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फिल्म रिव्यू: मर्द को दर्द नहीं होता

अपने ढंग की अनोखी, सुपर स्टाइलिश पिच्चर.

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फिल्मों में ऐसे प्रयोग होते रहने चाहिए.
1985 में मनमोहन देसाई की एक फिल्म आई थी जिसमें अमिताभ हीरो थे. फिल्म थी 'मर्द'. इसी फिल्म में दारा सिंह अपने अभी पैदा हुए बच्चे की छाती पर खंजर से मर्द लिख देते हैं. बच्चा मुस्कुराता है तो कहते हैं 'मर्द को कभी दर्द नहीं होता'. इस थॉट को टाइटल और ऐसी तमाम क्लीशे फिल्मों को प्रेरणा बनाकर एक एक्शन-कॉमेडी फिल्म बनाई गई है. बस फर्क इतना है कि इस मर्द को दर्द न होने की वजह दूसरी है.

'बे'दर्द ज़िंदगी

सूर्या नाम का एक लड़का है जिसकी ज़िंदगी से दर्द गायब है. फिर चाहे कोई हथौड़े से खोपड़ी खड़का दे या चक्कू घोंप दे. खून भले ही निकल आए दर्द, नहीं होता. सुनने में ये एक वरदान सा भले ही लगता हो लेकिन है एक बीमारी. सूर्या की मां नहीं है. वो अपने ओवर-प्रोटेक्टिव पिता और फुल सपोर्टिव नाना के साथ रहता है. सूर्या को नाना जी ने सिखा रखा है कि जब भी खून निकले 'आउच' बोलना है और थोड़े-थोड़े समय बाद पानी पीते रहना है.
अभिमन्यु का डेब्यू इम्प्रेसिव है.
अभिमन्यु का डेब्यू इम्प्रेसिव है.

अपनी अजीब मेडिकल कंडीशन की वजह से सूर्या को ज़्यादातर वक़्त घर में ही बिताना पड़ता है. सिर्फ एक ही चीज़ है जो उसकी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा कंज्यूम कर लेती है. वीडियो होम सिस्टम. सूर्या वीसीआर पर फ़िल्में देख-देखकर बड़ा होता है. एटीज़-नाइंटीज़ की फ़िल्में, मार्शल आर्ट वाली फ़िल्में, सुपरहीरो वाली फ़िल्में. वो खुद एक सुपरहीरो बनकर दुनिया से बुरे लोगों का नामोनिशान मिटा देना चाहता है. उसके इस विचार से इत्तेफाक रखती है उसकी पड़ोसन और दोस्त सुप्री. सुप्री, जो उसी की तरह एडवेंचरप्रिय है. वो सूर्या को स्कूल में बुली करने वालों से फुल पंगे लेती रहती है. फर्क सिर्फ इतना है कि उसे दर्द होता है. तारीफ़ ये कि वो 'आउच' नहीं बोलती.
उधर किसी दूसरी दुनिया में दो जुड़वा भाई भी रहते हैं. जिम्मी और मनी. एक भला, एक बुरा. एक मार्शल आर्ट ट्रेनर, एक गुंडा. जो भला है, वो सूर्या का रोल मॉडल है. सुप्री का मेंटर है. और उसी के लिए अपने हीरो-हीरोइन गुंडे भाई से भिड़ जाते हैं. क्यों, कैसे, किस तरह जैसे सवालों का बेहद स्टाइलिश ढंग से जवाब जानने के लिए फिल्म देखिएगा.
गुलशन कमाल का एक्टिंग टैलेंट हैं.
गुलशन कमाल का एक्टिंग टैलेंट हैं.

स्टाइलिश पिच्चर

'मर्द को दर्द नहीं होता' अपने ढंग की अनोखी फिल्म है. अनोखी इसलिए क्योंकि ये तमाम फ़िल्मी क्लीशे और सुपरहीरो वाली स्टीरियोटाइपिंग का मज़ाक भी उड़ाती है और उन्हें ट्रिब्यूट भी देती है. जैसा कि पहले भी कहा फिल्म बला की स्टाइलिश है. एक्शन धमाकेदार है और कॉमेडी पूरी तरह सिचुएशनल. फिल्म में कई बार हास्य ऐसी स्थिति से निकलकर आता है, जहां आप उसकी उम्मीद नहीं कर रहे होते. और इसी वजह से वो थोड़ा ज़्यादा गुदगुदाता है. कुल मिलाकर फिल्म चटख रंग, चमकीली रोशनी और तीखी चिंगारियों का कम्प्लीट पैकेज है. क्लाइमैक्स सीन तो बहुत ही ज़ोरदार है.

गुलशन देवैया शो

सूर्या के रोल में अभिमन्यु दासानी अपनी डेब्यू फिल्म में ही इम्प्रेसिव काम कर गए हैं. अभिमन्यु की एक पहचान ये भी है कि वो 'मैंने प्यार किया' वाली भाग्यश्री के बेटे हैं. अच्छी बात ये कि इस फिल्म के बाद ये उनका फर्स्ट इंट्रोडक्शन नहीं रहेगा. अभिमन्यु ने ए क्लास काम किया है. चौंकाती तो राधिका मदान हैं. 'पटाखा' के बाद उन्हें एक और दमदार रोल में देखना मज़ेदार है. एक्शन सीन्स तो उन्होंने बला की चपलता के साथ निभाए हैं. ख़ास तौर से उनकी एंट्री वाला फाइट सीक्वेंस, जहां बैकग्राउंड में पुराना गाना 'नखरेवाली' बज रहा होता है. वो जब-जब स्क्रीन पर होती हैं, उनपर से आंखें नहीं हटतीं. नाना बने महेश मांजरेकर के हिस्से बेहद फनी पंच लाइंस आई हैं और उन्होंने मज़े लेते हुए रोल निभाया है.
'पटाखा' के बाद राधिका की एक और धमाकेदार परफॉरमेंस है ये.
'पटाखा' के बाद राधिका की एक और धमाकेदार परफॉरमेंस है ये.

लेकिन शो-स्टीलर तो हैं अपने गुलशन देवैया. जुड़वां भाइयों के रोल में उन्होंने गर्दा काट दिया है. ख़ास तौर से गुंडे वाले पार्ट को निभाते वक़्त तो वो स्क्रीन पर आग ही लगा देते हैं. उनकी देहबोली, उनकी डायलॉग डिलीवरी ह्यूमर से सराबोर है और दर्शक दुआ मांगने लगते हैं कि उनके सीन्स और ज़्यादा हों.
माइनस पॉइंट्स के खाते में इतना ही कि सुप्री की बैक स्टोरी न तो एस्टैब्लिश होती है, न ही कन्विन्सींग लगती है. बाकी कई सीन्स से लॉजिक गायब है लेकिन वो इंटेंशनल है. डायरेक्टर वासन बाला की ये फिल्म अपने अनोखे ढंग से सिनेमा की विधा पर व्यंग और उसका सम्मान एक साथ कर दिखाने का कारनामा करती है. और यही बात फिल्म को बेहद दिलचस्प बनाती है. होली की एक्सटेंडेड छुट्टियों में ज़रूर-ज़रूर देखी जा सकती है.


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