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बिहार का लक्ष्मणपुर बाथे, जहां 23 साल पहले 58 दलित एक साथ मार दिए गए थे

वो आज तक विकास की आस में है.

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ये जगह है लक्ष्मणपुर बाथे. आज़ाद भारत में हुई सबसे भीषण जातीय हिंसा की घटनाओं में से एक यहीं हुई थी.
दक्षिणी बिहार का अरवल जिला. एक समय जहानाबाद में पड़ता था. यहां पर शहर के वलिदाद बाज़ार से एक सड़क निकलती है दाईं ओर. वहां रुक कर किसी से भी पूछिए- लक्ष्मणपुर बाथे कहां है. यहां पर लोगों को किलोमीटर तक रट चुके हैं. कई गाड़ियां अक्सर रुक कर इस नाम का पता पूछती हैं. रहवासियों को आदत हो गई है. 23 साल से यहां हर चुनावी सीजन में लोग आते हैं. कच्चे रास्तों से होते हुए गाड़ियां लगती हैं. तीन फट्टों के बने हुए पुल पार कर लोग उस तरफ पहुंचते हैं. जिस ज़मीन के हिस्से की कहानी अख़बारों में अनगिनत बार छप चुकी है. लेकिन समय शायद अख़बारों की उन्हीं तारीखों पर अटक कर रह गया है.
ये जगह है लक्ष्मणपुर बाथे. आज़ाद भारत में हुई सबसे भीषण जातीय हिंसा की घटनाओं में से एक यहीं हुई थी. रिपोर्ट्स के मुताबिक, यहां 1 दिसंबर, 1997 को रणवीर सेना के लोगों ने 58 दलितों की हत्या कर दी थी. उन सभी के नाम गांव में बने एक स्मारक पर लिखे हुए हैं. इसमें सबसे छोटे मृतक की उम्र एक साल है.
ये लक्ष्मण हैं. 23 साल पहले हुए नरसंहार के इकलौते गवाह जो बचे हुए हैं. उस नरसंहार में उनकी पत्नी, बहू और बेटी की मौत हो गई थी. ये लक्ष्मण हैं. 23 साल पहले हुए नरसंहार के इकलौते गवाह जो बचे हुए हैं. उस नरसंहार में उनकी पत्नी, बहू और बेटी की मौत हो गई थी.

गांव में अंदर जाते ही आपको लक्ष्मण मिलते हैं. बाल सफ़ेद हो गए हैं. मुंह में दांत मुश्किल से कुछ ही बच पाए हैं. लेकिन बात करने की गरज से पहुंचे लोगों को निराश नहीं करते. देखते ही कहते हैं:
"हमार के सुनतई? कनून हमरा ला नईखे न हई."
मगही में अपनी व्यथा सुनाते लक्ष्मण बताते हैं कि उस दिन हुए नरसंहार में उनके घर में तीन हत्याएं हुईं. एक उनकी पत्नी, एक बहू और एक लड़की की. वो भाग कर छुप गए, तो बच गए. महिलाओं ने कहा, 'हमने गलत कुछ नहीं किया. हम क्यों भागें’. नहीं भागीं. मार दी गईं.
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रिपोर्ट्स के मुताबिक यहां 1 दिसंबर 1997 को रणवीर सेना के लोगों ने 58 दलितों की हत्या कर दी थी.

पोपले मुंह से ये कहानियां सुनाते लक्ष्मण की आंखों में लगी कीची नम हो उठती है. जैसे सालों पुराना ज़ख्म सूखने की हद तक भी न पहुंच पाया हो. लक्ष्मण बताते हैं कि यहां आ कर रिपोर्ट लिखने वाले लोगों को यहां के बारे में कुछ नहीं पता. लक्ष्मण कहते हैं:
"कुछो न जानाहथी लोगन. कलम किताब लेके आवहथिन, अऊ अपन मरजी से जौन लिखे के इच्छा होवाहई तौन लिखहथिन. गाय के बैल लिखहथिन."
विकास कब होगा?
बाथे तक पहुंचने की सड़क टूटी-फूटी है. कई जगहों पर रास्ता बेहद पतला हो जाता है. एक कोने पर सोलर लाइट लगाई गई. जो अपने लगने वाले दिन कुछ घंटे जली, उसके बाद से बंद पड़ी है. इसी गांव से होकर एक नहर बहती है जिससे लोग खेतों की सिंचाई करते हैं. शिकायत है कि विधायक जी ने नहर पर कंस्ट्रक्शन करवा कर पानी आना बंद करवा दिया. अब ये पानी उनकी ससुराल मखदूमाबाद जाता है. गांववालों को नहीं मिलता.
ये आरोप लगाते हुए पान की दुकान पर खड़े चार-पांच लोग खीझते हैं. कहते हैं, 600 से भी ज्यादा बच्चों के लिए दो टीचर हैं. कैसे पढ़ेंगे बच्चे. क्या लक्ष्मणपुर बाथे सिर्फ नरसंहार के नाम से ही याद किया जाता रहेगा? लोग पूछते हैं कि विकास कब होगा. उनकी मांग है, ये सरकार बदलनी चाहिए.
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लक्ष्मणपुर बाथे के लोगों को इंतज़ार है कि 23 साल पुरानी बातों को भूल कर अब आगे की बात की जाए.

ऐसा नहीं है कि लक्ष्मणपुर बाथे में सब कुछ ही अंधियारा है. लक्ष्मण के ही परिवार की बात ले लें. मुश्किल से पंद्रह-सोलह साल की पूजा कुमारी ने अभी बीए का फॉर्म भरा है. ये लक्ष्मण को बाबा कहती हैं. ऑनलाइन फॉर्म भरा है , रिजल्ट आने पर कॉलेज में पढ़ाई करने जायेंगी. आर्ट्स पढ़ने वाली हैं. उनकी मां सुमित्रा देवी रोज़ सोन नदी के पास उगने वाली घास काटने जाती हैं. जो पैसे मिलते हैं, उनसे घर का सामान खरीदने में थोड़ी बहुत मदद हो जाती है. कहती हैं, बेटी को पढ़ाएंगी. लिखाएंगी. जब लायक बनेगी, नौकरी करेगी, फिर शादी करेगी. अपनी गंवई ऐंठ के साथ सुमित्रा देवी बताती हैं कि शादी ज़रूरी नहीं. पढ़ाई-लिखाई ज्यादा ज़रूरी है. पूजा सुनते हुए दांत चियार देती है.
सोन नदी अमरकंटक से निकलकर पटना से कुछ पहले गंगा में मिल जाती है. इसका नाम सोन इसलिए पड़ा क्योंकि इसके किनारे की बालू खूब मोटे दाने वाली और चमकदार है. ढलाई वगैरह के लिए यहां से ये बालू ले जाई जाती है अक्सर. इसी सोन नदी के किनारे बसे लक्ष्मणपुर बाथे के लोगों को इंतज़ार है कि 23 साल पुरानी बातों को भूल कर अब आगे की बात की जाए. विकास के सवाल पूछे जाएं. सड़कों और स्कूलों की बात हों. नहरों और लाइटों की बात हो.
"जहां 58 मारे, वहां एकाध और सही"
लेकिन लक्ष्मण कैसे भूलें. जो मामले के इकलौते गवाह बचे हैं. बताते हैं कि उन्हें 70 से 75 लाख रुपए तक देने की बात कही गई थी गवाही वापस लेने के लिए. कुर्सी पर बैठे लक्ष्मण बिना हिचके बताते हैं. कि उनसे आज भी उनसे धमकी भरे स्वर में कहा जाता है, जहां 58 मारे, वहां एकाध और सही. जब उससे छूट गए, तो इससे क्या ही होगा. 2013 में पटना हाई कोर्ट ने सभी आरोपियों को साक्ष्यों के अभाव में बरी कर दिया था.
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2013 में पटना हाई कोर्ट ने लक्ष्मणपुर बाथे में हुए नरसंहार के सभी आरोपियों को साक्ष्यों के अभाव में बरी कर दिया था.

लक्ष्मण से पूछने पर कि क्या आपको डर नहीं लगता, तब वो कहते हैं, "डर काहे न लागहई. एकदम लागहई. लेकिन का करतई आदमी. लड़े त पड़बे करतई." (डर तो लगता है. क्यों नहीं लगेगा. लेकिन आदमी को लड़ना तो पड़ेगा ही न.)
कई संघर्षों का ध्येय वाक्य. जहां उतर जाए, सटीक ही लगता है.