मैंने कहा कि मुझको तो इस गाने में बड़ी ख़ामी नज़र आती है. बताइए कोई कन्या प्यार के लिए जगुआर जैसी महंगी कार की शर्त रखती है क्या? और रखती है तो हम इसे काहे को गाएं और बजाएं और सबको सुनाएं?सबद्दे भैया लंबाई में काफी छोटे पड़ जाते हैं. उन्होंने हमें सिर उठाकर कुछ देर देखा और फिर हाथ से 'रुके रहने' का इशारा किया. नाली में थूक आए, पानी लेकर कुल्ली की, बनियाइन उठाकर मुंह पोंछा और समोसों का ऑर्डर देने के बाद बोले, 'तुम दिल्ली से पढ़े हो. तुम ना समझ पाओगे.' इसके बाद उन्होंने इस गाने की जो व्याख्या बताई, उससे पुख्ता हो गया कि किसी ज़माने में उन्होंने बीएचयू से हिंदी साहित्य में मास्टर्स किया था. वो कहने लगे कि 'कुड़ी अर्थात् कन्या' एकदम सही कह रही है. इसके पीछे कोई गलत भाव नहीं हैं. क्यों? इसकी चार वजहे हैं. https://www.youtube.com/watch?v=i2GC06euEDE 1 दरअसल 'कुड़ी अर्थात् कन्या' का वास्तविक आकर्षण जगुआर नामक कार है ही नहीं. वह तो अपने भावी प्रेमी को आत्मनिर्भर अर्थात् इंडीपेंडेंट देखना चाहती है. उसका भावी प्रेमी एक नंबर का आलसी है और उसका बिजनेस डांवाडोल चल रहा है. इसलिए वह उसे प्रकारांतर से प्रेरित करना चाहती है. उसकी सदिच्छा है कि 'भावी प्रेमी' इस काबिल हो जाए कि जरूरत पड़े तो जगुआर भी ले सके. 2 'कुड़ी अर्थात् कन्या' के पिता विश्व हिंदू परिषद में हैं. इसीलिए बालिका स्वदेशी-प्रेमी है. चूंकि जगुआर कार को अपने टाटा वाले खरीद चुके हैं, वो एक स्वदेशी कार हो चुकी है. कन्या इतनी आदर्शवादी है कि अपने भावी प्रेमी को प्रेरित करने के लिए उसने जो उपमा चुनी है, उस उपमा में भी उसने स्वदेशी कार का चयन किया है. वह बीएमडब्ल्यू और चार छल्ले वाली ऑडी की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखती. 3 वह कहती है कि जगुआर लेने के बाद आप मुझसे जितना चाहे प्रेम ले लें. मतलब 100 परसेंट प्यार. लेकिन आप गौर करें तो वो ऐसा नहीं कहती कि जगुआर नहीं लाओगे तो जीरो परसेंट प्यार मिलेगा. 'भावी प्रेमी' यदि आत्मनिर्भर बनने की ओर कदम बढ़ाता है तो 'कुड़ी अर्थात् कन्या' बीस-पचीस परसेंट प्यार तो देगी ही. बचा हुआ प्यार उसके आत्मनिर्भर बनने पर मिलेगा. यह तो सकारात्मक शर्त है. जैसे अपनी अम्मा इतवार के दिन कहती हैं कि 'बेटुआ पहिले नहाय के आओ, तो खाय क मिली.' 4 और कभी किसी ज़माने में 'भावी प्रेमी' आत्मनिर्भर हुई गवा और 'कुड़ी अर्थात् कन्या' की बात को 'लिटरली' लै लिहिस तो 'आम फरै-फरै, आम कै गुठली फरै सो अलग'. किसी रोज़ वो जगुआर ले भी आए और कहे कि लेओ बाबू तुम कही थीं तो हम लै आए हैं तो ये भी सोने पर सुहागा रहेगा. जो गाड़ी घर में आएगी वो होगी तो बेट्टा एकदम सनन. बोड़ीक जित्ती देर में समोसा छनता है उत्ती देर में पहुंच जाओगे बिठूर. 8 सिकिंड मां कांटा पहुंचता है सओ पे. दुई सौ वनतीस टाप स्पीड. औ इंटीरियर देख लेओ तुम्हाई बइठक फाट जाई. कन्या बहुत रिसर्च करके कह रही बे. तुम साले को दिल्ली में पढ़े हो. ना समझ पाओगे.
मेरा देश तरक्की के लिए प्यार चाहिता है, जगुवार चाहिता है
'कुड़ी अर्थात् कन्या' प्यार के बदले जगुआर की आकांक्षा क्यों रखती है. कानपुर के सबद्दे भैया ने नई थ्योरी दी है.
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फोटो - thelallantop
यैह!
राजा बोहेमिया
कुड़ी कैंदी
कुड़ी कैंदी बेबी पहलां जगुआर लै लो
फिर जिन्ना मरजी पियार लै लो 'पियार लै लो. सियार लै लो. किवाड़ लै लो.' शरारत में आदमी क्रिएटिव हो जाता है. फिल्मी गीतों के साथ अजीबोगरीब काफिये बैठाने लगता है. और वो ज़मीन अगर उत्तर प्रदेश हो तो अकसर वहां लोग इसके साथ खुजलाते हुए भी दिखाई पड़ते हैं. अपनी लापरवाही मिश्रित मस्ती के प्रदर्शन का सबसे सरल तरीका! गाने को अपना बना लो और खुजलाते हुए नुक्कड़ों की ओर मार्च करो. इसी मौलिक-सामूहिक क्रिया से अकसर यूपी की कस्बाई शामों का चांद आकार लेता है. तो यह कानपुर की एक शाम थी. और भैया सबद्दे 'जगुआर लै लो' गाते हुए 'साहब समोसा भंडार' पर पहुंच चुके थे. पहुंचते ही मैंने दुआ सलाम की. जवाब में उन्होंने मेरे कंधे पर एक ज़ोर की धप्पा दी, जिसका मुख्य मकसद अपनी सीनियॉरिटी इस्टैबलिश करना होता है. और फिर वो कहने लगे कि पंजाबी म्यूजिक में शोरगुल ज़्यादा है, लेकिन मस्ती के मूड में सुनो तो अच्छा लगता है.
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