The Lallantop

वेब सीरीज़ रिव्यू: डॉ अरोड़ा

सीरीज़ आपको समय-समय पर याद दिलाती है कि 'जब तक गुप्त रहेगा, तब तक रोग रहेगा!'

post-main-image
सीरीज़ में डॉ अरोड़ा के कई शेड्स दिखते हैं. वो एकांत में क्या हैं से लेकर वो अपने पेशे के लिेए क्या-क्या करते हैं तक.

'शीघ्रपतन', 'स्वप्नदोष', 'गुप्त रोग'. हमने ये शब्द सलेटी दीवारों पर बहुत शेडी तरीक़े से लिखे हुए देखे हैं. उत्तर भारत की रेल यात्रा करेंगे, तो ख़ूब दिख जाएंगे. नीम-हकीम ख़तरा-ए-जान वाले डॉक्टरों के भी इश्तेहार होते हैं. जो असल में डॉक्टर नहीं होते. और, उनके भी जो असल में डॉक्टर होते हैं. डिग्री वाले. मगर जब इस बात की बात करना ही इतना दुर्लभ है, तो इन दोनों में अंतर किसको मालूम? कुछ पॉपुलर फ़िल्मों और सीरीज़ में भी ऐसे किरदार दिखे हैं, लेकिन जो दिखे, वो एक ही तरह की लाइट में दिखाए गए. जैसे वो केवल असहजता वाली हंसी के पात्र हैं.

अब इसी विषय पर एक सीरीज़ आई है. सोनी लिव पर. 22 जुलाई से स्ट्रीम कर रही है. नाम है, 'डॉ अरोड़ा: गुप्त रोग विशेषज्ञ'. 35-40 मिनट के आठ एपिसोड्स हैं. कहानी है इम्तियाज़ अली की. डायरेक्शन किया है साजिद अली और अर्चित कुमार ने. साजिद अली इम्तियाज़ के भाई हैं. लीड रोल किया है कुमुद मिश्रा ने, in & as डॉ. विशेष अरोड़ा. सीरीज़ में आपको विद्या मालवड़े, विवेक मुशरान और संदीपा धर जैसे बढ़िया कलाकार भी देखने को मिल जाएंगे.

हमने एक सुद में सारी देख ली. तो अब आपको बताते हैं कि क्या जमा क्या नहीं.

कहानी का थीम जब्बर है

इम्तियाज़ अली और साजिद अली ने इससे पहले नेटफ़्लिक्स शो 'शी' में साथ काम किया था. 'शी' में एक महिला की सेक्शुअलिटी को एक्सप्लोर की गई है. इस बार कहानी में मुख्यतः पुरुष की सेक्शुअलिटी पर बात हुई है, लेकिन कहानी बस इतनी नहीं है. कहानी पुरुष की सेक्शुअलिटी को उसकी मर्दानगी यानी मैस्कुलिनिटी के कॉन्ट्रास्ट में देखने की कोशिश करती है. 

डॉ अरोड़ा के तीन क्लिनिक्स हैं. तीन अलग राज्यों में. राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश. मसला वही है, अलग-अलग किरदार हैं और उनकी अलग-अलग समस्याएं. शीघ्रपतन, प्रमेह, हस्तमैथुन, स्वप्नदोष पर बात हुई है. अलग-अलग किरदारों के ज़रिए. मरीज़ों में एक छात्रनेता टाइप लड़का है, एक सेक्स-वर्कर, एक SP और एक बाबा. सबकी अपनी एक पैरलल स्टोरी है, जिसका एक सिरा उनका जीवन है और दूसरा सिरा डॉ अरोड़ा.

सीरीज़ एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द ही भटकती है, लेकिन एक सीज़न भर से समझ आता है कि इन कैरेक्टर्स में भी लेयर्स हैं 

डॉ अरोरा से होते हुए कहानी नए सत्य खोज रही है. किसी भी सत्य के सामने नया सत्य आ जाए, तो घर्षण होता है. यही सीरीज़ में दिख रहा है. एक सेट ढर्रा है, सेट परिभाषाएं हैं. सालों से चली आ रही हैं. संतुलन बना हुआ है, लेकिन बहुत वोलेटाइल है. ये एक पुराने क़िले की तरह है, जो भारी पत्थरों से बना हुआ है, मगर जब इसकी तह में देखो, तो सीलन मिलेगी. सभ्यता का विकास हुआ. कुछ लोगों ने बताया कि युग आधुनिक हो गया है, लेकिन कई बातें अभी भी ड्यू हैं. जैसे ये बात. और, अब ये बातें क़िले की नींव से झाड़ बन कर क़िले में घुस गई हैं. क़िले के एक कमरे में लगातार फैल रही है. एक आकार ले लिया है. हाथी का आकार. इसे ही हम कहते हैं, 'एलीफैंट इन द रूम'.

जिन बातों का हमें पता था कि वो वहां है. बस हम उनकी तरफ़ देख नहीं रहे थे. ये विषय वैसा ही है. अन-कम्फ़र्टेबल. ज़रूरी. एलीफैंट इन द रूम. इसीलिए सीरीज़ समय-समय पर कहती है,

'जब तक गुप्त रहेगा, तब तक रोग रहेगा!'

विषय की तारीफ़ बनती है. ज़रूरी है. ये ऐसा विषय है, जिसे हमने बड़ी सहूलियत के साथ अपनी सामूहिक चेतना से दूर कर दिया है. टैबू क़रार दिया. सब लोगों ने. एक साथ.

कुमुद मिश्रा का काम अव्वल है

कहानी लेट 90s में सेट है. तो आप सोच सकते हैं कि उस समय इस विषय पर कितनी चर्चा होती होगी. कैसा स्टिग्मा होता होगा. सीरीज़ में इसका भी ख़्याल रखा गया है, कि कहानी जिस समय की कही जा रही है वो उस समय की लगे. मसलन, लेट 90s के रेफरेंसेस को बढ़िया पकड़ा है. सीरीज़ में ये चर्चा दिखेगी कि बॉबी देओल की जोड़ी किस हीरोइन के साथ सबसे ज़्यादा अच्छी लगती है या टीवी के आ जाने से अख़बारों पर क्या असर पड़ा. दोनों ही उस समय की घटनाएं है. ऐसे और भी रेफरेंसेज़ हैं, जिनको अपना फेयर शेयर मिला है.

कुमुद कई शेड्स में दिखते हैं. कभी एक मुंतज़िर प्रेमी, कभी संकुचाया पिता और कभी मिडल-एज स्वैगर (फोटो - YT स्क्रीनग्रैब)

और, फिर आते हैं डॉ अरोड़ा. डॉ अरोड़ा के किरदार को अच्छे से लिखा गया है. ब्रिलियंट नहीं कह सकते, क्योंकि उनका आर्क प्रिडिक्टेबल था. हालांकि, कुमुद उस किरदार को एन्हांस कर देते हैं. मसलन, जिस तरह डॉ अरोड़ा अपने प्रोफेशन को संजीदगी से लेते हैं. चर्चा जिस मुद्दे के इर्द-गिर्द है, वो कितना सेंसिटिव है, मेकर्स में इसका इल्म दिखता है. सीरीज़ के पहले ही एपिसोड में एक सीन है, जहां डॉ अरोड़ा कहते हैं,

"आंधी, तूफ़ान, बाढ़, सूखा.. चाहे आग लग जाए इस बिल्डिंग में. पेशेंट की मर्यादा कभी भंग नहीं हो सकती! पता है न आपको ये बात?"

और, सीरीज़ में आगे बढ़ते हुए कुमुद मिश्रा अपनी अदायगी से आपको कन्विंस कर देते हैं कि डॉ साहब ये बात पूरे भरोसे के साथ कह रहे थे. ऐसे, जैसे वो इस बात पर सौ फ़ीसदी विश्वास करते हों. और, अगर सालों से चले आ रहे कथित सत्य के सामने एक नया सत्य रखना है, तो सौ फ़ीसदी श्योर होना ही पड़ता है. हालांकि, धीर-गंभीर, अपने पेशे की क़द्र करने वाले, मूल्यों पर खड़े रहने वाले, शांत और सज्जन टाइप डिस्क्रिप्शन केवल डॉ अरोड़ा का ऊपरी सतह तक सच है. कहानी के साथ डॉ साहब का किरदार भी खुलता है. उनके कुछ अनप्रिडिक्टेबल शेड्स भी देखने को मिलते हैं.

'इम्तियाज़ अली टच' पर दो-एक बातें और..

कहानी इम्तियाज़ अली की हो और बालकनी के दृश्य न हों, ऐसा कैसे हो सकता है! इम्तियाज़ अली की लगभग सभी पिक्चरों में ओल्ड-स्कूल बालकनी रोमैंस दिख जाता है. इम्तियाज़ अली ने ख़ुद कहा है कि वो शेक्सपीरियन स्कूल ऑफ़ लव के छात्र हैं. नेटफ़्लिक्स के साथ एक इंटरव्यू में इम्तियाज़ अली ने कुछ ऐसी विज़ुअल थीम्स के बारे में बताया था जो उनकी लगभग सभी फिल्मों में रहती हैं. जिनमें से एक है जूलियट की बालकनी. सीरीज़ में आपको टिपिकल इम्तियाज़ अली का सही-सही टच दिखता है.

राजेश शुक्ला के सिनेमैट से मिक्स्ड फ़ीलिंग आती है. कुछ शॉट्स बहुत ही सही हैं, कुछ क्लीशे और कुछ फुस्स.

नीलाद्रि कुमार का संगीत बेहतरीन है और सटीक मौक़ों पर इस्तेमाल किया गया है. दो बढ़िया गाने निकले हैं. अरिजीत सिंह के 'मेहरम' और 'ख़ालीपन' को ऑफ़िस से घर आने के बाद सुना जा सकता है. दोनों गाने लिखे हैं इरशाद कामिल ने, जो इस सीरीज़ को और इम्तियाज़ अली फील देते हैं.

कैरेक्टर की लिखाई में सबसे ज़रूरी होता है कि उसकी क्राइसिस को जस्टिफ़ाई किया जाए. कैरेक्टर क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है, उसकी सफ़ाई होनी चाहिए. या तो उसके पास्ट में या साथ हो रही घटनाओं में. ज़रूरी नहीं कि डिटेल्स दिए जाएं मगर इतनी दिशा दी जानी चाहिए कि उसे इन्ट्रप्रेट किया जा सके. ये कहीं-कहीं डॉ अरोड़ा के किरदार में मिसिंग लगता है. और, ख़ासतौर पर उन एक्स्ट्रीम्स पर जब आप उस किरदार के साथ अग्री करना चाहते हो.

ये डॉ अरोड़ा की पास्ट लाइफ़ की झलक है, जो सीरीज़ में मौक़ानुसार दिखती है

बाक़ी ऐक्टर्स ने अपना हिस्सा अच्छे से निभाया है. गौरव पराजुली, विद्या मालवड़े और पितोबाश त्रिपाठी अपने किरदार के साथ जस्टिस करते हैं. सीरीज़ में प्रयोग के लिहाज़ से विवेक मुशरान का पार्ट काफी दिलचस्प है, लेकिन वो वैसा निकल कर आता नहीं है. फिरंगी बाबा के रूप में राज अरुण शानदार हैं. इस पार्ट में भी एक बात ये बात खटकती है कि सीरीज़ इनकी कहानियों को ज़्यादा एक्सप्लोर नहीं करती.

कहानी कुछेक जगहों पर खिंचती है. कुछ-कुछ जगह लाउड ऐक्टिंग देखने को मिलती है, जो सीरीज़ के मिज़ाज में फिट नहीं बैठती.

हमारे साथी श्वेतांक ने एक रिव्यू में लिखा था, हमारे यहां बन रहे मेनस्ट्रीम कॉन्टेंट ड्रिवन सिनेमा में पहले किसी ऐसे टॉपिक का मज़ाक उड़ाया जाता है, फिर उसकी गंभीरता समझाई जाती है. जो किसी भी विषय पर बात करने का टॉक्सिक तरीका है. लेकिन इम्तियाज़ अली की इस कहानी में ये टॉक्सिसिटी नहीं दिखती. उन्होंने एक सीरीयस सिनेमा बनाया है. अपने कहन में सीरियस नहीं, ट्रीटमेंट में. अच्छा प्रयोग है.

हाइलाइटिंग बात ये है कि कहानी उस सोच पर कटाक्ष है जो मर्दानगी को पुरुष के लिंग तक और एक महिला की इज़्ज़त को उसकी योनि तक समेट कर रख देती है. कहानी अलग-अलग पड़ावों से होते हुए, भाव के अलग-अलग लेवल्स को छूते हुए हमें बताती है कि एक व्यक्ति अपने किसी भी एक हिस्से से बहुत ज़्यादा है. उसके जीवन की कोई भी स्थिति, कोई भी पक्ष उसके जीवन के समुच्चय से बड़ी नहीं है. मल्लब ज़िंदगी में सबसे बड़ी चीज़ ज़िंदगी है. और, आप उसे क्या बनने देते हैं.

बहरहाल, ये हुई हमाई बात. आप सोनी लिव पर डॉ अरोड़ा देख सकते हैं. 

शमशेरा, थॉर समेत जुलाई में आने वाली मूवीज़ और वेब सीरीज़