'सुड़ल: द वॉर्टेक्स' नाम से प्राइम वीडियो पर एक 8 एपिसोड की वेब सीरीज़ स्ट्रीम हो रही है. हिंदी पट्टी के लिए सुड़ल एक नया शब्द है. चूंकि सिनेमा अब ग्लोबल हो रहा है, इसलिए कम से कम अपने देश का सिनेमा तो हमें देखना ही चाहिए. सुड़ल एक तमिल शब्द है जिसका अर्थ है वॉर्टेक्स माने भंवर. यानी 'सुड़ल' एक भंवर है जिसमें ऑडिएंस फंसती चली जाती है. ओपनिंग क्रेडिट्स ही सीरीज़ के स्टैंडर्ड को सेट कर देते हैं. वो इतने शानदार हैं कि स्किप करने का मन नहीं करता. तिसपर से सैम सीएस का शानदार म्यूज़िक.
वेब सीरीज़ रिव्यू- सुड़ल: द वॉर्टेक्स
'सुड़ल' की सबसे अच्छी बात है, ये खुद को अतिवाद का शिकार नहीं होने देती. हर किरदार और हर मुद्दे के सभी पक्षों को अपनी बात रखने का पूरा मौक़ा देती है. थ्रिलर के शौक़ीन हैं तो देख डालिए.


# यहां कोई किसी को नहीं जानता
सेम्बलूर नाम का एक छोटा-सा शहर जहां के लोग ये समझते हैं कि वे एक-दूसरे को बहुत अच्छे से जानते हैं. 'सुड़ल' अंत तक आते-आते सबको ये एहसास कराती है कि यहां कोई किसी को नहीं जानता. सबके अंदर एक गहरा समंदर है जिसमें वो कभी उतर ही नहीं सके. सीरीज़ अपने किरदारों को न पूरी तरह ब्लैक होने देती है और न ही व्हाइट. किसी में ब्लैक ज़्यादा और किसी में व्हाइट कम. पर खेलते सभी ग्रे एरिया में ही हैं. 1990 के आसपास एक फैक्ट्री के लिए सभी ने अपनी ज़मीनें दी. अब वही उनकी रोज़ीरोटी का साधन है. पर एक दिन अचानक फैक्ट्री में आग लग जाती है. उसी रात मजदूर यूनियन लीडर शनमुगम की छोटी बेटी नीला लापता हो जाती है. इसी की खोज में सब इंस्पेक्टर सकरै और उसकी सीनियर रेजिना लगे हुए हैं. बहन के लापता होने की खबर सुनकर बड़ी बहन नंदिता अपनी मां देवी के साथ वापस आ जाती है. नंदिता, सकरै के साथ बहन को ढूंढ़ने लगती है. उसकी बहन कहां है, फैक्ट्री किसने जलाई? इन्हीं दो सवालों के इर्दगिर्द इन्वेस्टिगेटिव ड्रामा 'सुड़ल' बुनी गई है.

कहानी में भरपूर कसाव, स्क्रीनप्ले में कसाव की कमी
एक अच्छा सिनेफ़ाइल किसी भी फ़िल्म या सीरीज़ के अगले दो क़दम भांप लेता है. पर 'सुड़ल' हमें ऐसा नहीं करने देती. इसके राइटर-क्रिएटर पुष्कर और गायत्री एकाध जगह को छोड़कर हमेशा हम से आगे की सोचते हैं. वो इससे पहले 'विक्रम वेधा' जैसी फ़िल्म बना चुके हैं. 'सुड़ल' उनका ड्रीम प्रोजेक्ट है. इसकी सीरियसनेस और ग्रैंडनेस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसे प्राइम पर दर्जन भर से ज़्यादा भाषाओं में रिलीज़ किया गया है और 30 से ज़्यादा भाषाओं में सबटाइटल्स भी मौजूद हैं. दरअसल स्टोरी इतनी टाइट है कि इसमें लूपहोल्स निकालना टेढ़ी खीर है. ऐसा नहीं है कि स्क्रीनप्ले में भी सब अच्छा है, पर तक़रीबन 80 प्रतिशत हिस्सा अच्छा कहा जा सकता है. कई जगहों पर स्क्रीनप्ले स्ट्रेच्ड मालूम होता है. कुछ ऐंगल्स बेमतलब जान पड़ते हैं. जैसे सकरै और नंदिनी के बीच प्रेमप्रसंग जैसा कुछ दिखाया गया है. या तो ये लव ऐंगल न दिखाते या सिर्फ़ उन्हीं दोनों के बीच दिखाते, इसमें तीसरे शख़्स को लाने की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं थी. ऐसा ही एक और गैरज़रूरी लेंदी एलीमेंट है, अधिसयम जब अपने और नीला की बैक स्टोरी सुनाता है. ऐसा लगता है उस पार्ट को सिर्फ़ एक एपिसोड बढ़ाने के लिए ज़बरदस्ती खींचा गया है. ऐसे ही कई हिस्से हैं जहां स्क्रीनप्ले के लिहाज़ से सीरीज़ थोड़ा ख़ुद को लंबा करने की कोशिश करती है. पर इतने ट्विस्ट एंड टर्न्स हैं, जैसे ही पलक झपकती है, सीरीज़ ख़ुद को वनडे से टी-20 में तब्दील कर लेती है.

सभी लीड किरदारों का अभिनय अच्छा है. इसे ऑर्डनरी नहीं कहा जाएगा, पर एक्स्ट्रा ऑर्डनरी भी कहने जैसा नहीं है. चाहे सकरै के रोल में कथिर, रेजिना के रोल में श्रेया रेड्डी, नंदिनी के रोल में ऐश्वर्या राजेश और शनमुगम के रोल में पार्थिबन, सबने अपने हिस्से का ठीक काम किया है. बाक़ी के कलाकार जैसे: निवेदिता सतीश, प्रेम कुमार, हरीश, इंदुमती, लता राव, गोपिका और फेड्रिक जॉन ने भी बढ़िया अभिनय किया है. डायरेक्टर ब्रम्मा और अनुरचरण का निर्देशन अच्छा है. हालांकि लिखाई ही इतनी सुदृढ़ है कि निर्देशक उसी लकीर को पकड़ कर चलते तो काम हो जाता. दोनों डायरेक्टर्स ने ठीक वैसा किया भी है. सीरीज़ को और अच्छा बनाने में इसकी सुंदर लोकेशन और सिनेमैटोग्राफी मदद करती है. साथ ही सेट डिज़ाइन तो कमाल है. इसे देखते हुए विद्या बालन की 'कहानी' याद आती है. जैसे उस फिल्म की सभी घटनाएं दुर्गापूजा के दौरान घटती हैं, ठीक वैसे ही 'सुड़ल' एक लोकल त्योहार मय्यान कोल्लई के दौरान थ्रिल पैदा करती है. ये त्योहार सीरीज़ का एक अहम किरदार है. इसी के सहारे सभी इंसिडेंट्स चलते हैं. कई-कई जगह पैरलल एडिटिंग बहुत अच्छी लगी है. जैसे क्लाइमैक्स के दौरान लगाए गये इंटर कट. जब एक तरफ़ देवी मां राक्षस का वध कर रही हैं और दूसरी तरफ़ एक लीड किरदार असली क़ातिल का वध करता है.

सीरीज़ थ्रिल पैदा करने के लिए क्राइम थ्रिलर के सभी एलिमेंट्स का इस्तेमाल करती है. अंधेरा, साइलेंस, मल्टीपल पॉइंट ऑफ व्यूज़, समय की कमी और हर एपिसोड के अंत में एक क्लिफ़हैंगर, अगला एपिसोड देखने को मजबूर करता है. इन सब में चार चांद लगाता है बैकग्राउंड स्कोर. जिसके बिना इस सीरीज़ का सस्पेंस थ्रिलर कहलाना पॉसिबल नहीं था. 'सुड़ल' मानवीय पहलुओं के विभिन्न आयामों को विस्तार से कवर करती है. आपसी रिश्ते, मानव मन के अंदर-बाहर चल रहे अंतर्द्वंद्व पर सवाल उठाती है. उन सवालों के उत्तर देने की भी भरपूर कोशिश करती है. कम्युनिज़्म, जड़ों में गहरे धंसे करप्शन, रिलीजन, आस्तिक बनाम नास्तिक ऐसे तमाम मुद्दे हैं जिनसे सीरीज़ डील करती है. इसकी सबसे अच्छी बात है, ये खुद को अतिवाद का शिकार नहीं होने देती. हर किरदार और हर मुद्दे के सभी पक्षों को बात रखने का पूरा मौक़ा देती है.
थ्रिलर के शौक़ीन हैं तो देख डालिए. 'सुड़ल', 'असुर' के टक्कर का शो बन पड़ा है. ट्विस्ट एंड टर्न्स के मामले में उससे बीस ही बैठेगा, उन्नीस नहीं.