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फिल्म रिव्यू: शमशेरा

‘शमशेरा’ अपनी कहानी को अपना सेलिंग पॉइंट बनाने की कोशिश नहीं करती. वही टेम्पलेट है, जो दसियों बार घिसा जा चुका है

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'शमशेरा' हिंदी सिनेमा को उसका ज़रूरी ब्रेकथ्रू दे पाती है या नहीं?

करीब चार साल बाद रणबीर कपूर की फिल्म रिलीज़ हुई है, और उसका नाम ‘ब्रह्मास्त्र’ नहीं है. 2018 में ‘संजू’ के प्रोमोशन के दौरान उन्होंने अपनी आनेवाली फिल्म ‘शमशेरा’ पर बात की थी. बताया था कि फिल्म की कहानी सेट है 19वीं सदी में. शमशेरा नाम का एक डकैत है, जो ब्रिटिश हुकूमत से लड़ रहा है. अब ये फिल्म बनकर रिलीज़ हो गई है. ‘शमशेरा’ मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा को ज़रूरी ब्रेकथ्रू दे पाती है या नहीं, आज के रिव्यू में उसी पर बात करेंगे.

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शमशेरा का ब्रिटिश सरकार से बैर बेवजह नहीं है. वो अपने गिरोह में काम करता है. धनी, कथित ऊंची जाति वाले लोगों को लूटता है. शमशेरा एक खमीरन है. जिन्हें कथित तौर पर नीची जाति वाला माना जाता है. इस वजह से उसकी लड़ाई सिर्फ अमीरी-गरीबी वाली नहीं, जातिवाद के खिलाफ भी है. कहानी का और शमशेरा की लाइफ का मेन विलेन है शुद्ध सिंह. एक कथित ऊंची जाति वाली दरोगा. जिसके मन में लेशमात्र भी दया नहीं है. एकदम क्रूर. इतना सुनकर आगे बताने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए कि क्या घटने वाला है.

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रणबीर कपूर ने फिल्म में डबल रोल किया है. 

‘शमशेरा’ अपनी कहानी को अपना सेलिंग पॉइंट बनाने की कोशिश नहीं करती. वही टेम्पलेट है, जो दसियों बार घिसा जा चुका है. खुद से बड़े मकसद को पूरा करता पिता, अपनी लैगेसी से अनजान बेटा, और राक्षस समान विलेन. फिल्म को देखने के बाद मेरे पहले शब्द थे, एक टिपिकल बॉलीवुड फिल्म बनाने की कोशिश हुई है. अब आप इस बात को अच्छे सेंस में लें या गलत सेंस में, आप पर है. पीरियड ड्रामा वाले एलिमेंट्स फिल्म में दिखेंगे. बड़े सेट तैयार किए गए. वीएफएक्स पर ठीक-ठाक काम हुआ है. एक्शन सीक्वेंस फिल्म के लिए काम कर जाते हैं. फिल्म के म्यूज़िक कम्पोज़र मिथुन को स्पेशल मेंशन दिया जाना चाहिए. लोफी और स्लो रिवर्ब के दौर में पांच मिनट के गाने आप इन्जॉय कर पाएंगे.  

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रणबीर ने फिल्म में डबल रोल निभाया है. शमशेरा और उसके बेटे बल्ली का. शमशेरा को एक बहुत बड़ी लैगेसी छोड़कर जानी है. जिसका भार बल्ली और पूरी फिल्म उठाती है. रणबीर अपने किरदार की ब्रीफ समझते हैं. शमशेरा का लुक इंटेंस है. वैसा ही काम उन्होंने अपनी आवाज़ पर किया है. उनकी आवाज़ में एक नियंत्रित भारीपन दिखता है. ऐसा लगता नहीं कि रणबीर ज़ोर लगाकर बोलने की कोशिश कर रहे हैं. फिर आता है बल्ली. लापरवाह, बेफिक्र किस्म का. उसकी आवाज़ एकदम रणबीर जैसी है. देखने में या कहें तो सुनने में अच्छा लगता है जब एक्टर्स अपने लुक से इतर फैक्टर्स पर काम करते हैं. रणबीर की मेहनत सिर्फ फिज़िकल फिटनेस तक सीमित नहीं थी.

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क्रूर, राक्षस समान विलेन शुद्ध सिंह के रोल में संजय दत्त.  

हीरो को जब आप लार्जर दैन लाइफ बनाते हैं तो विलेन भी वैसा ही रखना पड़ता है. शुद्ध सिंह बने संजय दत्त हिंदी सिनेमा के बेस्ट विलेन नहीं. निर्दयी होने के बाद भी आप उसे देखना चाहते हैं. बस राइटिंग उन पर मेहनत करने के मूड में नहीं दिखती. उनके किरदार को सेडिस्ट किस्म का ह्यूमर दिया है. दूसरों को परेशान कर के जो मज़े उठाता है. समस्या ये है कि उसे आप सिर्फ एक ही शेड में देखते हैं. थोड़ी देर पहले मैंने टिपिकल बॉलीवुड जैसे शब्द इस्तेमाल किए थे. उन पर फिर लौटना चाहूंगा. फिल्म अपने हीरो को पूरा स्पेस देती है. बस उसकी दुनिया को भूलती दिखती है.

एक किरदार के नैरेशन से फिल्म शुरू होती है. जब भी आप किसी का नैरेशन सुनते हैं तो पाते हैं कि वो शख्स कहानी में अहम रोल निभाएगा. यहां ये केस नहीं है. यहां जो किरदार हमारे लिए कहानी खोलता है, उसे फिल्म थोड़ी देर बाद पूरी तरह भूल जाती है. अंत में आकर उसके दर्शन फिर नसीब होते हैं. फिल्म ऐसा और भी सपोर्टिंग कैरेक्टर्स के साथ करती है. उनकी बैकस्टोरी पर काम न कर के उन्हें सतही बना देती है. ये पहले ही बता चुके हैं कि कहानी नई नहीं. कई कहानियों से प्रेरित लगती है जिसमें कोई बुराई नहीं. फिल्म देखते वक्त बैटमैन के चमगादड़ से लेकर महाभारत का अज्ञातवास वाला चैप्टर तक याद आएगा. बस फिल्म उन्हें ठीक से भुना नहीं पाती.

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फीमेल किरदारों को सही जगह नहीं मिलती.  

टिपिकल फिल्मों से एक शिकायत लंबे वक्त से रही है. ऐसी फिल्मों में फीमेल किरदार बस हैं. वो ज्यादा कुछ जोड़ नहीं पाते. वाणी कपूर के किरदार सोना ने भी यहां ऐसा ही कुछ किया है. उनका इंट्रोडक्शन एक डांस नंबर से होता है. विज़ुअली ये गाना अच्छा है. आगे उनके कुछ और डांस सीक्वेंस आते हैं. हालांकि, वो शमशेरा की जर्नी में ज़्यादा ऐड अप नहीं कर पाती. ऐसे में देखकर बुरा लगता है कि ये सदियों पुरानी खामी राइटिंग में सुधारी जा सकती थी.  

फिल्म पुरानी चीज़ों को लेकर एक्सपेरिमेंट का फ्लेवर भी लगाने की कोशिश करती है. जैसे एक्शन सीक्वेंसेज़ में कैमरे का काम जो लगातार रोटेट करता है. एक जगह नहीं बना रहता. फिर भी सारा दुखड़ा आकर राइटिंग पर ही फंसता है. मेरे लिए ‘शमशेरा’ को देखना एक डिसेंट अनुभव था. कुछ पहलू थे जिन पर अगर काम होता तो फिल्म के आलोचना वाले पक्ष में कटौती हो सकती थी.

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