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बरेली में झुमका गिरने की कहानी के बारे में जानना है तो यहां पढ़िए

बरेली का पूरा इतिहास खनखनाहट भरा है.

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झुमका गिरा रे, बरेली के बाजार में. सास मेरी रोये, ननद मेरी रोये. सैंया रोये रे गले में बंइया डाल के.

सच या झूठ, कहा जाता है कि बैरक में झुमका नाम का एक सिपाही था. बरेली के बाजार में मार दिया गया था. तभी से ये निकला था- झुमका गिरा रे. बरेली को पांचाल भी कहा जाता था. द्रौपदी को पांचाली. ये भी कहा जाता है कि द्रौपदी भी झुमके पहनने की शौकीन थीं, वहीं से झुमका गिरा रे फ्रेज आया था.

सेब न्यूटन के लिए गिरा था, झुमका प्रेमियों के लिए गिरा था. पर ये झुमका बहुआयामी अर्थ रखे हुए है. इसकी वही महत्ता है जो सरकार गिरने की होती है, सेंसेक्स गिरने का होता है. ये झुमका भारत की इकॉनमिक व्यवस्था को दिखाता है. झुमका गिरा मतलब सोने का भाव गिरा. सास मेरी रोये, ननद मेरी रोये मतलब प्राइम मिनिस्टर से लेकर फाइनेंस मिनिस्टर तक सब रो रहे हैं. सैंया रोये रे गले में बंइया डाल के. 1966 में बनी फिल्म मेरा साया में साधना के ऊपर ये गाना फिल्माया गया था. पर गीत में बरेली के बाज़ार का ज़िक्र क्यों आया? जबकि फ़िल्म की कहानी में दूर दूर तक बरेली का ज़िक्र नहीं है. पर इसके साथ एक कहानी है. बात उन दिनों की है जब दादा बच्चन, यानी कि मशहूर साहित्यकार हरिवंशराय बच्चन, और तेजी बच्चन एक दूसरे के नज़दीक आ रहे थे. ये दोनों लोग बरेली में रुके थे उस वक्त. एक शादी में आए थे. एक दिन इन लोगों से पूछा गया कि कब तक ये चलेगा. भाई अब तो अपना प्यार स्वीकार कर लो. तो तेजी बच्चन ने कह दिया कि मेरा झुमका तो बरेली के बाजार में गिर गया. इस क़िस्से से राज मेहंदी अली खान साहब भी अच्छी तरह से वाक़िफ़ थे. मंटो के भी दोस्त थे मेहंदी. तो जब मेरा साया के गीत लिखने की बारी आई तो उन्हें अचानक यह क़िस्सा याद आ गया और उन्होंने गीत में हीरोइन के झुमके को बरेली में ही गिरा दिया. झुमका यूं ही फेमस नहीं है. हर शादी शुदा आदमी जानता है इसकी कीमत. किसी शादी में निकलने से पहले पति-पत्नी दोनों तैयार हो रहे होते हैं. पति पहले तैयार होकर घर से बाहर निकल जाता है. पत्नी साथ निकलने का उपक्रम करती है. फिर अचानक घर के अंदर चली जाती है. कुछ देर बाद पति जब अंदर आता है तो देखता है कि पत्नी सजी-धजी पर पलंग के नीचे घुसी रहती है. क्योंकि झुमका खो गया होता है. पति हंस देता है तो वो नाराज हो जाती है कि खोजने के बजाए दांत दिखा रहे हो. झुमका कोई मामूली चीज नहीं है. झुमके का पहना जाना और उतारा जाना दोनों ही एरोटिक और कमनीय चीजें हैं. झुमका स्किल को दिखाता है कि बिना देखे अपने शरीर में कोई धातु लगा लें. अगर ये झुमका गिर गया, तो समझो चांद गिर गया. वो भी तो इस यूनिवर्स का झुमका ही है. ये वही लाइन है जो तीसरी कसम में आशा ने गाई थी-हाय गजब कहीं तारा टूटा. ये तारा वही झुमका है, धूमकेतु है. डिमॉनीटाइजेशन में पता नहीं क्या हुआ है झुमके का. नरेंद्र मोदी 2016 में बरेली पहुंचे तो इस गाने का जिक्र कर रहे थे. लोग शहर में आते हैं तो झुमके के बारे में पूछते हैं, पर कुछ मिलता नहीं. बात हो रही है कि शहर के डेलापीर चौराहे पर 14 मीटर का झुमका लगाया जाएगा. बरेली का इतिहास बहुत खनखनाहट भरा है रामगंगा नदी के किनारे बसा है ये. रोहिलखंड नाम के काल्पनिक राज्य की राजधानी. लखनऊ से 252 किमी और दिल्ली से 250 किमी. मतलब यहां से कोई प्रधानमंत्री की तरफ भी देख सकता है, मुख्यमंत्री की तरफ भी. बराबर प्यार से. किसी ने खूब कहा है- लखनऊ सिर, पेट देहली और दोनों का दिल बरेली इसे बांस बरेली भी कहा जाता है. यहां बांस का फर्नीचर बनता है, पर वजह ये नहीं है. नाम तो 1537 में राजा जगत सिंह कथेरिया के बेटे बंसलदेव और बरलदेव के नाम पर पड़ा था. इतिहास में यहीं पांचाल क्षेत्र था. द्रौपदी यहीं से थीं. पांचाली. बरेली के अहिक्षेत्र में बुद्ध आए थे. तुर्कों के आने तक क्षत्रिय राजा राज करते थे. बाद में ये मुगल राज्य में मिल गया. अंग्रेजों के राज में यहां पर मिंट भी थी. सिक्के बनते थे. टेराकोटा के मास्टरपीस भी अहिक्षत्र से मिले हैं. इनके ही आधार पर पता चलता है कि 2000 साल ईसा पूर्व से इतिहास है बरेली का. इस शहर का नाम आया बदायूंनी की किताब में. उसने लिखा था कि 1568 में हुसैन कुली खान को बरेली और संभल का गवर्नर बनाया गया. टोडरमल यहां का टैक्स फिक्स करने आते थे. अबुल फजल ने लिखा है ये. कहा तो ये भी जाता है कि आधुनिक बरेली शहर के निर्माता थे मकरंद राय. 1657 में किया था.
बरेली में पांचाल नरेश सिक्के बनवाते थे. बाद में कुषाण और गुप्त वंश के लोग भी यहीं पर सिक्के ढलवाते थे. कुषाण वंश के गोल्ड सिक्के तो अभी भी मशहूर हैं. बाद में इल्तुतमिश और शेरशाह सूरी से लेकर मुगल वंश तक के सिक्के यहीं बने. अकबर आंवला की टकसाल में बनवाता था. अफगानी आक्रांता अहमद शाद दुर्रानी ने भी आंवला में ही बनवाया था. रोहिल्ला सरदार हाफिज रहमत और बाद में अवध के नवाब असफादुद्दौला सबने सिक्के ढलवाये. असफा के सिक्कों पर बरेली, बरेली असफाबाद, बरेली की पतंग और मछली के चिह्न भी थे. फिर अंग्रेज आये. उन्होंने भी यहीं सिक्के ढलवाये. 1857 में खान बहादुर खान ने भी ढलवाये. पर 1857 के बाद इस शहर में सिक्के ढलने बंद हो गये. पर 2 हजार साल का इतिहास रहा है बरेली का सिक्के ढालने का.
इतिहास तो यहां बहता है. आदिकाल से लेकर मध्ययुग तक. और औरंगजेब से लेकर अंग्रेजों तक. अहिक्षत्र आंवला के रामनगर गांव में मिला है. उसके रिमेंस हैं वहां पर. 1940 के आस-पास हुई खुदाई में बर्तन मिले थे. गुप्त वंश के सिक्के भी मिले थे. कठेरिया राजपूतों के विद्रोह के चलते औरंगजेब ने यहां पर अफगानों को बसाना शुरू किया था. यहां के राजपूत रोहिल्ला राजपूत कहे जाते थे. अफगान रोहिल्ला अफगान कहे जाने लगे. रोही मतलब आक्रामक. आरोही मतलब चढ़ता हुआ. अवरोही मतलब उतरता हुआ. रोहिल्ला मतलब शूरवीर. पश्तो में रोह का मतलब पहाड़ होता है. रोहिल्ला इससे भी बना. 1702 से 1720 तक रोहिलखंड में रोहिल्ले राजपूतों का शासन था, जिसकी राजधानी बरेली थी. रोहिल्ले राजपूतों ने सहारनपुर-बरेली के बॉर्डर पर एक किला बनवाया था जिसे अंग्रेजों ने जेल बना दिया. वही आज भी सहारनपुर में जिला जेल है. युद्ध में कमानी की तरह (रोह चढ़ाई करके) शत्रु सेना को छिन्न - भिन्न करने वाले को रहकवाल, रावल, रोहिल्ला, महाभट्ट कहा गया है. औरंगजेब की मौत के बाद अफगान शहर को लूटने लगे थे. मुगल साम्राज्य के टूटने के बाद रोहिलखंड से कई सारे पठान यहां आ गए. पर अंग्रेजों के वक्त यहां पर नवाबी खत्म हो गई. और स्थिति बहुत खराब हो गई. बहुत सारे रोहिला मुस्लिम यहां से सूरीनाम और गुयाना में बंधुआ मजदूर बनकर चले गए. 1761 के पानीपत की तीसरी लड़ाई में रोहिलखंड ने मराठाओं को नॉर्थ इंडिया में घुसने से रोक दिया था. तो 1772 में मराठाओं ने बरेली पर हमला किया था. बाद में अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने इसे जीत लिया था. आखिरी रोहिल्ला राजा बारेच 1774 में मारा गया. फिर शुजा के हाथ में ये शहर आ गया. बाद में असफाद्दौला यहां का नवाब बना. तो असफाबाद नाम से एक टाउन बनाया था. अंग्रेजों के टाइम में स्थिति नाजुक थी. यहां पर एक बड़ा ही कुख्यात मजिस्ट्रेट डेंबेलटन हुआ करता था 1814 के आस-पास. टैक्स को ले के झंझट हुई. 300-400 लोग मारे गए. बाद में बरेली के सारे काम करने वालों, उनके टूल्स, प्रोडक्शन, उनकी शक्लें और कपड़े सब डाक्यूमेंट किये अंग्रेजों ने. उस वक्त शीशे का काम, जूलरी, ग्लास और लाख की चूड़ियां, चारपाई बनाना, कबाब इन्हीं चीजों का कारोबार होता था यहां. 1857 में यहां पर क्रांति हुई. 10 मई 1857 को मेरठ में शुरू हुआ विद्रोह यहां पर भी पहुंचा. इसकी आग पेशावर तक पहुंची थी. हाफिज रहमत खान के पोते खान बहादुर खान रोहिल्ला ने बरेली में 1857 में अपनी सरकार बना ली. एक स्वतंत्र शासक की तरह अपने सिक्के भी बनाने शुरू कर दिए. खान बहादुर खान ने शोभा राम दीवान, मादर अली खान, नियाज मुहम्मद खान और होरी लाल को अपना मंत्री बना लिया था. पर संग्राम खत्म भी हुआ. क्योंकि कोई विजन नहीं था. बस पुराने राज को क्लेम करने की जल्दबाजी थी. 24 फरवरी 1860 को खान बहादुर खान को मौत की सजा हुई. नवाब एक पुलिस स्टेशन में लटका दिया गया. ये बादशाहियत और नए दौर के कानून का अनोखा संगम था. क्या कोई सोच सकता था कि शासन कर रहे नवाब को पुलिस थाने में फांसी होगी? बरेली में तीन अंग्रेज अफसरों को मार दिया गया था. इसके बदले में अंग्रेज भड़क गये ते. हर थाने और जेल के बाहर कोड़ा मारने का और फांसी देने का जुगाड़ बनाया गया था. क्रांति खत्म हो गई थी पर गुस्सा खत्म नहीं हुआ था. ट्रायल चल रहा था 'देशद्रोहियों' का. इंडिया के लिये ये क्रांतिकारी थे. ट्रायल के जज की बीवी भी क्रांति के दौरान मारी गई थी. जज इतने गुस्से में था कि अपने सार्जेंट डेविड को बोला- अगर मुझे इन काले लोगों पर फैसला करने को मिला तो मेरी बीवी के सिर में जितने बाल हैं, उतने कालों को फांसी दे दूंगा. डेविड ने पूछा कि आपने कितने लोगों को फांसी दी है. तो जज ने कहा कि अभी तक तो मैंने 700 को दे दिया है. (किताब- मार्शल रेसेज से) लंदन टाइम्स ने 1860 में रिपोर्ट किया था कि इस जज को फांसी तो मिलनी ही चाहिए. मिली भी. झूठा सच लिखने वाले यशपाल यहीं की जेल में बंद थे. 7 अगस्त 1936 को यशपाल ने जेल में ही शादी की. भारत की जेलों में ये पहली शादी थी. बरेली सेंट्रल जेल इस बात का दावा ठोंक सकती है. 19वीं सदी से ही बरेली रेल से जुड़ा हुआ है देश के प्रमुख शहरों से. खिलाफत के दौरान गांधी बरेली में दो बार आए थे. 1942 में बरेली सेंट्रल जेल में नेहरू, रफी अहमद किदवई, महावीर त्यागी, मंजर अली सोखता, मौलाना हिफाजुल रहमान सब बंद थे. यहीं पर हुआ था बरेलवी मूवमेंट बरेलवी शब्द सुन्नी हनफी मूवमेंट के लिए इस्तेमाल किया जाता है. अहमद रजा खान ने इसकी शुरुआत की थी. बरेलवी तो मीडिया बोलता है, ये लोग खुद को अहले सुन्नत वल जमात कहलाना पसंद करते हैं. ये लोग शरिया और सूफी को मिला देते हैं. इसलिए इनको सूफी भी कहा जाता है. देवबंदी तो वहाबी आंदोलन से निकले थे. अहले सुन्नत वल जमात- मुहम्मद की परंपरा के लोग. बरेलवी मूवमेंट इंडिया के इस्लाम को दिखाता है. अद्भुत चीज है. हर चीज को मिलाकर चलाता है. पर ये लोग गांधी के आंदोलन को सपोर्ट नहीं करते थे. इंडिया टुडे के मुताबिक इंडिया में बरेलवी मुसलमान ही ज्यादा हैं. बरेलवी मुसलमानों ने तालिबान की आलोचना की थी. जो मुसलमानों के लिए काबा है, वो बरेलवी मुसलमानों के लिए बरेली है. काबा भी है, पर बरेली भी महत्वपूर्ण है. एक बरेलवी सरफराज अहमद नईमी ने कहा था कि सुसाइड बॉम्बर नरक में जाएंगे. उनको स्वर्ग नहीं मिलेगा. नईमी को एक सुसाइड बॉम्बर ने मार दिया था. अंग्रेजों के वक्त जब मुस्लिम मोराल गिरने लगा था, नवाबियत खत्म हो रही थी, कारीगरों का धंधा बंद हो रहा था, तब अहमद रजा खान ने इस आंदोलन की शुरुआत की. सूफी शब्द को वापस लाए. इस्लाम में. आज इंडिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, श्री लंका, साउथ अफ्रीका, यूएस, यूके सबमें बरेलवी मुसलमान हैं. शुरुआत में ये आंदोलन गांवों से जुड़ा था, बाद में शहरों से भी जुड़ गया. अहमद रजा खान ने 1000 किताबें लिख दी थीं. फिलॉसफी, अल्जेबरा, लॉगेरिथ्म, हदीथ, एस्ट्रोनमी, किताबों के रिव्यू, ज्योमेट्री, कुरान की तफसीर सब लिखा था. लेखक, कवि, सूफी, मुफ्ती सब थे वो. अहमद रजा भी पठान थे. उनका बचपने में नाम मुहम्मद था. वो साइन करते वक्त अब्दुल मुस्तफा लिखते थे. मतलब मुस्तफा का गुलाम. मुस्तफा मतलब मुहम्मद साहब. अहमद रजा को आला हजरत कहा जाता था.
मुहम्मद इकबाल ने अहमद रजा के बारे में कहा था- अगर इनका टेंपर हाई नहीं रहता तो ये अपने वक्त के इमाम अबू हनीफा होते. हनीफा को बहुत बड़ा समझदार माना जाता था.
अहमद रजा की दरगाह है बरेली में. इसका डिजाइन हजरत शाह महमूद जान कादरी ने दियासलाई से बनाया था. आला हजरत ने वहाबियों के खिलाफ 300 किताबें लिखी थीं. उन्होंने उस वक्त ही कहा था कि वहाबी पूरी दुनिया के लिए खतरा बन जाएंगे. बरेली की मशहूर चीजें 1. आंखों की चमक बढ़ाने वाला सुरमा यहां पर 200 साल से बनता है. 200 साल से पहले दरगाह-ए-आला हजरत के पास नीम वाली गली में हाशमी परिवार ने शुरुआत की थी. अब सिर्फ एक कारखाना है, जिसे एम हसीन हाशमी चलाते हैं. पूरी दुनिया में सुरमा यहीं से सप्लाई होता है. सुरमा बनाने के लिए सऊदी अरब से कोहिकूर नाम का पत्थर लाया जाता है. इसे छह महीने गुलाब जल में फिर छह महीने सौंफ के पानी में डुबो के रखा जाता है. सुखने पर घिसाई की जाती है. फिर इसमें सोना, चांदी और बादाम का अर्क मिलाया जाता है. 2. बरेली के सिविल लाइंस में स्ट्रीट फूड मशहूर है. त्यागी रेस्टोरेंट, दीनानाथ की लस्सी, चमन चाट, छोटे लाल की चाट. मिट्टी के बर्तन में लस्सी. दीनानाथ कुछ ऐसे बनाते हैं जैसे को न्यूरोसर्जन या कार्डियाक सर्जन ऑपरेशन कर रहा हो. खा-खा के पेट भर जाए तो टैक्सी कर लो. 3 घंटा लगेगा, नैनीताल पहुंच जाओगे. सैटरडे-संडे छुट्टी है तो जिम कार्बेट चले जाओ. 3. बरेली के ही मदरसों ने आईएसआईएस के खिलाफ फतवा जारी किया था. देवबंद और दरगाह-ए-आला-हजरत, दोनों सुन्नी सेक्ट हैं, ने ही ये किया था. इन लोगों ने 2008 में आतंक के खिलाफ फतवा जारी किया था. कहा था कि हर हमले के बाद हम शर्मिंदा महसूस करते हैं. 4. यूपी सरकार ने बरेली के फरीदपुर से उन्नाव के परियार तक 6 लेन का रोड प्रस्तावित किया है. इससे बरेली और कानपुर के बीच की दूरी 10 घंटे के बजाए 3 घंटे की हो जाएगी. 5. बरेली में अभी भी युसुफजई, गोरी, लोदी, गिलजई, बारेच, मारवात, दुर्रानी, तनोली, काकर, आफरीदी, बकरजई पठान पाए जाते हैं. 6. 'बरेली की बर्फी' फिल्म भी आ रही है. सीएनजी गैस फिलिंग स्टेशन है यहां. लखनऊ, कानपुर औऱ आगरा के अलावा यहीं पर है. यूपी का सातवां सबसे बड़ा और इंडिया का 50वां सबसे बड़ा शहर. 100 स्मार्ट सिटी की लिस्ट में है. क्षेत्र के चारों कोनों पर चार शिव मंदिर हैं- धोपेश्वर नाथ, मदनी नाथ, अलका नाथ औऱ त्रिवटी नाथ. इसीलिए नाथ नगरी भी कहा जाता है. यहीं पर आला हजरत, शाह हजरत मियां, खनकहे नियाजिया, जरी नगरी हैं. संजश्या यहीं है. जहां पर महात्मा बुद्ध तुसिता से धरती पर पहुंचे थे. तुसिता वो जगह है, जहां पर बुद्ध बनने से पहले बोधिसत्व रहते हैं. फर्नीचर यहां बनता है. तो कॉटन, अनाज और चीनी का भी व्यापार होता है. यहां से सांसद हैं संतोष गंगवार बरेली कांग्रेस और भाजपा की लड़ाई के लिए जानी जाती है. अभी संतोष गंगवार यहां से सांसद हैं. सिर्फ मोदी ही नहीं, संतोष गंगवार भी आजादी के बाद पैदा हुए नेता हैं. 1989 से 2014 तक सांसद रहे हैं. बस 2009 में हारे थे. मंत्री भी रहे भाजपा की सरकार में. 2004 में वो भाजपा के चीफ ह्विप थे. हारे भी तो बहुत कम मार्जिन से. कांग्रेस के प्रवीण सिंह ऐरोन ने इनको हराया था. 9 हजार वोट से. पर जीते तो ढाई लाख वोट से 2014 में. पॉलिटिक्स में आने से पहले संतोष अर्बन कोऑपरेटिव बैंक में शामिल थे. 1996 से ही इसके चेयरमैन थे. इनके नाम बरेली का चौपला रेलवे ओवरब्रिज, लाइब्रेरी, बाई पास सब आते हैं. इमरजेंसी में गंगवार भी जेल गए थे. 1996 में ही यूपी बीजेपी यूनिट के जनरल सेक्रेटरी रहे थे. अभी मिनिस्टर ऑफ स्टेट हैं फाइनेंस मिनिस्ट्री में. यूपी में विकास पुरुष की पदवी हर ओवरब्रिज बनाने वाले को दी जाती है. इनको भी दी गई है. यहीं से हैं शायर वसीम बरेलवी लल्लनटॉप आदमी हैं. गहरी से गहरी बात सरल शब्दों में कह देते हैं. 8 फरवरी 1940 को पैदाइश है. बरेली कॉलेज में उर्दू के प्रोफेसर हैं. MLC भी हैं. इनके कुछ शेर यूं हैं-

#1

उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है

नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है

सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है

#2

तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते

मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते

'वसीम' जहन बनाते हैं तो वही अख़बार जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते

#3

उड़ान वालो उड़ानों पे वक़्त भारी है परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है

मैं क़तरा हो के तूफानों से जंग लड़ता हूँ मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है

दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ये एक चराग़ कई आँधियों पे भारी है

#4

एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने कैसे माँ-बाप के होंठों से हँसी जाती है

कर्ज़ का बोझ उठाये हुए चलने का अज़ाब जैसे सर पर कोई दीवार गिरी जाती है

पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है

#5

खुल के मिलने का सलीक़ा आपको आता नहीं और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं

वो समझता था, उसे पाकर ही मैं रह जाऊंगा उसको मेरी प्यास की शिद्दत का अन्दाज़ा नहीं

जा, दिखा दुनिया को, मुझको क्या दिखाता है ग़रूर तू समन्दर है, तो हो, मैं तो मगर प्यासा नहीं


02

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