Dhanush की फिल्म Captain Miller रिलीज़ हो चुकी है. अरुण माथेसवरन फिल्म के राइटर और डायरेक्टर हैं. ‘कैप्टन मिलर’ पोंगल रिलीज़ है. ‘गुंटूर कारम’, ‘हनुमान’, ‘आयलान’ और ‘मेरी क्रिसमस’ जैसी फिल्मों के सामने रिलीज़ हुई है. कुल मिलाकर जनता के पास थिएटर जाकर देखने के लिए कई ऑप्शन हैं. ऐसे में ‘कैप्टन मिलर’ बेस्ट ऑप्शन है या नहीं, जानने के लिए एक सांस में रिव्यू पढ़ डालिए.
मूवी रिव्यू - कैप्टन मिलर
धनुष एक बागी बने हैं. नाम है मिलर. अंग्रेज़ सरकार ने उसके सिर पर 10,000 का ईनाम रखा है. वो अंग्रेज़ी अफसरों को मारता है. वांटेड वाले पर्चे पर उनके खून से अपने नाम के आगे 'कैप्टन' लिखता है.

फिल्म की कहानी 1930 के दशक में सेट है. अंग्रेज़ पुलिस को एक आदमी की तलाश है. उसके सिर पर 10,000 रुपए का ईनाम है. उस आदमी का नाम है ‘मिलर’. ये बंदा अंग्रेज़ पुलिस वालों को ढूंढकर मारता है. फिर उनकी जेब से अपना वांटेड वाला पर्चा निकालता है. उनके खून से अपनी उंगलियों को रंगता है. पर्चे पर मिलर के आगे ‘कैप्टन’ लिख कर हवा में गायब हो जाता है. घटना देखने वाले इसी सोच में पड़ जाते हैं कि उसने पुलिस वालों को क्यों मारा? उसकी कोई निजी दुश्मनी थी या बस बस नाम के आगे कैप्टन नहीं लिखा था. मिलर के गुस्से की वजह इन बातों से कई ज़्यादा गहरी है. वो सिर्फ अंग्रेज़ों का ही दुश्मन नहीं. जिस गांव में पला-बड़ा, वहां से भी निकाला जा चुका है. कौन है ये ‘कैप्टन मिलर’, जो एक वक्त पर जवान ईसा था. ब्रिटिश मिलिट्री में शामिल हुआ और फिर जाकर उन्हीं का दुश्मन बन गया, फिल्म इस व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द बने ऐसे सभी सवालों के जवाब देने की कोशिश करती है.
# रिबेल विद अ कॉज़
‘कैप्टन मिलर’ एंटरटेनिंग मासी फिल्म है. बीते कुछ समय से ऐसी फिल्में अपने चरम पर हैं, जहां हीरो गुस्से में मारकाट मचा रहा है. बस अधिकांश फिल्मों के साथ समस्या ये है कि वहां हीरो के गुस्से की कोई ठोस जड़ नहीं. वो खोखला है. ‘कैप्टन मिलर’ के केस में ऐसा नहीं. मिलर के ऐसा वहशी बनने के पीछे ईसा नाम का लड़का है. वो ईसा जिसने एक लड़की से पहली नज़र का प्रेम किया. कसम खाई कि वो ना करेगी तो ब्रिटिश मिलिट्री में नाम लिखवा दूंगा. अंग्रेज़ों का सिपाही बन जाता है. अंग्रेज़ अधिकारी उसका नाम ठीक से नहीं बोल सकते. तो नाम मिलर रख देते हैं.

ईसा एक पिछड़े समुदाय से लगता है. वहां के राजा और उनके पूर्वज लगातार दमन करते रहे. उन लोगों से अपने भव्य मंदिर बनवाते हैं और फिर उन्हें ही अंदर पैर नहीं धरने देते. फिर अंग्रेज़ आए. ईसा और उसके लोगों को लगा कि अब चीज़ें बदलेंगी. यही सोचकर उसने अंग्रेज़ों के लिए हथियार उठाए. लेकिन उसका ये सोचना गलत था. अंग्रेज़ अधिकारी मासूम लोगों पर गोली चलवाते हैं. पूरे नरसंहार के बाद मिलर खुद को कांपते हुए पाता है. अब ईसा पूरी तरह मर चुका है. मिलर का जन्म होता है. वो मिलर जो इस तरह ज़िंदगी जीता है कि अपने आखिरी दिन को खींचकर पास बुला रहा हो. जो लोग उसके हाथों मारे गए, उनकी गिल्ट उसे अब कभी पहले जैसा नहीं रहने देगी. यहीं से उसका गुस्सा पनपता है.
‘कैप्टन मिलर’ ठहराव वाली फिल्म नहीं. जहां आप लंबी देर तक किरदारों को बिना डायलॉग के देखते हैं. उनके साथ जो हुआ, बस वो उसके अफेक्ट को सोखने की कोशिश कर रहे हैं. ये वैसी फिल्म नहीं. एंटरटेनमेंट वैल्यू बनाए रखने के लिए सब कट-टू-कट निकालना है. यही वजह है कि किरदारों के आदर्श, उनकी फिलॉसफी को फिल्म बस चंद डायलॉग में निकाल देती है. जैसे एक जगह मिलर अपने बागी ग्रुप की एक लड़की को कहता है कि ये दुनिया छोड़ दो. शादी कर लो. यहां से बाहर निकलो. इस पर वो लड़की टोकती है कि क्या शादी से सब सही हो जाएगा? मिलर उसका तंज समझ जाता है. वो सफाई देता है कि मैं घटिया किस्म का आदमी नहीं. यही वजह है कि मैं बर्तन साफ कर रहा हूं और तुम राइफल. ये डायलॉग अपने आप में ठीक लगता है. बस फिल्म में कहीं भी मिलर का वो पक्ष देखने को नहीं मिलता जहां ये बात सार्थक हो पाती.
# सब कट-टू-कट क्यों निकालना है?
बड़ी फिल्मों के एक्शन सीक्वेंस उनके स्केल को ऊपर ले जाने का काम करते हैं. एक सॉलिड एक्शन सीक्वेंस से किसकी रगों में खून गर्म नहीं हो जाता. फिल्म में दो बड़े एक्शन सीक्वेंस है – एक कमाल है और दूसरा झिलाऊ किस्म का. फिल्म में एक सीक्वेंस है जहां मिलर और उसकी गैंग को एक ट्रक लूटना है. वहां वो पूरे टाइम बाइक पर एक्शन करता है. ये फिल्म के सबसे तगड़े सीन्स में से एक है. दूसरी ओर है फिल्म का क्लाइमैक्स. वो पूरी फिल्म को नीचे ले जाता है. आमतौर पर एक्शन सीक्वेंसेज में कट-टू-कट काम चलता है. यानी एक शॉट की एवरेज लंबाई दो सेकंड की होती है. ऐसा ये दर्शाने के लिए किया जाता है कि कहानी में बहुत कुछ घट रहा है.

इतने तेज़ कट्स के साथ समस्या ये है कि आपका अटेंशन खींचकर नहीं रख पाते. खासतौर पर जब सीन लंबा-चौड़ा हो. लंबे सीन में अगर जल्दी-जल्दी कट्स आते रहेंगे तो आपका ध्यान एक जगह नहीं टिक सकता. एक पॉइंट पर आपको फर्क पड़ना बंद हो जाता है कि कौन किसे और क्यों मार रहा है.
फिल्म का पहला हाफ आपको बांधकर रखता है. बस दूसरे हाफ में मामला फैलने लगता है. कई सारे किरदार एक साथ आकर मिलते हैं. फिल्म के दूसरे हाफ में कांट-छांट की जा सकती थी. फिल्म में एक्टिंग के लिहाज़ से ज़्यादा स्कोप नहीं था. फिर भी धनुष अपना पार्ट कर जाते हैं. वो किरदार के हर फेज़ के साथ न्याय कर पाते हैं. ओवर द टॉप नहीं जाते. एक सीन है जहां ईसा अपने अपराधों के लिए कांप रहा होता है. उस सीन से बस यही शिकायत है कि वो इतना छोटा क्यों था. धनुष ने ऐसा काम किया है.
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