The Lallantop
Advertisement

यूपी का वो मुख्यमंत्री जिसे जामुन के पेड़ से बांधकर पीटा गया था

बाबू बनारसी दास इतना बेलाग भी बोलते थे कि प्रधानमंत्री नेहरू को कहा, छोटे घर में रहो.

Advertisement
Img The Lallantop
font-size
Small
Medium
Large
27 जनवरी 2017 (Updated: 25 अक्तूबर 2017, 12:12 IST)
Updated: 25 अक्तूबर 2017 12:12 IST
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
राज्यसभा में एक सभापति होता है और एक उप-सभापति. सभापति उप-राष्ट्रपति होता है. ये ही सदस्यों को शपथ दिलाते हैं. पर एक प्रोटेम चेयरमैन भी होता है. दोनों के न रहने पर वही सदस्यों को शपथ दिलाता है. पर भारत के इतिहास में सिर्फ एक बार ऐसा हुआ है कि प्रोटेम चेयरमैन ने सदस्यों को शपथ दिलाई थी. ये चेयरमैन थे बाबू बनारसी दास. ये मौका आया था 1977 में. उप-राष्ट्रपति बी. डी. जत्ती को कार्यकारी राष्ट्रपति का पद संभालना पड़ा. और उप-सभापति गोदे मुराहरी लोकसभा के सांसद चुन लिए गये. तो 20 मार्च 1977 को ये पद भी खाली हो गया. तो राष्ट्रपति के आदेश पर 20 से 30 मार्च 1977 तक बाबू बनारसी दास को राज्यसभा का चेयरमैन बनाया गया. और इतिहास बन गया.



बाबू बनारसी दास स्वतंत्रता सेनानी थे. फिर यूपी की राजनीति में विधायक से लेकर विधानसभा अध्यक्ष और मुख्यमंत्री भी रहे. फिर सांसद से लेकर केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री तक रहे. कहा जाता है कि मुख्यमंत्री रहते हुए सरकारी कोठी नहीं ली. एक रोचक बात ये है कि इनको बाबू कहा जाता है. जो कि राजेंद्र प्रसाद और जगजीवन राम जैसे नेताओं के लिए इस्तेमाल किया गया था.
babuji
बाबू बनारसी दास (1912-1985)

गुलावठी कांड से नाम उभरा बाबू बनारसी दास का

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के अतरौली गांव में 8 जुलाई 1912 को बाबू बनारसीदास का जन्म हुआ था. पढ़ाई वहीं हुई. पर 15 की उम्र में वो स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए. 1928 में नौजवान भारत सभा और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए.
3 नवंबर 1929 को महात्मा गांधी ने बुलंदशहर में दौरा किया तो वहां एकदम माहौल बन गया. फिर 1930 में जब गांधीजी ने नमक सत्याग्रह किया तो माहौल जज्बे में बदल गया. 1930 का साल बनारसीदास के लिए लाइफ-चेंजिंग था. 1 अप्रैल, 1930 को यूपी के तत्कालीन गवर्नर सर मैल्कम हेली ने बुलंदशहर की यात्रा की. लोगों ने दबा के विरोध किया. विरोध का पुलिस ने जमकर दमन किया. युवाओं पर जमकर लाठियां बरसीं. बनारसी दास भी उन्हीं युवाओं में से थे. साइकिल पर गांव-गांव घूमते थे.
मात्र 16 की उम्र में बनारसी दास ने अपने गांव में कन्या पाठशाला लगाई थी जिसमें वो खुद पढ़ाते थे. उसी वक्त गांधी जी की बातों से प्रभावित होकर उन्होंने छुआछूत मिटाने के लिए सहभोज कर लिया. इसके चलते गांव तो गांव, इनके परिवार ने भी इनका बहिष्कार कर दिया.
12 सितंबर 1930 के गुलावठी में एक भयानक कांड हो गया. बाबू बनारसी दास की नेतागिरी में गुलावठी में एक विशाल जनसभा आयोजित हुई. यह शांतिपूर्ण थी लेकिन पुलिस ने उस पर हमला कर 23 राउंड गोली चला दी. आजादी के 8 दीवाने शहीद हो गए. इसके बाद उग्र किसानों ने पुलिस पर भी हमला कर दिया. इस कांड में पुलिस ने करीब एक हजार लोगों को गिरफ्तार किया और भारी यातनाएं दीं. 45 लोगों पर मुकदमा चला. 2 अक्टूबर, 1930 को बनारसी दास को मथुरा से गिरफ्तार करके बुलंदशहर लाया गया. लेकिन जिला और सेशन जज ने बनारसी दास को 14 जुलाई 1931 को छोड़ दिया. हालांकि गुलावठी कांड के कई कैदी 1937 में यूपी में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद ही छूट पाए थे.
पर बनारसी दास इसके बाद रुके नहीं. 1935 में क्रांतिकारी अंजुम लाल के साथ उन्होंने एक स्वदेशी स्कूल स्थापित किया. 1930 से 1942 के दौरान ही बनारसी दास चार बार जेल में गए. मार भी खाई. फिर भारत छोड़ो आंदोलन और व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में वे 2 अप्रैल, 1941 को गिरफ्तार हुए. पहले तो उनको छह महीने की सजा दी गई, फिर 100 रुपए का जुर्माना किया गया. लेकिन जुर्माना देने से इंकार करने पर तीन माह की और सजा मिली. इसी तरह अगस्त 1942 में भी इनको खतरनाक मानते हुए गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया गया.

कलेक्टर ने जामुन के पेड़ से बांधकर पीटा था, पर पॉपुलैरिटी बढ़ती गई

Babu-Banarasi-Das
बुलंदशहर जेल में इनको इतनी यातनाएं दी गईं कि यूपी में हल्ला मच गया. फिर 5 फरवरी,1943 को प्रिजनर्स एक्ट के तहत तत्कालीन अंग्रेजी कलेक्टर हार्डी ने रात को जेल खुलवा बनारसी दास को बैरक से निकाल कर एक जामुन के पेड़ से बांध दिया. और कपड़े उतरवा कर तब तक मारा जब तक कि वे बेहोश नहीं हो गए. पर जेल में बनारसी दास ने पढ़ाई-लिखाई नहीं छोड़ी. बहुत कुछ पढ़ लिया. इसी दौरान वो पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, मौलाना आजाद, लाल बहादुर शास्त्री, के. कामराज, सरोजिनी नायडू, गोविंद बल्लभ पंत और अब्दुल गफ्फार खान समेत तमाम चोटी के नेताओं के संपर्क में आ चुके थे. इन सारी चीजों ने उनको बेहद पॉपुलर बना दिया.
इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1946 के विधानसभा चुनाव में वो बुलंदशहर से निर्विरोध चुने गए. इसी साल वे बुलंदशहर कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष भी बन गए. फिर एक ऐसा काम किया जिसने इनकी लोकप्रियता को और बढ़ा दिया. 1947 में बुलंदशहर में जब 20,000 से अधिक पाकिस्तानी विस्थापित पहुंचे तो जिले भर में अजीब अफरा-तफरी का आलम था. ये कहां रहेंगे, कैसे रहेंगे, इनको कौन संभालेगा, ये सारी बातें सबके जेहन में तैर रही थीं. पर बनारसी दास ने जिले के व्यापारियों को तैयार कर सारा इंतजाम करवा दिया.
प्रशासन को लेकर इनके कुछ और काम अच्छे रहे हैं. 1946 में कालाबाजारी के चलते यूपी में बहुत बुरी स्थिति हो गई थी. पर बुलंदशहर में बनारसी दास ने लोगों से बात कर सारा इंतजाम कर रखा था. बाकी जगहों जैसा माहौल यहां नहीं बना. फिर तो यूपी की राजनीति में बराबर बने रहे. उसी वक्त कांग्रेस की एक अघोषित पॉलिसी आई कि हर राज्य में वैश्य समाज के कुछ नेताओं को आगे बढ़ाना है. तो इसमें बनारसी दास का भी नाम आया. इसके बाद ये राजनीति में ऊपर ही बढ़ते गए. 1962 से 1966 के दौरान बाबू बनारसी दास उत्तर प्रदेश के सूचना, श्रम, सहकारिता, बिजली और सिंचाई के अलावा संसदीय कार्य मंत्री रहे. इन सभी विभागों में उन्होंने कई नई योजनाएं शुरू कीं. सूचना विभाग ने उनके निर्देश पर जिलावार स्वाधीनता सेनानियों का विवरण खोज कर प्रकाशित किया. फिर ITI लगवाने में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही.

यूपी के मुख्यमंत्री भी बने लेकिन रहे अपने घर में ही

फिर वो वक्त भी आया जब इनको यूपी का मुख्यमंत्री बनाया गया. रामनरेश यादव के जाने के बाद ये 28 फरवरी, 1979 से 18 फरवरी, 1980 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. वे प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने कालिदास मार्ग की मुख्यमंत्री की सरकारी कोठी के बजाय कैंट के अपने मकान में ही रहना पसंद किया. मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने लंबा तामझाम नहीं रखा. बनारसी दास ने खादी और ग्रामोद्योग के विकास के लिए भी उन्होंने बहुत सी योजनाएं चलाईं. वे कई सालों तक उत्तर प्रदेश हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष भी रहे. वे 1977 से खादी ग्रामोद्योग चिकन संस्थान के संस्थापक और अध्यक्ष रहे और जनसेवा ट्रस्ट बुलंदशहर के संस्थापक अध्यक्ष भी.
बाबू बनारसी दास की संगठन क्षमता मजबूत थी. कांग्रेस में वो ग्राउंड लेवल से लेकर पॉलिसी मेकिंग तक में रहे. इस तरह उनके पास जिले से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक काम करने का अनुभव था. 60 के दशक में एक काम ऐसा हुआ कि बनारसी दास की राजनीति का लोहा सबको मानना पड़ा. उस वक्त कांग्रेस की राजनीति में कई धड़े बन गए थे. सब अपना-अपना राग अलापते थे. यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होने थे. कहते हैं कि तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉक्टर संपूर्णानंद अपने कैंडिडेट मुनीश्वर दत्त उपाध्याय की जीत को लेकर इतने भरोसेमंद थे कि सार्वजनिक रूप से कह दिया था कि अगर उपाध्याय हार गए तो मैं इस्तीफा दे दूंगा. उपाध्याय हार गये. कहते हैं कि इसी वजह से उनको इस्तीफा देना पड़ा. भविष्य के मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्ता अध्यक्ष बने. इसके पीछे बनारसी दास ही थे.
sampurnanand_1_i
डॉक्टर संपूर्णानंद

1984 में बनारसी दास ने राजनीति से संन्यास ले लिया. 1985 में इनकी मौत हो गई. अखिलेश दास इनके बेटे हैं. राज्यसभा में रह चुके हैं. मनमोहन सरकार में मंत्री भी थे. बाद में बसपा में आ गए. पर मायावती से जबर्दस्त लड़ाई हुई. दास ने तो कहा कि माया हर चीज में हस्तक्षेप करती थीं, इतना कि बसपा को दास के लिखे इस्तीफे को भी खुद मायावती ने ही लिखवाया था.
बाबू बनारसी दास के बारे में कुछ रोचक बातेंः-
1. आजादी की लड़ाई के चलते बहुत पढ़ाई तो नहीं कर पाए, पर खुद से जरूर पढ़ते रहते थे. हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ थी. संस्कृत का भी गहरा ज्ञान था. गीता से लेकर उपनिषदों पर उनकी गहरी पकड़ थी. कुछ लोग तो यहां तक कहते थे कि गांधी जी के साहित्य से लेकर तमाम महत्वपूर्ण किताबों और संसदीय नियम प्रक्रिया का तो उनको इतना ज्ञान था कि वे पेज नंबर और लाइन तक बता देते थे. यहां तक कि यंग इंडिया में गांधी जी ने किस अंक में क्या खास कहा. ज्यादातर पढ़ाई जेल में ही हुई. एक बार तत्कालीन राष्ट्र्पति डा.राधाकृष्णन अंग्रेजी में भाषण दे रहे थे, लेकिन उनका अनुवाद करने वाला कोई था नहीं वहां. बनारसी दास ने तुरंत करना शुरू कर दिया. इसकी राष्ट्रपति ने भी सराहना की.
2. वो इंग्लैंड, अमेरिका, इटली, जमैका, कैरो, रोम जैसी जगह घूम चुके थे. और वहां के प्रशासन के तरीके को अपने यहां अपनाने की सलाह देते थे.
3. 1937 और 1946 की कांग्रेस सरकार में शामिल ज्यादातर नेताओं की तरह इनका भी धर्म को लेकर मिजाज मस्त था. ये लोग सांप्रदायिकता को बढ़ने ही नहीं देते थे. 1984 के सिख दंगों के दौरान रानीगंज (लखनऊ) में एक सिख मिस्त्री की दुकान पर उसके मकान मालिक ने जबरन कब्जा कर लिया. बाबूजी को खबर मिली तो वे सीधे वहीं पहुंचे और ताला तोड़ कर उसे कब्जा दिलाया और कहा कि नाका थाने पर जाकर सूचना दे देना कि बनारसी दास ने खुद ताला तोड़ कर मुझे मेरा हक दिलाया है.
4. कहा जाता है कि बनारसी दास को बेलाग बोलने की आदत थी. इसकी वजह से घाटा भी हुआ और फायदा भी. कांग्रेस के खुले अधिवेशन में प्रधानमंत्री सहित सबको छोटे मकानों में रहने का सुझाव दे दिया था. 1952 में जवाहर लाल नेहरू की पॉलिसी का खुला विरोध कर दिया. यहां फायदा हो गया. नेहरू ने यूपी के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत से कहा कि इस लड़के को पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी बना लो.
5. गांधी से प्रभावित नेताओं की तरह बनारसी दास भी गांवों को लेकर गंभीर थे. इन लोगों का मानना था कि भारत की प्रगति गांवों से ही होकर गुजरती है.
6. बनारसी दास पत्रकार भी रहे थे. साप्ताहिक हमारा संघर्ष उनके संपादन में ही निकलता था. साठ के दशक के आखिर में इसका प्रकाशन शुरू हुआ था. इसमें किसी को भी नहीं बख्शा जाता था.
7. कहा जाता है कि बनारसी दास भोर में ही सारे अखबार पढ़ लेते थे. कि एक बार एक मीडिया हाउस के उद्घाटन में मीडिया पर इतनी जबर्दस्त स्पीच दी कि लोग चकरा गए.


ये भी पढ़ेंः

यूपी का वो मुख्यमंत्री, जो रिजाइन कर रिक्शे से घर चला गया

यूपी के इस मुख्यमंत्री की बहू सरकार के फैसले बदल देती थी!

यूपी का वो मुख्यमंत्री, जिसका करियर अमिताभ बच्चन ने खत्म कर दिया

यूपी का वो मुख्यमंत्री जिसे देश के प्रधानमंत्री ने उपचुनाव में हरवा दिया

यूपी की पहली महिला मुख्यमंत्री जो एक वक्त सायनाइड का कैप्सूल ले के चलती थीं

उस चीफ मिनिस्टर की कहानी जो गरीबी में मरा और यूपी में कांग्रेस बिखर गई

यूपी का वो मुख्यमंत्री, जो चाय-नाश्ते का पैसा भी अपनी जेब से भरता था

यूपी का वो मुख्यमंत्री जिसके आम पूरी दुनिया में फर्स्ट प्राइज लाए थे

यूपी का ये मुख्यमंत्री अपने अकाउंट में मात्र दस हजार रुपये लेकर मरा

मैं यूपी विधानसभा हूं और ये मेरी 65 साल की कहानी है

thumbnail

Advertisement

election-iconचुनाव यात्रा
और देखे

Advertisement

Advertisement

Advertisement