अ डेथ इन अ गंज. नाम अंग्रेजी है. फ़िल्म के डायलॉग अंग्रेजी में हैं. डायरेक्टर बंगालन है. पहला डायरेक्शन है. कोंकणा सेन शर्मा की फ़िल्म. नॉन-मसाला. बिना आइटम डांस वाली फ़िल्म. गांव में रहने के दौरान वहां के घर में एक रस्म सी बन गई थी. सर्दियों में शाम होते ही बाबा जी आंगन में एक बड़ा सा तसला रख के उसमें लकड़ियां रखते थे. रखते भी ऐसे थे कि सजा रहे हों. कोई रंगोली क्या सजाता होगा जैसे वो लकड़ियां सजाते थे. उसके बाद उनमें आग लगा देते थे और वहीं एक टाट डाल के बैठ जाते थे. उनके बैठने के लिए तमाम व्यवस्थाएं की गईं, चौकी लाई गई, मोटी दरी लाई गई, छोटा वाला बाध की रस्सी का बुना मोढ़ा लाया गया, लेकिन उन्हें टाट पे बैठना ही सुहाया. वो बैठने की शुरुआत करते थे. लोग वहां उस आग के आस पास आते जाते थे. रात 8 (शहरों में इसे शाम 8 बजे कहा जाता है) बजे तक घर के सारे लोग वहीं बैठे मिलते थे. असली बैठकी उस दिन होती थी जिस दिन सिंघाड़े उबाले जाते थे. धनिया और लहसुन के पिसे नमक के साथ वो उबले सिंघाड़े दिव्य से कम कुछ भी नहीं थे. और वहीं उस आग की गरमी के बीच शुरू होता था कोई एक किस्सा. लम्बा किस्सा. इस किस्से में कितना हिस्सा मनगढ़ंत था, कितना तथ्य था, ये बताना उतना ही मुश्किल था जितना उन सिंघाड़े के छिलकों को देखकर ये बताना मुश्किल था कि किसने कितना खाया है. वो किस्सा देर रात तक खिंचता था. फिर उस किस्से से कुछ और निकल आता. बात अगर नासा के किसी स्पेसशिप से शुरू होती थी जो जाकर रूकती थी उस नाकारे किसान पर जिसने बाबा को फंसाने के लिए अपनी बांह पर अपने छोटे भाई से गोली मरवा ली थी. केस बाबा के मरने तक चला. अ डेथ इन अ गंज. 2 घंटे लम्बी फ़िल्म मुझे उसी आगे के किनारे बैठे सुनी कहानी लगी. कसर बची थी तो बस उन उबले सिंघाड़े और चटनी की. थियेटर में अगर उसका इंतज़ाम हो जाता तो आत्मा तृप्त हो जाती. 1980 के आस-पास की कहानी. लम्बे बाल. अमिताभ बच्चन स्टाइल. बेल-बॉटम वाली पैंट. येज़्डी बाइक. रम. बिना फिल्टर की सिगरेट. पद्मिनी कार. एक परिवार. परिवार का एक दोस्त. और एक बेहद ठंडी कहानी. रीढ़ की हड्डी कंपाने वाली ठंड. एक कहानी जो आपको पीछे ले जाती है और आप अपने आस-पास को उसी में पाते हैं. आप खुद को उसी में पाते हैं. आप गुस्सा होने लगते हैं इस फ़िल्म को लिखने वाले, डायरेक्ट करने वाले लोगों से कि कैसे उन्हें आपके बारे में सब कुछ इतनी गहराई में मालूम है. मैकलस्कीगंज के एक बंगले में एक परिवार रहने के लिए आता है. एक हफ़्ते के लिए. इसी एक हफ़्ते की कहानी है अ डेथ इन अ गंज. ओम पुरी अपनी पत्नी के साथ उस बंगले में रहते हैं. वो मेज़बान हैं. नंदू, बॉनी और उनकी बेटी तानी के साथ शुटू और मिमी उस घर में आये हैं. नंदू के बचपन का दोस्त विक्रम और ब्रायन.

ये घर एक नॉर्मल घर जैसा था. यहां कुछ भी नहीं हो रहा था फिर भी बोरिंग नहीं था. यहां सब चुप थे लेकिन घर में एक शोर गूंज रहा था. यहां सब कुछ रुका हुआ था. लेकिन हर किसी के बीच बहुत कुछ चल रहा था. कबड्डी का खेल, भूत बुलाने की सभा, पिकनिक. नॉर्मल रूटीन. लेकिन नॉर्मल फैमिली की ही तरह कितना कुछ था जो दबा हुआ था. फटने को तैयार. इसी फटने की कहानी - 'अ डेथ इन अ गंज.' फ़िल्म का एक कैरेक्टर है - शुटू. ये आप हैं और मैं हूं. इस लड़के को परेशान किया जा रहा है, बुली किया जा रहा है. पढ़ाई के साथ लाइफ़ में भी फ़ेल हो रहा है. उसमें आप खुद को पाते हैं. ये आपको अपने जीवन के किसी एक घंटे, दिन, हफ़्ते, महीने, साल की याद दिलाता है. शुटू का रोल किया है विक्रांत मैसे ने. मिमी के रोल में हैं कल्की और विक्रांत के रोल में हैं रणवीर शोरे.

इस फ़िल्म के लिए सबसे ज़्यादा वाहवाही की जानी चाहिए कोंकणा सेन शर्मा की. इस फ़िल्म की कहानी और डायरेक्शन के लिए. ऐसी फिल्मों की अथाह कमी है हमारे यहां. बल्कि ये कहा जाए कि उनकी मौजूदगी नहीं है. ये कहानियां कहीं किसी डायरी, किसी नोटपैड में कैद हैं. उन्हें बाहर आना बहुत ज़रूरी है. हमारी आंखों के लिए ही नहीं, इस दिमाग के लिए भी. हम शीला की जवानी देख के उकता चुके हैं. डेथ इन अ गंज देखा जाना ज़रूरी है. ये वो बूटी है जिसके लिए हनुमान द्रोंणगिरी पर्वत ही उठा के ले आये थे. https://www.youtube.com/watch?v=XliKkuxa_nA
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