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उस चीफ मिनिस्टर की कहानी जो गरीबी में मरा और यूपी में कांग्रेस बिखर गई

बात डॉ. संपूर्णानंद की. जो 'ओपन जेल' कॉन्सेप्ट में मानते थे, मतलब कि अपराधी परिवार के साथ रहे.

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डॉ. संपूर्णानंद 1891-1969
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5 मार्च 2018 (Updated: 4 मार्च 2018, 05:03 IST)
Updated: 4 मार्च 2018 05:03 IST
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यूपी में चुनाव होने वाले हैं. वहां की राजनीति हमेशा ही अचंभित करती है. पर ये सिर्फ मायावती और मुलायम के दौर की ही कहानी नहीं है. यूपी की राजनीति शुरू से ही ऐसी रही है. इसको समझने के लिए हम आपको यूपी के मुख्यमंत्रियों के बारे में पढ़ा रहे हैं. सबकी राजनीति बड़ी दिलचस्प रही है.
इसी कड़ी में हम पहले दो मुख्यमंत्रियों - छतारी के नवाब
और गोविंद बल्लभ पंत
के बारे में बता चुके हैं.

आज कहानी है डॉक्टर संपूर्णानंद
  की.




भारत की आजादी के बाद पंडित गोविंद बल्लभ पंत यूपी के मुख्यमंत्री बने थे. पर नेहरू ने 1954 में उनको होम मिनिस्टर के तौर पर केंद्र में बुला लिया. तो यूपी में मुख्यमंत्री के नाम पर विचार होने लगा. ये बहुत ही जटिल था. क्योंकि यूपी में कई नेता एक ही कद के थे. पर डॉक्टर सम्पूर्णानंद को मुख्यमंत्री बनाया गया. क्योंकि उन पर सबसे ज्यादा भरोसा था. लेकिन कहानी इस भरोसे ही खत्म नहीं हुई.
राजनीति के गढ़ बनारस में पूरी ट्रेनिंग हो गई
Govind_Ballabh_Pant_with_TT_Krishnamachari_and_members_of_Planning_comission_in_1957 होम मिनिस्टर गोविंद बल्लभ पंत

तत्कालीन यूपी में बनारस राजनीति का गढ़ था. बनारस में ही 1 जनवरी 1890 को डॉक्टर सम्पूर्णानंद का जन्म हुआ था. क्वीन्स कॉलेज से पढ़ाई हुई. फिर वृदांवन और बीकानेर में पढ़ाई हुई. फिर नौकरी छोड़ दी. हिंदी में मैगजीन निकाली. अंग्रेजी में 'टुडे' नाम से मैगजीन निकाली. काशी विद्यापीठ में पढ़ाया. पर वो दौर नौकरियां करने का नहीं था. स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था तो वो आंदोलन में भी हिस्सा लेते रहे.
इसके बाद बड़े ही नैसर्गिक तरीके से राजनीति में सक्रिय हुए. फिर 1926 में कांग्रेस की तरफ से विधानसभा में चुने गए. इसके बाद 1937 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के तहत चुनाव हुआ. भारी दुराग्रहों और कन्फ्यूजन के बाद कांग्रेस ने चुनाव लड़ा. इसमें भी सम्पूर्णानंद विधानसभा में चुने गए. फिर यूपी सरकार के शिक्षामंत्री प्यारेलाल शर्मा ने रिजाइन कर दिया तो इनको ये पद मिला. बाद में होम मिनिस्ट्री, फाइनेंस मिनिस्ट्री भी संभाली. वो दौर भावनाओं का था. दूसरे विश्व-युद्ध के दौरान ये सरकारें भंग भी कर दी गईं.
मगर असली राजनीति तो आजादी के बाद शुरू हुई
sampurnanand_1_i डॉक्टर संपूर्णानंद

कांग्रेस की राजनीति यूपी में बनारस से चलती थी. 1905 में वाराणसी में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ. बंगाल-विभाजन के विरोध में. गोपाल कृष्ण गोखले थे इसके अध्यक्ष. फिर एनी बेसेंट के होमरूल लीग और थियोसोफिकल सोसाइटी का भी गढ़ बना बनारस. ज्यादातर बड़े नेता वाराणसी से ही निकले थे. बीएचयू के बनने के बाद ज्यादा नेता छात्र आंदोलन या उस माहौल से निकले थे. वाराणसी के बारे में कहा जाता है कि यह दो नालों - वरुणा और अस्सी, जो कि शहर के उत्तर और दक्षिण में बहते हैं, के नाम से बना है. बाद में ये बनारस बन गया. 1956 में सरकारी आदेश पर ये वाराणसी हो गया.
1948 के आस-पास वाराणसी की कांग्रेस में दो गुट थे. एक रघुनाथ सिंह का था और दूसरा कमलापति का. फिर स्टेट समिति में भी दो गुट हो गए थे. एक पुरुषोत्तम दास टंडन का, दूसरा रफी अहमद किदवई का. टंडन गुट के समर्थन गोविंद बल्लभ पंत, संपूर्णानंद और चंद्रभानु गुप्ता थे. गुप्ता का प्रभाव टंडन पर ज्यादा था. कुल मिलाकर राजनीति उसी समय बहुत जटिल हो गई थी. आपसी झंझट बहुत हो गए थे. सबको पता था कि 1952 में चुनाव हो रहे हैं. आजाद भारत में सब लोग पहला मंत्री, पहला सांसद बनने का ख्वाब पाले हुए थे.
तो लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हो रहे थे. सबको सांसद बनना था. संपूर्णानंद ने विधानसभा चुनाव में खड़ा होने से मना कर दिया तो कमलापति त्रिपाठी को मिलने वाली सीट 'दक्षिण बनारस' संपूर्णानंद को दे दी गई. फिर राजनीति ऐसी हो गई कि सब एक-दूसरे पर आरोप लगाने लगे. नेहरू प्रचार करने आए तो कांग्रेस समिति की अध्यक्षा तुगम्मा ने उनके हाथ में इस्तीफा दे दिया. इसके साथ ही बहुत सारे लोगों पर डिसिप्लिनरी एक्शन हुआ.
फिर जब दौर आया तो कोई रोक न पाया, राजनीति भी बदल गई
sampu डॉक्टर संपूर्णानंद अपनी मीटिंग में

1954 में मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत केंद्र में चले गए तो संपूर्णानंद को मुख्यमंत्री बनाया गया. उस वक्त इनके अलावा कमलापति, चंद्रभानु गुप्त, रघुनाथ सिंह और त्रिभुवन सिंह भी खुद को मुख्यमंत्री उम्मीदवार समझते थे. सब कुछ ऐसे ही चलता रहा. उसके बाद चौधरी चरण सिंह और राममनोहर लोहिया की राजनीति शुरू हुई. 1967 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए विनाशकारी साबित हुआ. इस चुनाव में कांग्रेस के कई नेता हार गए. कमलापति त्रिपाठी विधानसभा का चुनाव हार गए.
संपूर्णानंद को 1962 में मुख्यमंत्री पद से रिजाइन करना पड़ा.  यूपी के मुख्यमंत्री पद से रिजाइन करने के पीछे चंद्रभानु गुप्त और कमलापति त्रिपाठी थे. दोनों ने संकट पैदा कर दिया था सरकार के लिए. फिर इनको राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया. वहीं से संपूर्णानंद ने रिटायरमेंट ले लिया.
डॉक्टर संपूर्णानंद के किस्से भी काफी वैरायटी वाले हैं
1. जब संपूर्णानंद राज्यपाल थे तब राजस्थान में यूपी से आनेवाले लोगों का तांता लगा रहता था. कहते हैं कि संपूर्णानंद शाम को भांग खाते थे. आने वाले लोग ही भांग बनाते. इनका बिहैवियर बहुत अच्छा था. राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहन लाल सुखाड़िया संपूर्णानंद का बहुत आदर करते थे. उनके नाम पर जोधपुर का मेडिकल कॉलेज बनवाया. अपने वक्त के एकमात्र राज्यपाल थे संपूर्णानंद, जिनके नाम पर किसी सरकारी संस्था का नाम रखा गया. अंतिम दिनों में संपूर्णानंद गरीब हो गए थे. सुखाड़िया पैसे भेजकर उनकी मदद करते.
sampu university संपूर्णानंद के नाम पर यूनिवर्सिटी यूपी में, राजस्थान में मेडिकल कॉलेज है

2. संपूर्णानंद योग और फिलॉसफी से हमेशा जुड़े रहे.  मानते थे कि योग कामधेनु की तरह है. जो मांगोगे इससे, मिलेगा.
हिंदी, संस्कृत, खगोलशास्त्र में बहुत रुचि रखते थे. टीका भी लगाते थे. पूजा भी करते थे. और लिखते-बोलते भी इन चीजों पर. उत्तर प्रदेश में ओपन जेल और नैनीताल में वैद्यशाला बनवाईं. हिंदी को लेकर पज़ेसिव रहे. हिंदी साहित्य सम्मेलन की तरफ से सर्वोच्च उपाधि साहित्यवाचस्पति इनको मिली. 'मर्यादा' मैगजीन के संपादक रहे और जब छोड़ी तो प्रेमचंद संपादक बने. संपूर्णानंद ओपन जेल को लेकर बहुत दृढ़ थे. 'ओपन जेल' मतलब अपराधी अपने परिवार के साथ रह सके. बिजली और पानी के बिल भरने बाहर जा सके.
3. पंडित नेहरू और राजेंद्र प्रसाद की राइवलरी का एक किस्सा संपूर्णानंद से जुड़ा है.
राजेंद्र प्रसाद के मरने पर संपूर्णानंद पटना जाना चाहते थे. पर उसी वक्त नेहरू का दौरा राजस्थान का था. नेहरू ने कहा कि ये कैसे होगा कि प्रधानमंत्री दौरे पर रहे और राज्यपाल कहीं और चला जाए. संपूर्णानंद जा नहीं पाए. ये दौर था जब नेहरू और राजेंद्र प्रसाद में पटती नहीं थी. सोमनाथ मंदिर में शिव की प्रतिमा को लेकर दोनों में विवाद हुआ था. शिलान्यास पर राजेंद्र बाबू वहां चले गये थे. पर धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले नेहरू खुद कुंभ मेले में डुबकी लगाने गए थे. भगदड़ मची थी. 800 लोग मरे थे.
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राजेंद्र प्रसाद और नेहरू, राजगोपालाचारी के साथ

4. जनवरी 10, 1969 को डॉक्टर सम्पूर्णानंद की बनारस में ही डेथ हुई. इसी साल कांग्रेस की किस्मत बदल गई.
1969 में कांग्रेस में विभाजन हुआ. एक गुट इंदिरा गांधी का था. एक गुट पुराने नेताओं का था जिसे सिंडिकेट कहा जाता था. दोनों ही गुटों में राष्ट्रपति पद को लेकर झंझट हो गया. यूपी के कमलापति त्रिपाठी ग्रुप ने इंदिरा गुट को समर्थन देकर वी वी गिरि को प्रेसिडेंट बनाने की कोशिश की. दूसरे बड़े नेता रघुनाथ सिंह सिंडिकेट ग्रुप में शामिल हुए. फरवरी 1970 में चंद्रभानु गुप्ता ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया. कमला के सपोर्ट से चरण सिंह फिर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. कमला कांग्रेस के स्टेट प्रेसिडेंट बने. पर सितंबर आते-आते कांग्रेस ने चरण सिंह को समर्थन देना बंद कर दिया. प्रेसिडेंट रूल लग गया. अक्टूबर 1970 में त्रिभुवन नारायण सिंह को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई. ये सिंडिकेट ग्रुप के थे. और फिर जनवरी 1971 में त्रिभुवन मनिराम विधानसभा क्षेत्र से एक उपचुनाव में इंदिरा ग्रुप के रामकृष्ण द्विवेदी से चुनाव हार गए.
5. जोगी बनने वाले थे संपूर्णानंद क्योंकि एक के बाद एक इनकी तीन बीवियां मर गई थीं. पर स्वतंत्रता आंदोलन इनको जिंदगी में वापस खींच लाया. और फिर राजनीति में ऐसा घुसे कि इनके मंत्रिमंडल में रहने वाले चंद्रभानु गुप्ता, चरण सिंह, कमलापति त्रिपाठी और हेमवतीनंदन बहुगुणा सारे बाद में यूपी के मुख्यमंत्री बने.
6. संपूर्णानंद राजनीतिज्ञ होते हुए भी राजनीतिक चीजों से अलग थे. बात तब की है जब आचार्य नरेंद्र देव कांग्रेस छोड़ चुके थे और उन्होंने प्रजा समाजवादी पार्टी बना ली थी. उस वक्त पंडित संपूर्णानंद कांग्रेस में थे और यूपी के मुख्यमंत्री थे. सवाल आया प्रजा समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र लिखने का. सभी को अंदाज़ा था कि आचार्य जी इसे खुद लिखेंगे. पर आचार्य जी की तबीयत थोड़ी खराब थी. आचार्य जी से पूछा गया कि घोषणा पत्र लिखने का काम कहां तक पहुंचा है. तो आचार्य जी ने कहा कि उन्होंने संपूर्णानंद से कहा है और वो घोषणा पत्र लिख रहे हैं. आचार्य जी के साथी थोड़े चिंतित हुए कि विरोधी पार्टी का आदमी क्या ही लिखेगा. तीन महीने बाद हाथ से लिखा कागजों का बंडल आचार्य जी के पास आया. ये संपूर्णानंद ने भेजा था. आचार्य जी ने उसे देखा भी नहीं सीधा छपने को भिजवा दिया.
7. कहते हैं कि वो कभी जनता के बीच वोट मांगने नहीं जाते थे.
8. कहते हैं कि गांधी जी की पहली जीवनी 'कर्मवीर गांधी' उन्होंने ही लिखी थी.
9.  ये भी कहा जाता है कि हिंदी में वैज्ञानिक उपन्‍यास सबसे पहले संपूर्णानंद ने ही लिखा था.
राजनीति के बाकी किस्से बताएंगे आपको अगली कहानी में.


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