, जो दुनिया की कोई भी दूसरी औरत अपनी फैमिली के लिए करेगी." इस पर वो महिला कहती है,"नहीं, तुम वो कर रही हो, जो दुनिया का कोई आदमी नहीं करेगा".

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फिल्म में शारिब हाशमी और हुमा कुरैशी

महिला केंद्रित कंटेंट के साथ होता है कि वो पुरुषों को विलेन की तरह पेश करती है. लेकिन इस फिल्म के साथ ऐसा नहीं है. ये बैलेंस बनाकर चलती है. यदि किसी जगह पर पुरुषवादी मानसिकता पर प्रहार करती है, तो अगले ही क्षण उसका तर्क भी पेश कर देती है. यहां समझने जैसा है कि ये पुरुष को नहीं, पुरुषवादी सोच को विलेन बनाती है. 'तरला' फिल्म सिर्फ तरला दलाल के जीवन को लेकर ही नहीं चलती है. इसके साथ उनके पति की लाइफ को भी बराबर तवज्जो देती है. पुरुषवादी समाज में स्त्रीवादी होने के लिए समाज उन्हें कदम-कदम पर सुनाता रहता है. अपनी नौकरी छोड़कर पत्नी का साथ देने का नलिन को गर्व है. लेकिन इस गर्व को डायरेक्टर पीयूष गुप्ता ने बहुत बारीकी से दिखाया है. कारण है कि इस गर्व के अंदर छुपा पुरुष, हमें स्क्रीन पर दिखता है. माने तरला का पति नलिन उसे सब कुछ करने की 'इज़ाजत' देता है. माने इस इज़ाजत में कहीं मेल ईगो छिपा है. इस बात को फिल्म के अंत में वो स्वीकार भी करता है.

फिल्म एक मामले में चूकती है. मुझे लगता है कि सबकुछ डायलॉग्स के ज़रिए बताना अच्छा सिनेमा नहीं हो सकता है. जब नलिन सबकुछ स्वीकारता है, उसे किसी जेस्चर के जरिए दिखाया जाता, तो और अच्छा होता. चूंकि सिनेमा विजुअल मीडियम है. इसलिए इसके विजुअल पावर को और अच्छे तरीके से एक्सप्लॉइट किया जाना चाहिए था. पीयूष गुप्ता और गौतम वेद ने फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखा है. इसकी एक अच्छी बात है, रियलिज्म. यही इसकी बुरी बात भी है. ज्यादातर बायोपिक फिल्मों के साथ होता है कि उन्हें ओवर ड्रामैटाइज कर दिया जाता है. लेकिन यहां ऐसा नहीं है. कोई भी घटना जैसे जीवन में घटती है, ठीक वैसी भी यहां भी घटती है. लेकिन मुझे निजी तौर पर ऐसा लगा, कुछ ज़्यादा ही रियल रखने के चक्कर में ड्रामा फिल्म से एकदम गायब ही कर दिया गया है. थोड़ा बहुत ड्रामा तो होना चाहिए था. हालांकि ये मेरी निजी राय है, आपकी कुछ और हो सकती है.

तरला दलाल पति ए साथ अपनी किताब की पहली रेसिपी पर काम करती हुई.

चूंकि फिल्म की कहानी में नवीनता नहीं है. इसलिए स्क्रीनप्ले में नवीनता की दरकार होती है. पर यहां ऐसा नहीं है. ऐसी कई कहानियां हमने देखी हैं. और ठीक इसी ढंग से देखी हैं, जैसे 'तरला' में दिखाया गया है. हां, फ्रेम में जिस-जिस जगह भी खाना आता है, लालच आता है. एक सीन है, जिसमें नलिन तरला से छुपकर नॉन वेज खाता है. कमाल का फिल्मांकन है. स्क्रीन के इस पार बैठे नॉन वेजिटेरियंस के मुंह में पानी आ जाए. ऐसे ही हर उस फ्रेम के साथ है, जिसमें खाना किसी भी तरह से इन्वॉल्व है.

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मूवी में तरला दलाल का रोल हुमा कुरैशी ने निभाया है. वो कुछ न कुछ नया ट्राई करती रहती हैं. इस फिल्म में भी उन्होंने ठीक ऐसा ही किया है. इस नए प्रयास में वो सफल भी रही हैं. उनकी देहभाषा अच्छी है. बस गुजराती एक्सेंट पर थोड़ा और काम होता तो मज़ा आ जाता. पर कुलमिलाकर बहुत बढ़िया काम है. नलिन कुमार के रोल में है शारिब हाशमी. बहुत ज़्यादा अच्छी ऐक्टिंग है. मतलब इस बंदे को बॉलीवुड में अपना ड्यू मिलना बाक़ी है. हम ऐसे कलाकारों को अच्छे से इस्तेमाल नहीं कर पाते. इन्हें सिर्फ साइड रोल देकर छोड़ देते हैं. शारिब को और काम मिलना चाहिए, ढेर सारा काम. 

एक लाइन में कहें, तो फिल्म ठीक है. बहुत अच्छी नहीं है. खराब भी नहीं है. बस वन टाइम वाच है. फ्री हों, तो ज़ी5 पर देख सकते हैं. 

वीडियो: मूवी रिव्यू : लस्ट स्टोरीज़ 2

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